नेटवर्क काटने से दंगा शांत नहीं होता है 

नेटवर्क काटने से दंगा शांत नहीं होता है 

किसी भी राष्ट्र की असली परीक्षा तब होती है जब उसकी सड़कों पर अराजकता का शोर हो और सत्ता के गलियारों में निर्णयों की बेचैनी। भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे लोकतंत्र में जब भी कहीं हिंसा, दंगा या तनाव की आग भड़कती है, तब प्रशासन की पहली प्रतिक्रिया होती है इंटरनेट बंद कर दो। यह निर्णय अब लगभग एक यांत्रिक प्रक्रिया बन चुका है, जैसे हर संकट का यही सार्वभौमिक इलाज हो। पर वास्तव में यह सवाल बार-बार उठाया जाना चाहिए कि क्या इंटरनेट बंद कर देना शांति का रास्ता है, या यह उस समाज की थकान और शासन की असहायता का प्रतीक है जो संवाद के बजाय मौन को सुरक्षा समझ बैठा है।
 
इंटरनेट आज केवल सुविधा नहीं, बल्कि जीवन की बुनियादी धारा बन चुका है। यह शिक्षा का माध्यम है, व्यापार का आधार है, शासन का औज़ार है, और सबसे बढ़कर यह नागरिकता का दर्पण है। किसी नागरिक का बैंक खाता, राशन कार्ड, आधार प्रमाणीकरण, अस्पताल का अपॉइंटमेंट, स्कूल की परीक्षा, नौकरी की तलाश सब कुछ इसी डिजिटल ताने-बाने में जुड़ा है। जब किसी राज्य या जिले में इंटरनेट सस्पेंड कर दिया जाता है, तो यह केवल नेटवर्क का बटन बंद नहीं होता, बल्कि लाखों-करोड़ों जीवनों का प्रवाह रुक जाता है।
 
यह निर्णय एक साथ संवाद, अर्थव्यवस्था, शिक्षा और नागरिकता सब पर विराम लगा देता है। प्रशासनिक पक्ष का तर्क हमेशा यही रहता है कि इंटरनेट से अफवाहें फैलती हैं, गलत सूचनाएं फैलाकर भीड़ भड़काई जाती है, और इसलिए नेटवर्क बंद करना ज़रूरी है। यह तर्क सुनने में उचित लगता है, लेकिन असल में यह लोकतांत्रिक समाज की आत्मा पर अविश्वास का बयान है। क्योंकि यदि कोई शासन यह मान ले कि उसके नागरिक इतने असंवेदनशील हैं कि केवल कुछ झूठे संदेशों से हिंसा पर उतर आएंगे, तो यह न केवल जनता की परिपक्वता पर, बल्कि शासन की नीतियों पर भी प्रश्नचिह्न है।
 
इंटरनेट बंद करना अफवाहों का इलाज नहीं, बल्कि संवाद के पुल तोड़ देना है। यह उस विश्वास को तोड़ देता है जो किसी लोकतंत्र की सबसे बड़ी पूंजी होती है राज्य और नागरिक के बीच भरोसे का रिश्ता। भारत अब दुनिया का वह देश बन गया है जहां सबसे अधिक बार इंटरनेट बंद किया जाता है। यह विडंबना ही है कि वही भारत जो डिजिटल इंडिया के नाम पर गर्व करता है, स्टार्टअप्स की राजधानी बनने का सपना देखता है, वही भारत डिजिटल अंधकार का सबसे बड़ा क्षेत्र भी बन चुका है। कहीं परीक्षा लीक के नाम पर, कहीं चुनावी अशांति के डर से, कहीं किसानों के आंदोलन के समय, तो कहीं किसी दंगे के बहाने नेटवर्क काट देना एक आसान प्रशासनिक आदत बन गई है।
 
यह सुविधा भले ही तत्कालिक राहत देती हो, पर यह लोकतंत्र के उस मूल विचार पर चोट करती है कि जनता को शासन में सक्रिय, जागरूक और संवादशील रहना चाहिए। दंगे या हिंसा के समय इंटरनेट बंद कर देना एक प्रकार का डिजिटल आपातकाल है। यह कदम उस संवैधानिक भावना के विपरीत है जो नागरिक को अभिव्यक्ति, सूचना और भागीदारी का अधिकार देती है। सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में स्पष्ट कहा था कि इंटरनेट आज नागरिक के मूल अधिकारों का हिस्सा है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि एक जिला अधिकारी या गृह सचिव का एक आदेश पूरे राज्य की आवाज़ बंद कर सकता है। यह असंतुलन बताता है कि तकनीकी युग में भी लोकतंत्र के भीतर सत्ता और अधिकार के बीच कितना असमान समीकरण है।
 
जब इंटरनेट बंद होता है, तब केवल अफवाहें नहीं रुकतीं, बल्कि सच भी बंद हो जाता है। मीडिया की आवाज़ थम जाती है, नागरिक समाज की रिपोर्टें रुक जाती हैं, और जो घटनाएं धरातल पर घट रही होती हैं, उनका कोई दस्तावेज़ नहीं बन पाता। इस स्थिति में जो सबसे बड़ी हानि होती है, वह है सत्य का अभाव। अफवाहें तब और अधिक प्रबल हो जाती हैं क्योंकि लोग अनुमान, भय और कल्पनाओं से अपनी कहानियां गढ़ने लगते हैं। इंटरनेट बंद कर देने से अफवाहें खत्म नहीं होतीं, बल्कि उनका रूप और भी अमूर्त और खतरनाक हो जाता है वे बिना प्रमाण के, बिना जवाबदेही के फैलती हैं। दरअसल हिंसा की जड़ किसी एक वायरल वीडियो या संदेश में नहीं होती।
 
उसकी जड़ समाज के भीतर दशकों से पल रहे असमानता, भेदभाव और अविश्वास में होती है। इंटरनेट उस आग की चिंगारी हो सकता है, पर बारूद तो पहले से जमा होता है। शासन का कर्तव्य उस बारूद को हटाना है, न कि हवा रोक देना। जब प्रशासन इंटरनेट बंद करता है, तो वह इस सच्चाई से मुंह मोड़ लेता है कि हिंसा रोकने का उपाय तकनीकी नहीं, सामाजिक है। यह उपाय संवाद, शिक्षा, और पारदर्शिता से आता है, दमन से नहीं। कई बार यह भी देखा गया है कि इंटरनेट शटडाउन का निर्णय राजनीतिक रूप से सुविधाजनक हो जाता है। जब सरकारें चाहती हैं कि जनता को कुछ न दिखे, न सुने, न बोले, तब इंटरनेट बंद कर देना सबसे प्रभावी उपाय बन जाता है।
 
यह दंगों तक सीमित नहीं रहा। अब यह विरोध प्रदर्शनों, आंदोलनों और कभी-कभी लोकतांत्रिक असहमति के समय भी लागू किया जाने लगा है। यह प्रवृत्ति बताती है कि सत्ता धीरे-धीरे सूचना पर नियंत्रण को शासन का पर्याय मानने लगी है। यह खतरनाक संकेत है, क्योंकि लोकतंत्र का सार ही सूचना की स्वतंत्रता और विचारों की बहुलता है। जब विचारों की आवाज़ें बंद होंगी, तब हिंसा सड़कों पर नहीं, समाज के भीतर होगी मौन और अनकही। आर्थिक दृष्टि से भी इसका दुष्परिणाम व्यापक है। प्रत्येक घंटे का इंटरनेट शटडाउन करोड़ों की हानि लाता है।
 
छोटे व्यापारी, ऑनलाइन सेवाएं, छात्र, चिकित्सक, किसान सब प्रभावित होते हैं। सबसे अधिक असर गरीब वर्ग पर पड़ता है जो सरकारी योजनाओं, सब्सिडी और नौकरी की जानकारी के लिए मोबाइल नेटवर्क पर निर्भर है। इंटरनेट बंद करना इसलिए केवल प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि सामाजिक अन्याय भी है, क्योंकि यह सबसे कमजोर को सबसे पहले चोट पहुंचाता है। इंटरनेट बंद करने की प्रवृत्ति को समझने के लिए हमें सत्ता की मानसिकता को समझना होगा। सत्ता के लिए नियंत्रण हमेशा सुरक्षा जैसा दिखता है, जबकि नागरिक के लिए वही नियंत्रण भय बन जाता है। जब शासन यह मान ले कि सुरक्षा का अर्थ संवाद को रोकना है, तब वह धीरे-धीरे उस औपनिवेशिक मानसिकता में लौट आता है जो जनता को शासित वर्ग मानती थी, सहभागी नहीं। स्वतंत्र भारत के लिए यह सबसे बड़ा नैतिक पतन होगा।
 
समाज में शांति लाने का असली उपाय यह नहीं कि हम नेटवर्क काट दें, बल्कि यह कि हम सामाजिक नेटवर्क मजबूत करें। विश्वास, शिक्षा और आपसी संवाद के पुल बनाएं। शासन को तकनीकी दमन नहीं, बल्कि सूचना की साक्षरता पर ध्यान देना चाहिए। यदि जनता डिजिटल मीडिया की कार्यप्रणाली समझे, यदि लोग जानें कि फर्जी खबरों की पहचान कैसे करें, तो किसी भी अफवाह का असर सीमित रहेगा। इसी तरह, सरकार को भी तकनीकी विकल्पों पर विचार करना चाहिए। पूरे नेटवर्क पर प्रतिबंध के बजाय केवल उन विशेष प्लेटफार्मों या खातों को चिन्हित किया जाए जो हिंसा भड़काने में भूमिका निभा रहे हों।
 
यह उपाय नियंत्रण और स्वतंत्रता दोनों के बीच संतुलन स्थापित कर सकता है। दंगे और हिंसा से निपटने में प्रशासन को डर नहीं, विश्वास के साथ काम करना चाहिए। नागरिकों से संवाद करें, मीडिया को सही जानकारी दें, और सोशल मीडिया के माध्यम से अफवाहों का प्रतिवाद करें। सरकार चाहे तो इंटरनेट को बंद करने के बजाय उसे शांति का औज़ार बना सकती है‌ सही सूचनाएं प्रसारित करके, अफवाहों का तुरंत खंडन करके और जनता को सच से जोड़कर। यही तकनीकी युग की सबसे बड़ी ताकत है, और यही वह रास्ता है जो समाज को अंधकार से बाहर ला सकता है। यह भी स्मरण रहे कि हर बार जब इंटरनेट बंद किया जाता है, तब लोकतंत्र की सांसें कुछ पल के लिए थम जाती हैं। संवाद से ही समाज जीवित रहता है, और जब संवाद बंद होता है, तब भय और नफरत का शोर बढ़ता है।
 
किसी लोकतांत्रिक शासन का यह दायित्व है कि वह भय से नहीं, विश्वास से शासन करे; दमन से नहीं, संवाद से व्यवस्था बनाए। इंटरनेट सस्पेंड करना आसान है, पर शांति बनाना कठिन है। और शासन की असली परिपक्वता उसी कठिनाई को स्वीकार करने में है। इसलिए अब समय है कि भारत इंटरनेट शटडाउन की अपनी नीति पर पुनर्विचार करे। उसे यह मानना होगा कि शांति नेटवर्क बंद करने से नहीं, नेटवर्क जोड़ने से आती है। हमें ऐसी शासन संस्कृति चाहिए जो सूचना से नहीं डरती, बल्कि उसे जिम्मेदारी से प्रयोग करना सिखाती है। हमें ऐसे नागरिक चाहिए जो तकनीक को नफरत का नहीं, समझ का माध्यम बनाएं। तभी डिजिटल इंडिया वाकई लोकतांत्रिक इंडिया बन पाएगा। अंततः प्रश्न यही है कि क्या हिंसा का जवाब मौन से दिया जा सकता है?
 
क्या शांति तब आएगी जब हर मोबाइल सिग्नल बंद कर दिया जाए, हर स्क्रीन अंधेरी कर दी जाए, हर नागरिक को चुप करा दिया जाए? नहीं शांति तब आएगी जब सच बोले जाने की हिम्मत होगी, जब संवाद बचेगा, जब लोग एक-दूसरे की बात सुन सकेंगे। इंटरनेट उस संवाद का सबसे बड़ा पुल है। उसे तोड़ देना शांति नहीं लाता, केवल अंधकार बढ़ाता है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति की आवाज़ महत्वपूर्ण है। इंटरनेट उन आवाज़ों को जोड़ता है, उन्हें समाज के केंद्र में लाता है। जब किसी दंगे के समय यह आवाज़ बंद कर दी जाती है, तो हम न केवल संचार का रास्ता काटते हैं, बल्कि नागरिकता की आत्मा को भी मौन कर देते हैं।
 
और एक मौन समाज, चाहे वह कितना भी सुरक्षित दिखे, भीतर से हमेशा असुरक्षित होता है। इसलिए यह कहना नितांत आवश्यक है कि दंगे की आग बुझाने का उपाय नेटवर्क काटना नहीं, संवाद जलाए रखना है। इंटरनेट सस्पेंड कर देना समाधान नहीं, बल्कि उस बीमारी की स्वीकारोक्ति है जिसे हम ठीक करना ही नहीं चाहते। लोकतंत्र की सांसें तभी चलेंगी जब हर नागरिक, हर नेटवर्क और हर आवाज़ खुली रहेगी। 

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