उतरप्रदेश और बिहार में नींव से खिसकते अनेक राजनीतिक दल
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राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिए बनाए जाते जाते हैं। उसका आधार एक विचार होता है। उसके लिए संगठ बनता है। जो लोगों को उस विचार के लिए प्रेरित करता है। यही नियम है। इसे उत्तर प्रदेश के चुनाव मेंभी ध्वस्त होते देखा गया था। हर दल अपनी नींव से खिसक गए हैं। मानो उसमें भूकंप आ गया हो। इसे हर पल में घट रही घटनाओं के उदाहरण से समझा जा सकता है।पहले उस दल को देखना उचित ही होगा जो उत्तर प्रदेश में पांच साल से शासन में थ। वह सपा है। यह पार्टी सितंबर, 2016 से राजनीतिक भूकंप के झटके लगातार झेल रही है। वह झटका जारी है। जिसने पार्टी बनाई वह बेगाने शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तरह हो गए हैं। वे मुलायम सिंह थे। जो कब क्या बयान देकर विवाद छेड़ देते, इसे वे भी नहीं जानते थे।समाजवादी ड्रामा तीन महीने तक चला।
बाप-बेटे के बीच विवादों की स्क्रिप्ट लिखी गई। लेकिन इतने समय के विरोधाभास के बाद आखिर जीत तो अखिलेश की हुई।कौन माता पिता इस दुनिया मे अपनी संतान से हारते हुए देखना चाहते है। हर अभिभावकों के मन मे एक ही इच्छा रहती है कि मैं भले ही हार जाऊ,लेकिन मेरी संतान हर कदम पर जीत की खुशियां मनाए और अंततः वही हुआ। मुलायम सिंह कोर्ट से हार गए। मान सकते हैं कि वे सदमे बहुत भारी थे। वैसे ही जैसे घर के ढेर हो जाने घर मालिक होता है। सपा के दूसरे कद्दावर नेता शिवपाल बोल पड़े थे कि चुनाव बाद नया दल बनाएंगे। इस तरह की उथल-पुथल ने अखिलेश यादव का मनोबल तोड़ दिया और वे उस कांग्रेस की गोद में जा बैठे।जोकि कांग्रेस का उतरप्रदेश में जनाधार नही था।अगर वो जिंदा नही हुई और जिंदा हो जाती तो सपा को खा जाती।
बसपा का हाल उससे भी बुरा था। वह कायदे से राजनीतिक दल बनने के रास्ते पर चली ही नहीं। वह जाति और मजहब के गठजोड़ की उपज है। बीते त 12 सालों से बसपा का घर उजड़ गया है। उसके ज्यादातर नेता भाजपा में जा चुके हैं। उनमें वे भी हैं जो बसपा के जन्मजात नेता रह थे। कुछ सालों पहले की बसपा को आज पहचानना कठिन है। हाथी की चाल मन्द पड़ चली है। मायावती की कोई राजनीतिक हलचल दिखाई नही देती है। कोई भी राजनीतिक दल दो बातों से पहचाना जाता है।
विचार और नेतृत्व से। बसपा इन दोनों रूपों में भी अपनी पहचान खो चुकी है। वह खुद को खोज रही है। इस भटक़ाव में वह उत्तर प्रदेश में दलित-मुस्लिम गठजोड़ का ताना-बाना बुन रही होगी। ध्रुवीकरण पर उसकी आस टिकी है।योगी आदित्यनाथ के आने के बाद पूर्व पार्टियां सत्ता से बंधी हुई थी।आज के वर्तमान में उनके शासन को याद तक नही करते है।जंगलराज के तमगे से उपजी ये पार्टियां लोगो पर सितम ढाहने में अपना वर्चस्व स्थापित करचुकी थी। इनके शासनकाल में लखनऊ गुंडा और माफियो की शरणस्थली बन चुका था।
कह सकते हैं कि2017 के पहले उत्तर प्रदेश गहरे राजनीतिक संक्रमण के दौर में था।चुनाव ने उसे तेज कर दिया है। इसके साफ-साफ दो कारण थे। पहला यह कि विधानसभा का चुनाव पिछले परिणाम से उभरी राजनीति के उस चुनाव में हर दल ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। भारी जोखिम मोल ले ली थी।दूसरा यह कि चुनाव परिणाम से हर दल बदल जाएगा। लेकिन हर दल में 'परकाया प्रवेश' हो चुका था।
इर्द-गिर्द नहीं हो रहा था।2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम से जो हस्तक्षेप उत्तर प्रदेश की राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने किया, वही प्रमुख आधार हो गया था। दूसरा यह कि चुनाव उत्तर प्रदेश की सत्ता कौन संभाले, इसके लिए हो रहा था। पर यह 2019 के लोकसभा चुनाव का प्रहसन भी हो गया। इससे कोई दल बचा नहीं था। भाजपा भी नहीं। जितना असंतोष भाजपा के कार्यकर्ताओं और नेताओं मेंउस समय था उतना कभी नहीं था।क्योकि भाजपा की 2014 के पहले शुरुआती दौर था। बगावत की आवाज चारों ओर से उठ रही थी। उसे शांत करने के लिए खून पसीना एक किया जा रहा था।
हर चुनाव में थोड़ा बहुत असंतोष तो होता ही है। उस बार का अकल्पनीय था। इसके कारण बहुत साफ थे।
भाजपा में शामिल होने वालों की संख्या हर रिकार्ड तोड़ चुकी थी। कांग्रेस, सपा और बसपा से आए नेताओं को भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया था। उनकी संख्या 155 से ज्यादा थी।यानी इतने क्षेत्रों में भाजपा नेता अवसर से वंचित हो गए थे। वे बड़ी उम्मीद में थे। तब भाजपा का उम्मीदवार होना ही चुनाव जीतने की पक्की गारंटी मानी जा रही थी।
भाजपा में आए हुए समूह मेंकोई गीले शिकवे नही थे। अक्सर चुनाव में परिणाम के बाद भाजपा अपनी समीक्षा में पाती रही है कि टिकट का बंटवारा ठीक नहीं हुआ था। उससे सबक लेकर कोई कदम भाजपा नेतृत्व पहले नहीं उठाता था। तब अमित शाह ने जो उम्मीदवार चयन की प्रणाली अपनाई वह हस्तक्षेप से अछूती रही थी। उन नेताओं की नहीं चली जो टिकट की बंदरबाट के लिए बदनाम हुए। इसमें वे भी कुछ नहीं कर सके जो 'नैतिक सत्ता' का दबाव बनाकर हस्तक्षेप कर लेते थे।
उतरप्रदेश में कांग्रेस सालों से हासिए पर है। अपने पुनरोदय के लिए हाथ-पांव मार रही थी। राहुल गांधी की खाट यात्रा उसी कड़ी में थी। अगर वही राह कांग्रेस ने ली होती तो वह अपने बलबूते पर चुनाव लड़ती। उसने बिहार के अनुभव से फायदा इसमें ही देखा कि सपा की सहयोगी पार्टी बन जाए। इसी तरह अजीत सिंह का लोकदल कहीं आसरे की खोज में था। उसे सहयोगी बनाने से सपा हिचक गई। क्योंकि अफसरों ने अखिलेश यादव को बताया कि अजीत सिंह के आने से -प्रतिक्रिया में मुसलमान बसपा में चले जाएंगे।
हर दल की राजनीति पर सरसरी निगाह डालने से कुछ निष्कर्ष निकलते हैं। एक यह है कि इस चुनाव में हर दल ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। भारी जोखिम मोल ले ली थी। दूसरा यह कि चुनाव परिणाम से हर दल बदल जाएगा। वह नहीं रहेगा जो होता था और है। क्योंकि हर दल में 'परकाया प्रवेश' हो चुका था।
तीसरा यह कि हर दल में पीढ़ी और पद परिवर्तन का दृश्य है। नई पीढ़ी नेतृत्व संभालने वाली रही। चौथा यह कि हर दल की नजर युवा मतदाता पर थी। युवा के नखरे पर राजनीति का कदम ताल तय होने जा रहा था।बिहार की यही हालत है।
लालू की राजद कई वर्षों से राजनीतिक गलियारों से बाहर है।नीतीश कुमार के गठबंधन के कारण तेजस्वी कुछ समय के लिए उपमुख्यमंत्री बन गए थे।जेडीयू कई वर्षों से गठबंधन की सरकार चला रही है। बिहार में कई प्रादेशिक दल है जो जशिये पर धकेल दिए गए है।उनका नाम राजनैतिक मंच पर चुनाव के समय ही सुनने को मिलता है। उतरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश ने भूल की थी,वही भूल तेजस्वी यादव कांग्रेस को साथ लेकर कर रहे है।बिहार की राजनीति में तीस वर्षों से सत्ता से बाहर कांग्रेस का भविष्य एक सर्वे पर भरोसा करें तो कांग्रेस के पास आज भी बिहार में जनाधार नही है।नीतीश कुमार में चुनाव से पूर्व 75 लाख महिलाओं के खाते में दस दस हजार ट्रांसफर किये है।उससे और अधिक रकम ऋण के तौर पर देने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश ने घोषणा की है।
कांतिलाल मांडोत
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