समावेशी राष्ट्रवाद".की अवधारणा. विसंगतियों को अवसर में बदलने की प्रक्रिया l
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आज़ादी के बाद भारत ने औद्योगिक, कृषि, शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है, किंतु सामाजिक विषमताओं का गहरा साया आज भी देश की आर्थिक प्रगति की गति को रोक रहा है। स्वतंत्र भारत के सामने सामाजिक और आर्थिक असमानता सबसे गंभीर समस्या बनकर खड़ी हुई है। जिस देश में जाति, धर्म, भाषा और वर्ग के आधार पर समाज विभाजित हो, वहां आर्थिक विकास का संतुलित प्रवाह बनाए रखना अत्यंत कठिन हो जाता है।
भारतीय समाज में विविधता हमारी सांस्कृतिक पहचान तो है, किंतु यही विविधता जब विषमता में बदल जाती है, तो विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। स्वतंत्रता पूर्व काल में सामाजिक विषमताओं ने दासता की जंजीरों को और मजबूत किया, वहीं स्वतंत्रता के पश्चात भी इन विषमताओं ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को अनेक स्तरों पर कमजोर किया है। आज जातिगत संघर्ष, क्षेत्रीय असंतुलन, धार्मिक विभाजन और भाषाई विवाद हमारे समाज के लिए गंभीर चुनौतियां बन चुके हैं।
राजनीति ने इन विषमताओं को सुलझाने के बजाय अक्सर इन्हें भुनाया है। जातीय समीकरण और वर्गीय विभाजन सत्ता तक पहुंचने के साधन बन गए हैं। उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। यही सामाजिक असंतुलन आर्थिक असमानता को जन्म देता है, जो आगे चलकर नक्सलवाद, बेरोजगारी और अपराध जैसे रूपों में फूट पड़ता है।भारत में न केवल जातिगत बल्कि धार्मिक विभाजन भी गहरी जड़ें जमा चुका है। मंदिर-मस्जिद के विवादों ने देश के सामाजिक सौहार्द को बार-बार चोट पहुंचाई है। सांप्रदायिकता के कारण समाज में अविश्वास और असुरक्षा की भावना बढ़ती गई है, जिससे निवेश और विकास का माहौल भी प्रभावित होता है। पश्चिमी अर्थशास्त्रियों ने भी यह स्वीकार किया है कि भारत के आर्थिक विकास में जाति और धर्म आधारित असमानताएं सबसे बड़ी रुकावट हैं, क्योंकि इनकी जड़ें इतिहास में बहुत गहराई तक फैली हुई हैं।
भाषाई विवाद भी इस समस्या का एक संवेदनशील पहलू है। स्वतंत्रता के बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने पर दक्षिण भारत के राज्यों में भारी विरोध हुआ। आज भी बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और उड़ीसा जैसे राज्यों में भाषाई पहचान को लेकर तनाव समय-समय पर उभरते रहते हैं। यह स्थिति न केवल सांस्कृतिक बल्कि आर्थिक एकता को भी प्रभावित करती है।संविधान निर्माताओं ने इन विषमताओं को ध्यान में रखते हुए समानता, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धांतों को भारत के संविधान की आत्मा में शामिल किया। पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से सरकार ने वर्गविहीन समाज की परिकल्पना की थी, जहाँ आर्थिक अवसर सभी के लिए समान हों। परंतु स्वतंत्रता के 78 वर्ष बाद भी वर्ग, जाति, भाषा और धर्म के नाम पर विभाजन की रेखाएं समाज में स्पष्ट दिखती हैं।
भारत के आर्थिक विकास की सच्ची अवधारणा तभी संभव है जब सामाजिक समानता को प्राथमिकता दी जाए। पिछड़े वर्ग, दलित, आदिवासी और गरीब तबके को विकास की मुख्यधारा में जोड़ना सबसे आवश्यक कार्य है। यदि ये वर्ग आर्थिक और शैक्षिक रूप से सशक्त बनते हैं, तो गरीबी, भूखमरी और नक्सलवाद जैसी समस्याएं स्वतः समाप्त हो जाएंगीlभारत जैसे विविधतापूर्ण देश में विकास केवल योजनाओं से नहीं, बल्कि मानसिक एकता से संभव है। हमें ‘समावेशी राष्ट्रवाद’ की अवधारणा को अपनाना होगा — जिसमें हर नागरिक खुद को राष्ट्र की प्रगति का सहभागी माने। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और आर्थिक राष्ट्रवाद को एक सूत्र में पिरोकर ही हम एक सशक्त भारत का निर्माण कर सकते हैं।
आज भी देश में गरीबी, बेरोजगारी, नक्सलवाद, आतंकवाद, भाषावाद और सांप्रदायिकता जैसी विसंगतियां ब्रिटिश शासन काल की तरह समाज को भीतर से कमजोर कर रही हैं। यह स्थिति बताती है कि अभी हमें बहुत लंबा रास्ता तय करना है। आर्थिक नीतियों के साथ-साथ सामाजिक सुधार भी आवश्यक हैं।राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए यह अनिवार्य है कि समाज के हर वर्ग में समान अवसर, समान सम्मान और समान भागीदारी सुनिश्चित की जाए। जब तक समाज में समानता का वातावरण नहीं बनेगा, तब तक आर्थिक प्रगति केवल आंकड़ों तक सीमित रहेगी, वास्तविक जीवन में नहीं उतरेगी।
अब समय आ गया है कि हम अपने मतभेदों को भुलाकर ‘राष्ट्र प्रथम’ की भावना को सर्वोपरि रखें। यदि हर नागरिक अपनी सामाजिक पहचान से ऊपर उठकर भारतीयता को अपनाए, तो भारत विश्व मंच पर न केवल आर्थिक रूप से बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक रूप से भी अग्रणी राष्ट्र बन सकता है।भारत का आर्थिक उत्थान तभी संभव है जब सामाजिक विषमताओं को मिटाकर राष्ट्रवाद, समरसता और समानता को समाज की मूलधारा बनाया जाए। यही वह पथ है जो भारत को आत्मनिर्भर, सशक्त और विश्वगुरु के रूप में स्थापित कर सकता है।
यदि भारत को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना है, तो सबसे पहले सामाजिक समानता सुनिश्चित करनी होगी। पिछड़े वर्गों, दलितों, आदिवासियों और वंचित तबकों को मुख्यधारा से जोड़ना ही वास्तविक विकास की दिशा में पहला कदम है। जब समाज का हर वर्ग शिक्षित, स्वावलंबी और सशक्त बनेगा, तभी गरीबी, भुखमरी, नक्सलवाद और असमानता जैसी समस्याएं मिटेंगी।
विकास केवल आर्थिक योजनाओं से संभव नहीं होता; इसके लिए मानसिक एकता और सामाजिक समरसता भी आवश्यक है। हमें “समावेशी राष्ट्रवाद” की उस अवधारणा को अपनाना होगा, जिसमें हर नागरिक खुद को राष्ट्र की प्रगति का सहभागी समझे। सांस्कृतिक और आर्थिक राष्ट्रवाद का समन्वय ही एक नए भारत की नींव रख सकता है।आज भी गरीबी, बेरोजगारी, भाषावाद, आतंकवाद और सांप्रदायिकता जैसी चुनौतियां भारत के विकास की रफ़्तार को रोक रही हैं।
ब्रिटिश शासनकाल की विसंगतियां कहीं न कहीं आज भी हमारी सोच में मौजूद हैं। आवश्यकता है कि हम इन सब विभाजनों से ऊपर उठकर “राष्ट्र प्रथम” की भावना को सर्वोपरि रखें।जब हर भारतीय अपने व्यक्तिगत, भाषाई या धार्मिक मतभेदों से ऊपर उठकर ‘भारतीयता’ को अपनाएगा, तभी भारत विश्व मंच पर न केवल आर्थिक बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक दृष्टि से भी अग्रणी राष्ट्र बन सकेगा।
संजीव ठाकुर, लेखक, चिंतक
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