स्वतंत्र प्रभात-
कृषि क्षेत्र पर सालों से अपनी गिद्ध दृष्टि जमाई हुई कॉरपोरेट लॉबी ने एक बार फिर सरकार के माध्यम से अपना खेल शुरू कर दिया है । आपदा को अवसर में बदलने की होड़ में एक बार फिर से पूंजीपतियों ने देश के अन्नदाता और भारतीय अर्थव्यवस्था की धूरी किसान और कृषि उत्पाद पर अपने खूनी पंजे गड़ा दिए हैं ।
सर्व विदित है कि इस आपदा काल में एकमात्र कृषि क्षेत्र ने अर्थव्यवस्था और जीडीपी को सहारा दिया है ,,लेकिन उसे पुष्पित – पल्लवित और संरक्षित करने की जगह सरकार ने किसानों को कॉरपोरेट का जर- खरीद गुलाम बनाने की कवायद कर ली है।
संसद के मौजूदा मानसून सत्र में जहां एक तरफ प्रश्नकाल को समाप्त करके विपक्ष की धार को भोथर करने की कोशिश की गई ,वहीं दूसरी तरफ कृषि अध्यादेश से संबंधित तीन अधिनियम विपक्ष के पुरजोर विरोध के बावजूद पारित कर दिए गए ।
गौरतलब है कि वर्तमान सरकार के सहयोगी अकाली दल की एक केंद्रीय मंत्री ने भी इन अधिनियमों के पारित होने के विरोध में अपना इस्तीफा भी दे दिया है ।मोटे तौर पर समझने के लिए हम इन अधिनियमों को तीन भागों में विभाजित करके इससे होने वाले नफे नुकसान का आकलन कर सकते हैं।
पहला कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और बिचौलिए (ई ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म)
दूसरा अवैध भंडारण और कालाबाजारी कानून की समाप्ति
तीसरा विवाद की स्थिति में न्यायिक हस्तक्षेप को अमान्य करार
कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग के तहत कृषि उत्पादों से जुड़े व्यवसाई घराने अब सीधे किसानों से एक निश्चित उपज का एक निश्चित मूल्य अदा करने के करार पर उनसे अपनी मनवांछित कृषि उत्पाद की खेती करा सकते हैं।
दूर से देखने में यह एक लुभावना प्रस्ताव लग सकता है जिसमें किसान को अपने उत्पाद को बेचने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं होगी और उसे निर्धारित मूल्य प्राप्त हो जाएगा। साथ ही नई तकनीकी और प्रारंभिक तौर पर कुछ एडवांस पैसा भी मिल जाएगा।
लेकिन जब आप गहराई में जाएं तो एक तरह से किसानों की यह बंधुआ मजदूरी है जिसमें चंद पैसों की मदद की आड़ में बड़े कॉरपोरेट घराने अपने हिसाब से फसलों की खेती करावाएंगे और अपनी ही जमीन पर किसान मात्र एक मजदूर की हैसियत में होगा।
साथ ही साथ उपज की क्वालिटी निर्धारण के नाम पर घटिया करार देकर कम मूल्य अदा करने के खतरे बने रहेंगे।
इसके साथ – साथ बिचौलियों को खत्म करने का दावा करने वाली सरकार ने बिचौलियों को आधिकारिक मंजूरी दे दी है, जिसके तहत कोई भी व्यक्ति अथवा संस्था जो पैन कार्ड होल्डर है ,वह कृषि उत्पादों के विपणन के लिए “ई मार्केटिंग प्लेटफॉर्म” स्थापित कर सकता है ।
हम सब इस तथ्य से वाकिफ हैं कि देश का किसान तकनीकी रूप से इतना समृद्ध नहीं है के वह “ई मार्केटिंग प्लेटफॉर्म” और कॉरपोरेट घरानों के द्वारा किए जा रहे कॉन्ट्रैक्ट (करार) की पेचीदगीयों को समझ सके। इस प्रक्रिया में उसके ठगे जाने और पेचीदा करारों की आड़ में बंधुआ मजदूरों की तरह वसूली के जाल में भी फ़सने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता।
इस पूरी प्रक्रिया में सरकार की ओर से अगर इस बात की बाध्यता लगाई गई होती कि कोई भी करार सरकार द्वारा निर्धारित उस उत्पाद के “न्यूनतम समर्थन मूल्य” से कम पर नहीं हो सकता तो शायद हम इसे बेहतरी की ओर लिया गया एक कदम कह सकते थे ,,लेकिन “न्यूनतम समर्थन मूल्य” का जिक्र भी ना होना विपक्ष की उस आशंका को बल देता है जिसमें उसे यह लगता है इस अधिनियम की आड़ में सरकार विभिन्न कृषि उत्पादों से “सरकारी विपणन” और न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रक्रिया को खत्म करने की दिशा में अग्रसर है,, जोकि किसान हितों पर गहरा आघात होगा।
जहां एक तरफ सरकार किसानों को अपनी ही जमीन पर कॉरपोरेट घरानों की मर्जी पर काम करने वाला मजदूर बना रही है, वहीं दूसरी तरफ अनाज, दलहन, तिलहन, आलू -प्याज जैसे कृषि उत्पादों को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से हटा करके उनके भंडारण पर लगी रोक को समाप्त करने का अधिनियम पारित करती है ।
यहां यह बताना जरूरी है कि चुंकि अनाज और आलू- प्याज जैसी सब्जियां हर परिवार की मूलभूत आवश्यकताएं हैं ,ऐसे में मुनाफाखोरी के लिए व्यापारियों द्वारा पूंजी के बल पर अवैध भंडारण किया जाता रहा है। इसी मुनाफाखोरी और कालाबाजारी को रोकने के लिए “आवश्यक वस्तु अधिनियम” के तहत एक सीमा से ज्यादा इन वस्तुओं का भंडारण अपराध की श्रेणी में आता था ।
बड़े व्यापारिक घरानों की शुरू से यह मांग रही है कि भंडारण की सीमा की बाध्यता को समाप्त किया जाना चाहिए । इसके पीछे उनकी मंशा कृषि उपज के उत्पादन के समय किसान की पूंजी की कमी की बाध्यता का फायदा उठाते हुए ओने पौने दामों में उनसे अनाज एवं अन्य कृषि उत्पाद लेकर उसका बड़े पैमाने पर भंडारण कर सके,, ताकि बाजार में एक आर्टिफिशियल क्राइसिस क्रिएट की जा सके और फिर कई गुना ज्यादा दाम पर आम उपभोक्ता को उसे बेचकर भारी मुनाफा कमाया जा सके ,,जिसे मुनाफाखोरी और कालाबाजारी का नाम दिया जाता रहा है ।और आज बीजेपी सरकार कठपुतली की तरह उन्हीं कलाबरियों और मुनाफाखोर के हाथों में खेलते हुए इस बाध्यता को समाप्त कर रही है। इस प्रक्रिया का फायदा ना तो देश के किसान को मिलना है ,,,ना ही उपभोक्ता को,,,, इसका पूरा फायदा सिर्फ और सिर्फ कृषि उत्पादन के विपणन से जुड़े व्यवसायिक घरानों को होना है
इस पूरी प्रक्रिया का तीसरा सबसे खतरनाक पहलू यह है के नए कृषि अधिनियमों में किसान और व्यवसायिक घरानों अथवा e-marketing प्लेटफार्म के बिचौलिए के साथ हुए करार में किसी भी विवाद की स्थिति में किसी भी न्यायालय को यह अधिकार नहीं है कि वह उस विवाद में कोई हस्तक्षेप कर सके। ना ही किसान को इस बात की छूट है कि वह संतुष्ट न होने की स्थिति में न्यायिक प्रक्रिया को अपना सके।
किसी भी विवाद के निस्तारण के लिए एसडीएम से लेकर संबंधित विभाग के संयुक्त सचिव तक को निर्णय देने का अधिकार है ,,,अर्थात सिर्फ सरकार का “प्रशासनिक अमला” ही किसी विवाद को निपटाने के लिए सक्षम होगा।
जग जाहिर है के किस प्रकार से व्यावसायिक घराने अपने पैसों और राजनैतिक रसूख के बल पर प्रशासनिक तंत्र को अपनी उंगलियों पर नचाते रहे हैं ,,,,और वैसे भी सिर्फ पूंजी के दम पर बिना किसी मेहनत के मुनाफा कमाने वाली कंपनियों से अपने मुनाफे के संबंध में किसी प्रकार की सदाशयता की उम्मीद बेमानी है।
किसान अधिनियम के प्रावधानों में न्यायिक प्रक्रिया का कोई प्रावधान ना होना सरकार की नियत पर सवाल उठाता है !!
क्या नए कृषि अधिनियम किसानों और उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए हैं या मध्यस्थों और व्यवसायिक घरानों का हित साधने के लिए किसान हितों का मुलम्मा चढ़ाया गया है।
वो ख्वाब थे हो चमेलियों से,, सो सबने हाकिमों की कर ली बैअत,,,,,
फिर जब एक चमेली की ओट से जो सांप निकले,,,तो लोग समझे !!
लेखक कमलाकर त्रिपाठी राजनैतिक विश्लेषक