देश के कर्मचारियों को मानसिक तनाव से मुक्त करेगा ‘राइट टू डिस्कनेक्ट बिल’

देश के कर्मचारियों को मानसिक तनाव से मुक्त करेगा ‘राइट टू डिस्कनेक्ट बिल’

आज की तेज़-रफ़्तार तकनीकी दुनिया में मानसिक तनाव एक सार्वभौमिक समस्या बन चुका है। आधुनिक सुविधाओं से लैस होने के बावजूद हमारा सामाजिक और पारिवारिक जीवन पहले की तुलना में कहीं अधिक बोझिल और नीरस हो गया है। बच्चे हों या युवामहिलाएँ हों या बुज़ुर्गहर किसी के जीवन में तनावचिड़चिड़ापन और मानसिक थकावट स्पष्ट दिखाई देती है । स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों पर पढ़ाई और प्रतियोगी माहौल का दबाव हैवहीं दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारी लगातार बढ़ते कार्यभार से जूझ रहे हैं। विशेष रूप से तीसरे दर्जे के कर्मचारीजो सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों की रीढ़ हैंसबसे अधिक मानसिक दवाब झेलते हैं। दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद भी जब वे घर लौटते हैंतो आराम की जगह उनके मोबाइल फोन पर लगातार निर्देशसंदेश और अर्जेंट’ कार्यों की सूची उनका इंतज़ार करती मिलती है। वे घर में भी कार्य-तनाव से घिरे रहते हैं और सोते हुए भी अगले दिन के बोझ की चिंता से मुक्त नहीं हो पाते।

स्मार्टफोन के अत्यधिक उपयोग ने लोगों की नींद और मानसिक शांति पर पहले ही गहरा प्रहार किया है। उस पर काम और पढ़ाई का अतिरिक्त दबाव बच्चों से लेकर वयस्कों तक सभी को मानसिक रोगों की ओर धकेल रहा है। आज देश में मानसिक रोगियों की बढ़ती संख्या के पीछे दो मुख्य कारण हैं स्मार्टफोन निर्भरता और कार्य का बढ़ा हुआ बोझ । ऐसे माहौल में बेहद महत्वपूर्ण है वह पहलजो हाल ही में लोकसभा में राष्ट्रवादी कांग्रेस की सांसद श्रीमती सुप्रिया सुले द्वारा राइट टू डिस्कनेक्ट बिल के रूप में प्रस्तुत की गई है। इस बिल का मुख्य उद्देश्य हैकार्यालयीन समय समाप्त होने के बाद कर्मचारियों को किसी भी प्रकार का ऑफिस-वर्क या अधिकारियों के निर्देशों का पालन करने से छूट मिलना। इस ऐतिहासिक पहल का देश के सरकारी और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों द्वारा खुले दिल से स्वागत किया जा रहा है। कर्मचारियों का मानना है कि यह बिल उनके दर्द और मानसिक पीड़ा को सही मायनों में आवाज़ देता हैजिसे अब तक किसी भी स्तर पर गंभीरता से नहीं सुना गया।

दुनिया के कई विकसित देशों में यह व्यवस्था पहले से लागू हैजिसमें कर्मचारियों के आराम और निजी समय की रक्षा करने के लिए कानूनी प्रावधान मौजूद हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में कर्मचारियों को कार्यालयीन समय के बाद भी ड्यूटी का भार उठाना पड़ता है। शिक्षास्वास्थ्य या अन्य किसी भी विभाग में आप नज़र डालें कर्मचारी दफ्तर बंद होने के बाद भी लगातार निर्देशोंसंदेशों और तत्काल कार्य’ के आदेशों से घिरे रहते हैं । यह कार्यप्रणाली लंबे समय से सरकारी तंत्र की एक अनकही परंपरा बन चुकी हैजिसमें नीचे से ऊपर तक हर स्तर पर कर्मचारी अपने वरिष्ठ अधिकारियों के संदेशोंफोन कॉल्स और निर्देशों के दबाव में रहते हैं। इसका सबसे बड़ा खामियाज़ा तीसरे दर्जे के उन कर्मचारियों को उठाना पड़ता है जिन पर सरकारी योजनाओं को जमीनी स्तर पर लागू करने की असली जिम्मेदारी होती है। परिणामस्वरूप वे मानसिक रूप से थके हुएअवसादग्रस्त और लगातार तनाव में रहते हैं।

अब समय आ गया है कि देश के जनप्रतिनिधि इस वास्तविकता को समझें। यदि राइट टू डिस्कनेक्ट बिल’ संसद के दोनों सदनों से पारित होकर कानून का रूप ले लेता हैतो यह करोड़ों कर्मचारियों के जीवन में नई ऊर्जासंतुलन और मानसिक शांति का संचार करेगा। साथ ही यह स्वाभाविक रूप से सरकारी कार्यों की गुणवत्ता और कार्यक्षमता में भी वृद्धि करेगा । राष्ट्रीय आपदा या विशेष परिस्थितियों में यदि कर्मचारियों से अतिरिक्त समय तक काम लिया जाएतो उसके लिए अतिरिक्त पारिश्रमिक देने का स्पष्ट और कठोर नियम होना चाहिए। यह न सिर्फ कर्मचारियों के अधिकारों को सुरक्षित करेगाबल्कि कार्यप्रणाली को अधिक मानवीय और व्यवस्थित बनाएगा । देश के कर्मचारियों की निगाहें अब संसद पर टिकी हैं। वे बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं कि कितने माननीय सदस्य उनके इस महत्वपूर्ण अधिकार के समर्थन में खड़े होते हैं। उम्मीद है कि यह बिल जल्द ही कानून बनकर लागू होगा और देश के कर्मचारी वर्ग को मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाने में महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।

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अरविंद रावल

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