संघ के बिना भाजपा का कोई वजूद ही नहीं
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत मृदु स्वभाव वाले और मितभाषी हैं। वे किसी खास मुद्दे या अवसर पर ही अपनी बेबाक राय रखते हैं। लेकिन, जब भी वे कुछ कहते हैं तो उसे गौर से सारा देश सुनता और समझने की कोशिश करता है। उनके वक्तव्यों की पूरे देश में विभिन्न कोणों से व्याख्या होने लगती है। हाल ही में आए लोकसभा चुनावों के बाद डॉ. मोहन भागवत ने भाजपा नेताओं पर सांकेतिक और परोक्ष रूप से 'अहंकारी' होने के आरोप लगाकर राजनीतिक क्षेत्रों में, खासकर भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच भूचाल सा ला दिया है।
मोहन भागवत ने महाराष्ट्र के नागपुर में संघ के कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि "एक सच्चा सेवक काम करते समय मर्यादा बनाए रखता है। उसमें कोई अहंकार नहीं होता कि “मैंने यह किया।” केवल ऐसा व्यक्ति ही सेवक कहलाने का अधिकारी है।" आखिर वे अहंकार पर चर्चा करके क्या कहना चाहते हैं? एक आम राय यह भी है कि डॉ. भागवत की दृष्टि में भाजपा के कुछ नेता सत्ता पर काबिज होने के बाद विनम्र नहीं रहे। वे अहंकारी हो गए। वे आम जनता के सरोकारों से दूर हो गए। उन्होंने जन सेवा के कामों से अपने को दूर कर लिया। इसी कारण के चलते ही जनता ने लोकसभा चुनावों में भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं दी । मुझे भाजपा के एक प्रमुख सहयोगी संगठन के शिखर पदाधिकारी बता रहे थे कि वे कुछ माह पहले किसी जरूरी काम के सिलसिले में एक बार अति प्रमुख स्थान रखने वाले एक केन्द्रीय मंत्री से मिले। मंत्री जी उन महोदय के काम से और संघ निष्ठा से अच्छी तरह वाकिफ थे।
वे उम्र और तजुर्बे में मंत्री जी से बड़े हैं I मंत्री जी को पता था कि उन्होंने संघ के कार्यकर्ता के रूप में अपना सारा जीवन खपा दिया है। इतना सब कुछ होने पर भी जब उन्होंने कहा कि संघ ने मुझे यह दायित्व दिया है और आपका सहयोग चाहिये I तब मंत्री जी ने कहा कि, यह दायित्व आपने मुझसे पूछकर लिया था क्या ?” उन केन्द्रीय मंत्री जी ने उन संघ निष्ठ वरिष्ठ कार्यकर्त्ता सज्जन को खड़े-खड़े ही चलता कर दिया। मंत्री जी भूल गए कि भाजपा को मजबूती संघ और उसके सहयोगी संगठनों से ही मिलती है। इसमें कोई शक नहीं है कि भाजपा के उन नेताओं को अपनी सोच में बदलाव तो लाना होगा जो संघ के महत्व और विचारधारा से परिचित नहीं है। संघ के बिना भाजपा का कोई वजूद ही नहीं है। कुछ ऐसे लोग भी संघ के नाम पर भाजपा के शीर्ष पर पहुँच गये, जिनका स्वयं का संघ कार्य का न तो कोई अनुभव है न ही कभी वे संघ में किसी दायित्व के पदों पर रहे हैं I हाँ, यह अवश्य है कि वे संघ परिवार से आते हैं और उनके पिता या बड़े भाई संघ-निष्ठ कार्यकर्त्ता या पदाधिकारी रहे हैं I
अपने भाषणो में मोहन भागवत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तो हमेशा तारीफ़ करते रहे हैं। राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के समय, मोहन भागवत ने कहा था-‘ इस प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव में पधारने से पहले प्रधानमंत्री जी ने कठोर व्रत रखा। जितना कठोर व्रत रखने को कहा था उससे कई गुना अधिक कठोर व्रताचरण उन्होंने किया। मेरा उनसे पुराना परिचय है और मैं जानता हूँ, वो तपस्वी हैं ही।" संघ भाजपा का अभिभावक संगठन है तो यह स्वाभाविक है कि उसका भाजपा पर असर तो रहेगा ही, साथ ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संघ के सक्रिय जीवनदानी पूर्णकालिक प्रचारक भी रहे हैं। अत: मोदी जी, राजनाथ सिंह आदि की बात अलग है I वे संघ को समझते हैं I कुछ समय से दबी-जुबान से यह भी चर्चा होती रही है कि क्या भाजपा हमेशा संघ के प्रभाव में ही काम करती है? अगर नहीं तो संघ का भाजपा पर नियंत्रण किस हद तक है। सही बात तो यह है कि संघ के पचासों आनुषांगिक संगठन अपना-अपना कार्य स्वतंत्र रूप से करते हैं I पर संघ का परोक्ष नियंत्रण और मार्गदर्शन तो रहता ही है जिसे सभी मानते भी हैं I
क्या नड्डा को संघ और भाजपा के संबंधों पर यह सब कहना चाहिए था या नहीं, पर कहीं न कहीं संकेत तो ऐसे ही मिल रहे हैं कि लोकसभा चुनाव के दौरान ही संघ और भाजपा के कुछ नेताओं के बीच कुछ वैचारिक मतभेद उत्पन्न होने लगे थे। हालांकि मैं इस संबंध में कुछ भी पुख्ता रूप से नहीं कह सकता कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश में चुनाव में हार के बाद संघ की ओर से ही उम्मीदवारों के चयन के लिए दिए गए सुझावों पर ध्यान नहीं दिया। संघ और भाजपा लंबे समय से सभी चुनावों में मिलकर काम करते रहे हैं।
हां, यह सच है कि भाजपा में अन्य दलों से बहुत सारे नेता शामिल होते रहे हैं। मुमकिन है कि संघ की सोच को लेकर उनकी कोई बहुत निष्ठा न भी हो। पर यह कोई नहीं मान सकता कि भाजपा को अब संघ के साथ और सहयोग की जरूरत नहीं रही है। भाजपा को संघ और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों का अनुसरण करना ही होगा। पंडित दीनदयाल जी और अटल जी अहंकार से कोसों दूर थे। वे सज्जनता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ही मुझे 1966 में भारतीय जनसंघ में लाये और उनके जीवन के अंतिम क्षणों तक मैं उनका प्रवास सहयोगी रहा I
वे एक गम्भीर दार्शनिक एवं गहन चिंतक होने के साथ-साथ समर्पित संगठनकर्ता और नेता थे, जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में व्यक्तिगत शुचिता एवं गरिमा के उच्चतम आयाम स्थापित किये। जब मैंने उनके साथ बिहार में 1960 के दशक में काम किया तब मैं किशोर ही था । उनकी शख्सियत में दंभ का नामो-निशान तक नहीं था। एक बार हम प्रवास में झारखण्ड के एक सुदूर कस्बे में एक ही कमरे में ठहरे थे और मैंने उनकी धोती साफकर बाहर फैला दिया था I मुझे उनकी डांट पड़ी थी I उन्होंने कहा था कि “यह काम” मैं स्वयं करता हूँ, तुमने बिना पूछे क्यों किया I भाजपा के नेताओं को सदैव इन महान संस्थापकों के विचारों और जीवनशैली का अनुसरण करना होगा।
याद रख लें कि किसी ठोस विचारधारा के बिना किसी राजनीतिक दल का कोई मतलब नहीं है। संघ की मार्फत ही भाजपा “राष्ट्रीय” शब्द को गहराई से समझती है। मोहन भागवत ने एक बार कहा भी था कि राष्ट्रवाद शब्द समाज के लिए ठीक नहीं है। यह शब्द सीमित करता है। वहीं राष्ट्रीयता शब्द विस्तार देता है। “वाद” शब्द हमेशा स्वार्थ के लिए होता है। स्वार्थ की पूर्ति होते ही मोह भंग हो सकता है, जबकि राष्ट्रीयता से आत्मिक जुड़ाव होता है।
मोहन भागवत साफ बोलते हैं। मणिपुर की अशांति पर भी मोहन भागवत ने अपनी राय रखी हैं। "मणिपुर एक साल से शांति की तलाश में है। इस पर प्राथमिकता से चर्चा होनी चाहिए। राज्य पिछले 10 वर्षों से शांत था। ऐसा लग रहा था कि पुरानी 'बंदूक संस्कृति' खत्म हो गई है। वहां जो अचानक तनाव पैदा हुआ या करवाया गया, उसकी आग में वह अभी भी जल रहा है। इस पर कौन ध्यान देगा? इसे प्राथमिकता देना और इस पर ध्यान देना हमारा कर्तव्य है," यह बेबाक टिप्पणी डॉ. मोहन भागवत की है ।
निस्संदेह पिछले लगभग एक साल से मणिपुर जल रहा है। वहां पर हिंसा और कत्लेआम जारी है। स्थिति काबू में आ ही नहीं रही है। जब लगता है कि अब मणिपुर में अमन की बहाली होने वाली है, तब ही उधर से कोई बुरी खबर सामने आ जाती है। मणिपुर की स्थिति ने सारे देश को परेशान किया हुआ है। जाहिर है कि मोहन भागवत की मणिपुर पर राय से सारा देश अपने को जोड़ता है। अब देश की चाहत है कि मणिपुर में अमन की बहाली हो जाए और संघ-भाजपा के संबंधों में पहले वाली गर्मजोशी दिखाई दे। यह होगा तभी जाकर भाजपा कार्यकर्ताओं और राष्ट्रवादी सोच के नागरिकों का मनोबल बढ़ेगा I
आर.के. सिन्हा
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)
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