मानव अधिकार दिवस : सभ्यता के नैतिक विवेक का दर्पण

मानव अधिकार दिवस : सभ्यता के नैतिक विवेक का दर्पण

हर वर्ष 10 दिसंबर को दुनिया मानवता के उस मूल्य को याद करती है जो किसी भी राष्ट्र, धर्म या शासन की सीमाओं से परे है—मानवाधिकार। यह दिन कैलेंडर की एक साधारण तारीख नहीं, बल्कि उस आत्मा का उत्सव है जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है। यह हमें याद दिलाता है कि सभ्यता का विकास केवल तकनीकी प्रगति से नहीं, बल्कि इस बात से मापा जाता है कि हम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से सबसे कमजोर व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। मानव अधिकार दिवस हमें हमारे सामूहिक विवेक से यह प्रश्न पूछने का अवसर देता है कि क्या सचमुच हम उस दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ हर मनुष्य गरिमा, सम्मान और स्वतंत्रता के साथ जी सके।

द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका ने दुनिया को भीतर तक झकझोर दिया था। जब नस्ल, धर्म और विचार के आधार पर मनुष्यों का निर्मम संहार हुआ, तब मानवता ने महसूस किया कि सभ्यता का ढांचा कितनी आसानी से ध्वस्त हो सकता है। इसी ऐतिहासिक चेतना ने 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा को ‘मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा’ अपनाने के लिए प्रेरित किया, जिसने पहली बार यह स्पष्ट किया कि मनुष्य के अधिकार राज्य की इच्छा नहीं हैं, बल्कि जन्मसिद्ध हैं—वे मनुष्य होने के कारण स्वतः प्राप्त हैं। इस घोषणा का पहला वाक्य—सभी मनुष्य जन्म से स्वतंत्र और समान गरिमा एवं अधिकारों के अधिकारी हैं—आज भी नैतिकता का सबसे स्पष्ट और सार्वभौमिक घोषणापत्र है। यह अंतःकरण की वह आवाज़ है जो किसी एक देश या संस्कृति की नहीं, बल्कि पूरी मानवता की है।

भारत ने, स्वतंत्रता के तत्काल बाद, इन सिद्धांतों को अपने संविधान में समाहित करके एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। संविधान के मौलिक अधिकार नागरिकों को समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन और स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता और शोषण से मुक्ति का आश्वासन देते हैं। यह न केवल राजनीतिक दस्तावेज़ है, बल्कि हमारे लोकतंत्र का नैतिक आधार भी है। 1993 में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की स्थापना इसी प्रतिबद्धता की निरंतरता है, जिसका उद्देश्य राज्य की नीतियों और कार्यवाहियों से उत्पन्न होने वाले किसी भी अन्याय की निगरानी करना है। यह आयोग उन नागरिकों की आवाज़ बनने का प्रयास करता है जो शक्ति-संरचनाओं में हाशिए पर छूट जाते हैं।

परंतु मानव अधिकार का अर्थ केवल विधिक सुरक्षा तक सीमित नहीं है। यह किसी वर्ग को दिया गया उपकार भी नहीं है। यह मनुष्य की गरिमा का वह बुनियादी सिद्धांत है जो बताता है कि किसी व्यक्ति के साथ किया गया अन्याय केवल उसके विरुद्ध नहीं, बल्कि पूरी मानवता के विरुद्ध अपराध है। महात्मा गांधी ने कहा था कि किसी एक मनुष्य का अपमान, समूची मानवता का अपमान है। यही व्यापकता और संवेदनशीलता मानवाधिकारों की आत्मा है। जहाँ गरिमा का हनन होता है—चाहे वह जाति के आधार पर भेदभाव हो, लिंग असमानता, धार्मिक उत्पीड़न, श्रम का शोषण, या अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध—वहाँ मानवाधिकार खतरे में पड़ जाते हैं।

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आज का समय इन अधिकारों को नए प्रकार की चुनौतियों के बीच परखता है। युद्ध और आतंकवाद ने दुनिया के कई हिस्सों में नागरिक जीवन को अस्थिर कर रखा है। मध्य पूर्व और अफ्रीका के संघर्षों के कारण लाखों लोग विस्थापित हुए हैं और मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। एशिया के कई देशों में राजनीतिक असहमति पर अंकुश और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरे बढ़ रहे हैं। लोकतांत्रिक देशों में भी निगरानी प्रणालियों, डेटा-संग्रह और डिजिटल प्लेटफॉर्मों के विस्तार ने निजता के अधिकार पर गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं। वही तकनीक, जो विकास का साधन हो सकती है, कई बार नियंत्रण का साधन बनकर सामने आती है। संयुक्त राष्ट्र का 2025 का थीम—डिजिटल समानता और मानव गरिमा—विश्व समुदाय को चेतावनी देता है कि तकनीकी प्रगति यदि मानवीय मूल्यों के साथ संयोजित हो, तो वह नई असमानताओं को जन्म दे सकती है।

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भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में मानव अधिकार विमर्श और भी जटिल हो जाता है। जाति, लिंग, वर्ग और धर्म के आधार पर भेदभाव की ऐतिहासिक परंपराएँ आज भी सामाजिक व्यवहार में दिखाई देती हैं। दलित, आदिवासी, महिला और अल्पसंख्यक समुदायों को कई बार अपने अधिकारों के लिए अत्यधिक संघर्ष करना पड़ता है। न्यायपालिका और मीडिया कई मामलों में आवाज़ उठाते हैं, लेकिन एक लोकतांत्रिक समाज का स्वास्थ्य केवल संस्थानों पर निर्भर नहीं हो सकता। सामाजिक चेतना और नागरिक संवेदनशीलता उतनी ही आवश्यक है। जब तक समाज अपने भीतर निहित असमानताओं को स्वीकार करके उन्हें मिटाने का प्रयास नहीं करेगा, तब तक मानवाधिकार केवल कानूनी वाक्यों तक सीमित रह जाएँगे।

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मानव अधिकारों के साथ कर्तव्यों का संबंध भी उतना ही अनिवार्य है। अक्सर यह गलतफहमी रहती है कि मानवाधिकार केवल अधिकारों की माँग का दस्तावेज़ है। परंतु किसी समाज में अधिकारों की रक्षा तभी संभव है जब नागरिक स्वयं दूसरों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील हों। संविधान के मौलिक कर्तव्य इसी संतुलन की ओर संकेत करते हैं। अधिकार और कर्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं; जहाँ अधिकारों की अनदेखी अत्याचार को जन्म देती है, वहीं कर्तव्यों की उपेक्षा अव्यवस्था पैदा करती है।

21वीं सदी ने मानवाधिकारों के दायरे को और विस्तृत कर दिया है। स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार, जलवायु न्याय, इंटरनेट पहुँच, डेटा सुरक्षा, और लैंगिक विविधता की मान्यता—ये सभी नए आयाम हैं जिनके बिना आधुनिक समाज में समता और सम्मान की कल्पना अधूरी है। जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित वे समुदाय हैं जिनके पास संसाधन और राजनीतिक शक्ति सबसे कम है। इस संदर्भ में जलवायु न्याय एक वैश्विक नैतिक ज़रूरत के रूप में उभर रहा है। इसी प्रकार डिजिटल अधिकारों की लड़ाई यह सुनिश्चित करती है कि तकनीक मानव को नियंत्रित करने का औज़ार न बने, बल्कि उसकी स्वतंत्रता और अवसरों का विस्तार करे।

मानव अधिकार दिवस इसलिए महज एक स्मृति-दिवस नहीं, बल्कि भविष्य की जिम्मेदारी का दिन है। यह हमें याद दिलाता है कि दुनिया की वास्तविक प्रगति इस बात में नहीं है कि हमने कितने बड़े बाँध या कितनी तेज़ मशीनें बनाई हैं; बल्कि इसमें है कि हमारे समाज में सबसे कमजोर व्यक्ति कितनी गरिमा के साथ जीवन जी रहा है। जब दुनिया का हर मनुष्य भय, अपमान और भेदभाव से मुक्त होकर जी सकेगा, तभी मानव अधिकार दिवस की भावना सचमुच साकार होगी। मानवता की असली कसौटी यही है कि हम अपने भीतर और अपने समाज में कितनी दया, न्याय और समानता को जगह देते हैं। यही विवेक हमारी सभ्यता का भविष्य सुनिश्चित करेगा।

महेन्द्र तिवारी

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