भारत में बढ़ते प्रदूषण का कारण क्या वास्तव में हमारा गैर जिम्मेदाराना व्यवहार है?
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पर्यावरण प्रदूषण आज मानवता के समक्ष सर्वाधिक भयावह चुनौतियों में से एक और इसका प्रमुख कारण है मानव जनित प्रदूषण।भारत में प्रदूषण की समस्या अक्सर उद्योगों, वाहनों, बढ़ते शहरी विस्तार और सरकारी तंत्र की कमियों से जोड़ी जाती है, परंतु सच्चाई यह है कि प्रदूषण को बढ़ाने में नागरिकों के गैरजिम्मेदाराना कृत्य भी बड़े और निर्णायक कारक हैं।एक आंकड़े के अनुसार वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग 76 प्रतिशत उर्जा उत्पादन और उपभोग से जुड़ा हुआ है,जो मानव की असंयत उर्जा खपत की प्रवृत्ति को दर्शाता है।
वास्तव में देखा जाए तो पर्यावरण संकट किसी एक संस्था, नीति या व्यवस्था का परिणाम नहीं, बल्कि सामूहिक व्यवहार की गलत दिशा का प्रतिफल है। हमारी छोटी-छोटी लापरवाहियाँ मिलकर एक बड़े राष्ट्रीय संकट में बदल जाती हैं।
सबसे सामान्य और हानिकारक व्यवहार है कचरे को अनियमित रूप से इधर- उधर फेंकने की प्रवृत्ति। अधिकांश शहरों में सड़कें, ग्रीन बेल्ट, सार्वजनिक स्थल, नाले, नदी, तालाब किनारे आदि सभी जगह धर, दुकान , फैक्टरी आदि से निकले कचरा का ढेर दिखना इस बात का प्रमाण है कि हमने स्वच्छता को आदत नहीं, केवल अवसर भर समझा है। कई लोग कचरे को खुले में जला देते हैं, जिससे उसके जहरीले तत्व वायु में फैलकर मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों को नुकसान पहुँचाते हैं। सिंगल-यूज़ प्लास्टिक पर प्रतिबंध के बावजूद इसका निरंतर उपयोग नागरिक जिम्मेदारी की कमी को दर्शाता है।
वाहनों का अनियंत्रित उपयोग, साझा न करने की प्रवृत्ति तथा पब्लिक ट्रांसपोर्ट को कम महत्व देने की सोच ने भी प्रदूषण बढ़ाने का काम किया है। छोटी दूरी पर भी निजी वाहन का उपयोग, समय पर प्रदूषण जांच न कराना, सर्विसिंग की अनदेखी करना और पुराने धुआँ छोड़ने वाले वाहनों का उपयोग तथा ई-वाहनों को कम महत्व देने का ही परिणाम है अवांछित कार्बन उत्सर्जन। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में कचरा, पराली और पत्ते जलाने की परंपरा अब भी जारी है, जिससे पीएम2.5 और पीएम10 जैसे सूक्ष्म कण तेजी से वातावरण में फैलते हैं।
जल प्रदूषण के लिए भी नागरिकों के कई आचरण सीधे जिम्मेदार हैं। नदियों और तालाबों में मूर्तियाँ, फूल, कपड़े और घरेलू कचरा विसर्जित करना, धार्मिक आस्था के नाम पर जलस्रोतों को कचरा-घर बनाना पर्यावरणीय संवेदनहीनता का प्रतीक है। घरों, दुकानों, उद्योगों का बिना उपचार का गंदा जल नदी,तलाब, नालों आदि में छोड़ देना अंततः जलस्रोतों को विषैला बना देता है।
ध्वनि प्रदूषण के मामले में भी नागरिकों की मनमानी किसी से छिपी नहीं है। तीव्र ध्वनि वाले डीजे, विविध अवसरों पर पटाखों का अत्यधिक उपयोग, धार्मिक और सामाजिक आयोजनों में लाउडस्पीकरों की ऊँची आवाज, वाहनों में अनावश्यक होर्न आदि का उपयोग सब मिलकर शोर का ऐसा वातावरण बनाते हैं जो स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। कई लोग देर रात तक ध्वनि स्तर के नियमों की खुली अवहेलना भी करते हैं।
ऊर्जा और संसाधनों के दुरुपयोग में भी हमारा व्यवहार जिम्मेदार है। एसी और बिजली का अनावश्यक प्रयोग, पानी को बिना कारण बहने देना, बोरवेल का अत्यधिक दोहन और वर्षाजल-संग्रह को नजरअंदाज करना आदि भी संसाधनों पर दबाव बढ़ाते हैं। इसके साथ पेड़ों की कटाई, हरित-आवरण की अनदेखी और रोपित वृक्षों के संरक्षण में रुचि की कमी भी कहीं न कहीं प्रदूषण को और बढ़ाती है।
ओन लाइन वस्तुओं को मंगाने की बढ़ती प्रवृत्ति,त्योहारों के दौरान प्लास्टिक सजावट, रासायनिक रंगों और पटाखों का अत्यधिक उपयोग यह दर्शाता है कि हम उत्सवों में स्वस्थ पर्यावरण को शामिल करना अब भी नहीं सीख पाए हैं। कचरा प्रबंधन नियमों, ट्रैफिक कानूनों और पर्यावरणीय दिशा-निर्देशों की लगातार अवहेलना “नियम केवल दूसरों के लिए हैं” वाली मानसिकता को उजागर करती है।
सत्य यही है कि प्रदूषण केवल सरकारी असफलता का परिणाम नहीं, बल्कि हमारे गैरजिम्मेदाराना आचरण का दर्पण भी है। जब तक हम स्वयं पर्यावरणीय अनुशासन नहीं अपनाएँगे, तब तक सुधार केवल कागज़ों और घोषणाओं तक सीमित रहेगा और हम दिल्ली वासी जैसे पर्यावरण प्रदूषण को कोसते रहेंगे। क्योंकि समाधान नीति में नहीं, नागरिक के चरित्र में छिपा है।
पर्यावरण प्रदूषण रोकने में सरकारों को भी जिम्मेदार संस्था के रूप भूमिका निभाने की आवश्यकता है क्योंकि वहां भी हममें से ही कोई बैठा है। पर्यावरण कानूनों को बिना भेदभाव के प्रभावी तरीके से क्रियान्वयन करने की जरुरत है साथ ही स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देना, सार्वजनिक परिवहन को सुदृढ़ बनाना और अपशिष्ट प्रबंधन की बेहतर व्यवस्था करना , जिम्मेदाराना व्यवहार के लिए नागरिकों को प्रेरित करना भी उसके प्रमुख दायित्व में से एक हैं।इतना ही नहीं पेड़-पौधों के संवर्धन- संरक्षण,जल स्रोतों की नियमित साफ-सफाई और शहरी हरियाली बढ़ाने जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सरकारें प्रदूषण नियंत्रण को प्रभावी बना सकती है, बशर्ते बनाना चाहें। मेरा ऐसा मानना है कि जब तक हर भारतीय और सरकारें स्वयं को पर्यावरण का रक्षक नहीं समझेंगे तब तक भारत में प्रदूषण संकट के बादल गहराते जाने की ही संभावना है, प्रदूषण मुक्त होना एक दिवास्वप्न जैसा है।
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