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वन नेशन वन इलेक्शन ! में कहां फंसा है पेंच
-------- जितेन्द्र सिंह पत्रकार
सरकार देश में एक साथ चुनाव के पक्षधर है, सरकार का मत है कि बार-बार चुनाव से गुजरने में देश को अधिक खर्च के बोझ से गुजरना पड़ता है। इसके अलावा सुरक्षा बलों को काफी लंबा समय चुनाव कराने में ही लगाना पड़ता है। बार -बार आचार संहिता लगानी पड़ती है जिससे देश व प्रदेशों के महत्वपूर्ण कार्यों में बाधा उत्पन्न होती है। वन नेशन वन इलेक्शन की संभावनाओं का पता लगाने के लिए केन्द्र सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में एक पांच सदस्यीय पैनल का गठन किया है। जिसकी बैठकों का दौर शुरू हो चुका है। यह एक अच्छी पहल है इससे हमें काफी परेशानियों से बचाव होगा।
बार बार चुनाव से सरकारी कार्यों में बाधा उत्पन्न होती है उससे छुटकारा मिलेगा तथा देश में मौजूद वाहरी तथा अंदरुनी सुरक्षा बलों को अन्य जरुरी कार्यों के लिए समय बचेगा। बार बार आचार संहिता लागू होने से सरकारी योजनाओं का सही से क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। लेकिन यहां पर बताने वाली बात यह है कि पहले भी देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव होते थे लेकिन जैसे जैसे राजनैतिक परिस्थितियां बदलती गई वैसे वैसे चुनावों की प्रक्रिया हर जगह अलग अलग होने का प्रचलन शुरू हो गया। और यह प्रचलन तब शुरू हुआ जब सियासत में नये नये प्रयोग होने लगे। और जोड़ तोड़ की राजनीति शुरू हो गई। ऐसे में एक साथ चुनाव कराना असंभव लगने लगा। और जिस राज्य में जब सरकार की समयावधि पूरी होने लगी वहां चुनाव कराये जाने लगे।
आपको पता होना चाहिए कि 1969 तक देश में विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ होते थे। देश को पांच साल में एक बार ही चुनाव का बोझ सहन करना पड़ता था। पांच साल में एक बार ही धन खर्च आता था और एक बार ही सुरक्षा बलों पर चुनाव कराने का जिम्मा उठाना पड़ता था, एक बार ही चुनाव आचार संहिता लागू करनी पड़ती थी। उसके बाद पांच साल तक इन समस्त कार्यों का बोझ नहीं पड़ता था। लेकिन इस समय देश में कांग्रेस का शासन था, सभी राज्यों में भी लगभग कांग्रेस की ही सत्ता थी।
दूसरा दल कांग्रेस के सामने कहीं नहीं ठहरता था। लेकिन इसके बाद तमाम क्षेत्रीय दल भी उभर कर सामने आ गये। और जोड़ तोड़ की राजनीति शुरू हो गई जो आज तक जारी है, कहीं कोई दल बहुमत से थोड़ा दूर रह गया तो कांग्रेस को हटाने के लिए दूसरे दलों ने उन्हें समर्थन देना शुरू कर दिया, और जब टकराव शुरू हुआ तो समर्थन वापस ले लिया सरकार अल्पमत में आ गई। कुछ दिन राष्ट्रपति शासन लगा और अंत में सरकार को छै माह बाद दुबारा चुनाव कराने पड़े। वन नेशन वन इलेक्शन का स्वरूप यहीं से बिगड़ना शुरू हो गया। उसके बाद यह क्रम हर राज्य में शुरू हो गया। सरकारें अल्पमत में आईं और इलेक्शन कराने पड़े। यही पर चुनाव आयोग मजबूर हो गया। उसको बार बार चुनाव कराना जरूरी हो गया
वन नेशन वन इलेक्शन के लिए नीति आयोग पहले ही अपनी सिफारिशें कर चुका है। 2015 से 2019 तक किये गये सर्वे के बाद अपनी रिपोर्ट में नीति आयोग के सदस्य विवेक देवराय ने कहा है कि इस समय में कोई साल ऐसा नहीं बचा जब किसी राज्य में विधानसभा चुनाव न हुए हों। इसके साथ साथ उपचुनावों की भी बड़ी लम्बी फेहरिस्त है। ऐसे में बड़े पैमाने पर धन का खर्च आता है। इसके साथ ही सुरक्षा बलों और जन शक्ति को बहुत ही लम्बे समय तक तैनाती रहती है। अब जब वन नेशन वन इलेक्शन की कवायत चल रही है तो रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में जिस पैनल का गठन किया गया है उन्हें हर पहलू पर सोचना होगा। यह भी सोचना होगा कि कहीं कोई सरकार अल्पमत में आकर गिर गई और उसको कोई समर्थन देने को तैयार नहीं हुआ तो उस स्थिति में क्या होगा। क्या वाकी का समय राष्ट्रपति शासन में गुजारा जायेगा। या क्या नीति अपनाई जाएगी। इसमें एक और बात सामने आती है वह है उपचुनाव की आज के समय में जनता द्वारा चुना हुआ प्रत्याशी पार्टी बदलने के लिए विधानसभा या लोकसभा से इस्तीफा दे देता है और वह सीट जब रिक्त हो जाती है तो दूसरे दल से चुनाव लड़ जाता है। इस प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगना बहुत जरूरी है।
अब देखना यह है कि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में जो पांच सदस्यीय पैनल गठित किया गया है वह कब तक अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपता है। इस संबंध में एक बैठक श्री कोविंद के आवास पर हो चुकी है। मसला छोटा नहीं है इसमें कई पहलुओं पर निगाह रखनी होगी। शायद सरकार इसकी रिपोर्ट जल्दी चाहती है। ऐसा भी अंदाजा लगाया जा रहा है कि सरकार इस वर्ष के अंत में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनाव करादे। लेकिन अभी इतनी इलेक्ट्रॉनिक मशीनों की संख्या हमारे देश में नहीं है।बड़ी संख्या में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की खरीद करनी पड़ेगी जिसमें काफी खर्चा आने की भी संभावना है।
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