धरती और प्रकृति का बदलता नैसर्गिक स्वरूप
बाढ़-सूखा और भूकंपl
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इंसान की लालच ने मूक धरती को भी कहीं का नहीं छोड़ा है इंसानों की स्वार्थी गतिविधियों के कारण आज पृथ्वी पर उष्णता का गंभीर संकट मंडरा रहा है। धरती, जिसे हमने सदा मां का सम्मान दिया है, आज वही पृथ्वी माता अपनी ही संतानों के लोभ, लालच और स्पृहा से कराह कर,जख्मी हो कर तड़प रही है। औद्योगिकीकरण की अंधा-धुंध दौड़, प्रदूषण का भयानक विस्तारित स्वरूप, जंगलों की बेदर्द कटाई और धरती में उपलब्ध संसाधनों का अंधाधुंध दोहन इन सबने धरती का संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है। नतीजा यह है कि कभी बरसात बेकाबू होकर प्रलय लाती है, तो कभी महीनों तक आसमान सूखा रहकर दरारें छोड़ देता है। यही है आज का सबसे बड़ा संकट ।
अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) की रिपोर्टें बता रही हैं कि धरती का औसत तापमान औद्योगिक क्रांति के बाद से 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। सुनने में यह मामूली छोटा आंकड़ा लगता है, पर इसके असर बेहद भयावह हैं। हिमखंड पिघल रहे हैं, समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और मौसम का मिज़ाज पूरी तरह बदल चुका है।
भारत खेती पर ही अधारित,निर्भर देश इसका सबसे बड़ा भुक्त भोगी रहा है। यहां की अर्थव्यवस्था और करोड़ों किसानों का जीवन मानसून पर अवलंबित तथा टिका हुआ है। लेकिन अब मानसून का स्वरूप पूरी तरह तहस नहस हो चुका है। देश के राज्य कीगईअसम, बिहार और उत्तराखंड में हर साल बाढ़ तबाही मचाती है, जबकि विदर्भ, मराठवाड़ा, बुंदेलखंड और राजस्थान में सूखा किसानों को आत्महत्या तक करने को मजबूर कर देशता है। 2013 की केदारनाथ त्रासदी और 2018 की केरल बाढ़ ने लाखों परिवार उजाड़ दिए हैं।
वैश्विक स्तर पर दुनिया के दूसरे हिस्सों की तस्वीर भी उतनी ही डरावनी है। चीन की यांग्त्ज़ी नदी की बाढ़ करोड़ों लोगों को प्रभावित करती है। अफ्रीका का साहेल क्षेत्र लगातार सूखे से जूझ रहा है। अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया और ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की आग हर साल नई तबाही लाती है। यूरोप की गर्म हवाएं हजारों लोगों की जान ले चुकी हैं। हमारे पड़ोसी बांग्लादेश और नेपाल बार-बार बाढ़ और तूफानों से त्रस्त रहते हैं। यह स्पष्ट है कि वैश्विक उष्णता अब किसी एक देश का मुद्दा नहीं, बल्कि पूरी मानवता का संकट है।
भारतीय संस्कृति सदा से प्रकृति को पूजती आ रही है। ऋग्वेद से लेकर महात्मा गांधी तक हमें यही संदेश मिला कि प्रकृति का सम्मान करो, उसका दोहन नहीं। गांधी जी ने चेताया था कि "धरती मनुष्य की जरूरत पूरी कर सकती है, लेकिन उसके लालच को नहीं।" दुर्भाग्य से हमने इस चेतावनी की अनदेखी की और आज परिणाम हमारे सामने है।
फिर भी उम्मीद बाकी है। बचाव के रास्ते हमारे ही हाथों में हैं। कोयले और पेट्रोलियम पर निर्भरता घटाकर सौर, पवन और बायोगैस जैसी नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देना होगा। जंगलों की कटाई रोककर बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण करना होगा। जल संरक्षण को आंदोलन का रूप देना होगा। तालाब-कुएं पुनर्जीवित करने होंगे, नदियों की सफाई करनी होगी। किसानों को सूक्ष्म सिंचाई और आधुनिक जल प्रबंधन से जोड़ना होगा। और व्यक्तिगत स्तर पर ऊर्जा की बचत, प्लास्टिक का कम प्रयोग और हरित जीवनशैली अपनाना अब हर नागरिक का धर्म होना चाहिए।धरती तप रही है, आसमान गरम हो रहा है और बारिश-बाढ़ का तांडव हमें आगाह कर रहा है कि समय हाथ से निकल रहा है। यह केवल वैज्ञानिक रिपोर्टों का सवाल नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व का प्रश्न है। यदि आज नहीं चेते तो कल की सभ्यता केवल इतिहास की किताबों में बचेगी। धरती मां की पुकार साफ है-: “मुझे बचाओ, ताकि तुम्हारा भविष्य भी बचा रहे।”
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