संजीव-नीl
On
कौन दस्तक देता है दर पर संजीव।
मैं तो अपनी शर्तों पर जीता हूं.
पराये दर्द के अश्कों को पीता हूं।
रातें तो सितारों संग बीत जाती हैं,
दिन के उजालों से बचता रहता हूं।
अब चले ना चले कोई साथ मेरे
मैं तो सदा खुद के संग चलता हूं।
ना शायरी,आशिकी ना मोहब्बत
लोग हंसते हैं जाने कैसे जीता हूं।
बहारें भी लौट गई मुझको देखकर
अब फूल नहीं कांटे चुनता रहता हूं।
आईना हमेशा हंसता रहा मुझ पर
देखने से उसे जो हमेशा घबराता हूं ।
न खबर आई ना कोई आएगा यहां
मैं तो बेखुदी के वीरानें में रहता हूं ।
तमन्नाओं से क्या वास्ता होगा मेरा
रिश्ता जो उससे छत्तीस का रखता हूं।
ये दस्तक कौन देता है घर-पर संजीव
दरवाजा घर का हमेशा खुला रखता हूं।
संजीव ठाकुर
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