आम आदमी पार्टी अध्यादेश के खिलाफ कांग्रेस पार्टी के समर्थन किस आधार पर चाहती है ?

आम आदमी पार्टी अध्यादेश के खिलाफ कांग्रेस पार्टी के समर्थन किस आधार पर चाहती है ?

 

मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल केंद्र सरकार के अध्‍यादेश के खिलाफ सपोर्ट जुटाने की मुहिम पर हैं। पिछले कुछ दिनों में वह देशभर में तमाम विपक्षी दलों के साथ बातचीत कर चुके हैं। यह सिलसिला बदस्‍तूर जारी है। हालांकि, मुख्‍य विपक्षी दल कांग्रेस का रुख इसे लेकर थोड़ा अलग दिख रहा है। वह केंद्र सरकार के अध्‍यादेश को सपोर्ट करने की मंशा दिख रही है।गौरतलब है कि  गैर-एनडीए पार्टियों का बहुमत स्पष्ट तौर पर दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी  का समर्थन करता प्रतीत होता है और दूसरी, ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी अध्यादेश के खिलाफ कांग्रेस पार्टी के समर्थन पर निर्भर रहने की गलती कर रही है।

यह लगभग तय है कि नए संसद भवन में होने वाले मानसून सत्र के दौरान जब इस अध्यादेश को विधेयक के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा, तो लोकसभा में इसका पारित होना महज एक औपचारिकता होगी और थोड़ा-बहुत शोर-शराबे के साथ यह राज्यसभा में भी बिना किसी परेशानी के पारित हो जाएगा। आगे चलकर कुछ महीनों में इसे कानून बना दिया जाएगा।एनडीए हो या यूपीए 21वीं सदी में अब तक कोई भी सरकारी बिल संसद में अटका नहीं है। हालांकि एक अल्पकालीन समय 2002 की शुरुआत में आया था जब वाजपेयी सरकार के दौरान राज्य सभा में पोटा पारित नहीं हो पाया था, लेकिन जल्द ही यह दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में पारित हो गया था।

अभी जिस अध्यादेश की चर्चा हो रही है उसको लेकर अधिकांश गैर-एनडीए पार्टियां  आप  का समर्थन करेंगी यानी वे अध्यादेश के खिलाफ जाएंगी, लेकिन संख्या बल की दृष्टि से देखें तो संसद में शायद ही इससे कोई फर्क पड़ेगा। इसके अलावा, वामपंथी दलों को छोड़कर अन्य विपक्षी दलों का आप  को समर्थन दरअसल भाजपा  के साथ उनकी प्रतिद्वंद्विता की वजह से है। वामपंथी दल अपनी संख्यात्मक कमजोरी के बावजूद लोकतंत्र और संघवाद के सवालों पर एक सैद्धांतिक रुख अपनाते हैं।वहीं दूसरी ओर, मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को इस अध्यादेश के रूप में आम आदमी पार्टी के प्रति अपनी मूल नफरत या दुश्मनी को दूर करने का अनुकूल मौका मिल गया है। कांग्रेस के इस रुख के बारे में और क्या समझा सकता है कि वह इस मुद्दे पर अपनी राज्य इकाइयों से सलाह-मशवरा करेगी? संसद में लिए जाने वाले स्टैंड को लेकर कांग्रेस ने आखिरी बार कब इस तरह का बेतुका बयान दिया था?

आखिर, कांग्रेस किससे सलाह लेगी? दिल्ली यूनिट एक ऐसी इकाई है, जो मौजूद ही नहीं है। कई सारे स्थानीय नेताओं के पहले ही भाजपा  में शामिल होने गए हैं। पंजाब में जो कुछ भी बचा है, अब वही है।अध्यादेश के मुद्दे से कांग्रेस को अपनी विरोधी पार्टी  की कमजोरी मिल गई और ऐसा प्रतीत होता है कि किसी भी चीज से बढ़कर यानी  2024 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी एकता से भी ज्यादा बढकर , आखिरकार कांग्रेस को ऐसा मुद्दा मिल गया है जिस पर वह आप को वश में कर सकती है और संभवतः उस प्रतिद्वंद्विता को समाप्त कर सकती है, जिससे व‌र्षों पुरानी पार्टी को निपटना मुश्किल हो रहा था।

2017 में अपनी राष्ट्रपति पद कीं उम्मीदवार मीरा कुमार, या 2022 में संयुक्त विपक्ष के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा और उप-राष्ट्रपति पद कीं उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा के लिए आम आदमी पार्टी  से समर्थन लेने में कांग्रेस को कोई समस्या नहीं थी। मीरा कुमार और मार्गरेट अल्वा दोनों ने अपने-अपने चुनावों के लिए समर्थन मांगने के लिए व्यक्तिगत रूप से केजरीवाल से मुलाकात की थी।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कांग्रेस पार्टी भाजपा  से भी ज्यादा आप  से नफरत करती है। कांग्रेस यह भुला नहीं पा रही है कि उसके 15 साल के गढ़ दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने सेंध लगा दी थी और देश की राजधानी में जब कांग्रेस को लगातार अपने चौथे कार्यकाल का सपना बुन रही थी तब आप  ने चुनावी मैदान में कांग्रेस को पटखनी देते हुए उसके सपनों को चकनाचूर कर दिया था।हालांकि, कांग्रेस यह स्पष्ट नहीं करती है कि उसने कड़े मुकाबले वाले चुनाव के कुछ दिनों बाद ही आम आदमी पार्टी को पहली सरकार बनाने के दौरान समर्थन क्यों दिया था? यह वही पार्टी थी जिसकी वजह से उस चुनाव में कांग्रेस की प्रतीक चिन्ह शीला दीक्षित की हार हुई थी।

केजरीवाल सरकार के उन 49 दिनों के बाद से, कांग्रेस पिछले एक दशक से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में एक भी विधायक या सांसद को जीत नहीं दिला पाई है। भले ही अब दिल्ली कांग्रेस के नेता आप  के खिलाफ जहर उगल रहे हैं, लेकिन 2019 में लोकसभा चुनाव गठबंधन के लिए कांग्रेस ने एक असफल प्रयास किया था।

अध्यादेश के पक्ष में कांग्रेस नेताओं द्वारा पेश किए गए बेतुके और हास्यास्पद तर्कों पर गौर करें तो यह स्पष्ट है कि उनकी मंशा आप  सरकार को दिल्ली से बाहर करना है। शहर की नौकरशाही पर केंद्र के नियंत्रण पर भाजपा  की लाइन पर चलने वाली कांग्रेस को कोई और कैसे समझाएगा कि वे कांग्रेस इस बात को भूल जाती है कि उनकी अपनी पार्टी की मुख्यमंत्री स्वर्गीय शीला दीक्षित ने 2012 में पार्टी से सलाह-मशवरा किए बगैर अपनी ही पार्टी की केंद्र सरकार द्वारा नौकरशाहों के तबादले का सार्वजनिक रूप से विरोध किया था?

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 1993 में विधानसभा के अस्तित्व में आने के बाद से कांग्रेस हमेशा दिल्ली में एक शक्तिहीन सरकार चाहती आयी है। दिल्ली को राज्य का दर्जा देने पर स्वर्गीय शीला दीक्षित की चुप्पी से यह बात तब और स्पष्ट होती है जब वह दिल्ली की सत्ता में थीं और उनकी अपनी पार्टी 2004 से 2014 के बीच केंद्र में शासन कर रही थी। ये वही शीला दीक्षित थीं, जिन्होंने उन्होंने 1998 और 2004 के बीच वाजपेयी शासन के दौरान इस मुद्दे पर कुछ शोर मचाया था।अतीत में उस स्थिति से लेकर दिल्ली में राजनीतिक रूप से गायब हो जाने तक, चूंकि शहर की राजनीति में अब इसका कोई दांव नहीं बचा है ऐसे में राष्ट्रीय राजधानी को पूर्ण केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिलते देख कांग्रेस खुश होगी।

2019 में अनुच्छेद 370 निरस्त करने पर केंद्र का समर्थन करने के लिए आप  की आलोचना की जा सकती है, लेकिन क्या राज्यसभा के तीन आप  सांसदों के समर्थन के कारण यह बिल पारित हुआ? कांग्रेस चाहेगी कि तीन तलाक और सी ए ए   बिल के खिलाफ आप  का जो स्टैंड है उसको देश भूल जाए, क्योंकि यह बिल के आप  से मेल नहीं खाते हैं।2015 में आप  के अब तक के सबसे बड़े जनादेश के साथ सत्ता में आने और 2020 में अपनी सफलता को दोहराने के बाद से कांग्रेस दिल्ली में भाजपा  की भरोसेमंद सहयोगी रही है। आम आदमी पार्टी सरकार के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों के पास दर्ज सभी शिकायतों पर नजर डालने पर आपको इसका जवाब मिल जाएगा।

दिल्ली ही नहीं, 2022 के पंजाब विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के चुनावी अभियान की गहन जांच से एक दिलचस्प झलक मिलती है कि आप  को कुचलने के लिए कांग्रेस किस हद तक जाने को तैयार है।राहुल गांधी से लेकर मलिकार्जुन खड़गे तक सभी कांग्रेस नेताओं ने आप  के पूर्व नेता कुमार विश्वास के एक आरोप पर जोरदार तरीके से चिपके हुए थे कि 2017 में आम आदमी पार्टी ने पंजाब में जो कैंपेन चलाया था उसको खालिस्तानी तत्वों का समर्थन प्राप्त था, जिसका जिक्र पीएम मोदी ने भी अपने अभियान के दौरान किया था।

कांग्रेस यह भी नहीं भूल सकती कि जस्टिस लोया की मौत की संदिग्ध परिस्थितियों की जांच के लिए सीजेआई ने एक जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था। यह उल्लेखनीय है कि केजरीवाल विवादास्पद किसान विरोधी कानूनों को लागू करने वाले पहले व्यक्ति थे। उनकी पार्टी ने राज्यसभा के उपसभापति के लिए विपक्ष के उम्मीदवार का भी विरोध किया और इसके बजाय भाजपा द्वारा प्रायोजित उम्मीदवार का समर्थन किया।

गुजरात, गोवा, हिमाचल, असम, उत्तराखंड में भाजपा के लिए केजरीवाल का समर्थन और हाल के कर्नाटक चुनावों में, जहां उन्होंने कांग्रेस पार्टी के खिलाफ उम्मीदवार खड़े किए । अब मध्यप्रदेश , राजस्थान व छत्तीसगढ़ में भी वह अपने उम्मीदवार उतरने जा रही है । उससे यह सवाल भी उठता है कि केवल उन्हीं राज्यों में वह ऐसा क्यों करते हैं, जहां कांग्रेस मुख्य विपक्षी या सत्ताधारी पार्टी है।दिल्ली अध्यादेश अब कोई कानूनी या तकनीकी मुद्दा नहीं है, न ही यह संसद में संख्याओं की लड़ाई है। कांग्रेस को इस विषय पर अपने राजनीतिक झगड़े को समाप्त करने में खुशी होगी, और आम आदमी पार्टी को इस बात का एहसास जितना जल्दी हो जाए, उसके लिए उतना ही अच्छा होगा।

अशोक भाटिया,

वरिष्ठ  लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार

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