किसान आंदोलन :: यदि आंदोलनकारियों की मांगे जायज तो पूरी करें सरकार, वरना सख्त कारवाई कर रास्ते खुलवाए सरकार
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जमातियों की तरह जिद्द पर अडे आंदोलनकारी किसान दे रहे है कानून, सत्ता और देशहितों को चुनौती महामारी के दौर मे भीड इकट्ठा कर जनता और देश के सविंधान से कर रहे है खिलवाड़ किसान हितों से हटकर अब आंदोलन ने ले लिया है अतिवादी और सांप्रदायिक रुख अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी
जमातियों की तरह जिद्द पर अडे आंदोलनकारी किसान दे रहे है कानून, सत्ता और देशहितों को चुनौती
महामारी के दौर मे भीड इकट्ठा कर जनता और देश के सविंधान से कर रहे है खिलवाड़
किसान हितों से हटकर अब आंदोलन ने ले लिया है अतिवादी और सांप्रदायिक रुख
अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने का मंच बना किसान आंदोलन, किसानों से नहीं है कोई सारोकार
भगवत कौशिक –
आज पूरा देश कोरोना महामारी से त्राही त्राही कर रहा है ।देश मे कोरोना ने अपना विकराल रूप दिखाना शुरू कर दिया है ।प्रतिदिन कोरोना कैसो की संख्या जहां तीन लाख से ऊपर पहुंच गई है,वहीं मौतो का आंकडा भी रोंगटे खड़े करनेवाला है।संकट की इस घडी मे जहां मरीज की जान बचाने के लिए एक एक सैंकेड किमती है,वहीं दूसरी ओर अपनी मांगो को लेकर किसान आंदोलन के नाम पर लोंगो ने देश की राजधानी दिल्ली के सभी रास्तों पर कब्जा जमा रखा है।जिसके कारण एंबुलेंस से लेकर आक्सीजन सप्लाई करने वाले साधनों को काफी घुमकर दिल्ली मे इंट्री करनी पड रही है,जिससे मरीजों की जान पर आफत बनी हुई है।
किसी मामले पर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करना सही है, लेकिन अब ये प्रदर्शन भारतीय किसानों के भले के लिए नहीं बचा है।अब इसने एक अतिवादी और सांप्रदायिक रुख ले लिया है जो अब कई दिनों से लाखों लोगों के लिए परेशानी का कारण बन गया है। यात्रियों को हर रोज भारी ट्रैफिक का सामना करना पड़ता है और मेहनती नागरिक इन प्रदर्शनों का असली खामियाजा भुगत रहे हैं। मालूम हो कि ये कोरोना महामारी के दौरान हो रहा है। ये लोग ये भी नहीं जानते हैं कि विरोध के कारण एम्बुलेंस को भी देरी हो रही है या नहीं।
वहीं केंद्र से लेकर राज्य सरकारें भी राजनीतिक कर रही है।यदि किसान आंदोलन की मांगें जायज है तो सरकार इनको पूरा क्यों नहीं कर रही और यदि आंदोलनकारियों की मांगे नाजायज है तो उनको रास्ता जाम करने का अधिकार क्यों दिया जा रहा है।क्यों करोड़ों लोगों की दिनचर्या व कामधंधे को प्रभावित किया जा रहा है।एक तरफ जहां गरीब लोंगो को मास्क थोडा सा नीचा होने पर भी पांच सौ रूपये का चालान कर दिया जा रहा है वहीं दिल्ली बार्डर व टोल प्लाजा पर चल रहे धरनास्थल पर ना तो दो गज की दूरी का और ना ही मास्क लगाने के नियमों का पालन हो रहा है।वहीं दूसरी ओर टीकाकरण के लिए जानेवाली मैडिकल स्टाफ के साथ आंदोलनकारी बतमीजी कर रहे है।लेकिन सरकार का ध्यान भी नियमों व कानून की पालना की बजाय अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करना रह गया है।आम जनता को चाहे कितनी भी परेशानी हो उससे ना तो सरकार को फर्क पड़ता ना आंदोलनकारीयों को।
क्या कृषि सुधारों के विरोध में भारतीय नागरिकों के कल्याण और सशक्तीकरण के बारे में विरोध के आधार पर मेहनती नागरिकों के लिए क्या इस तरह की असुविधा उचित है। एक तरफ प्रदर्शनकारी प्रदर्शनों और बंद को जारी रखे हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ किसानों को इन कानूनों से फायदा भी होने लगा है।किसानों के विरोध प्रदर्शन को मीडिया में काफी बढ़ावा दिया जा रहा है, लेकिन ये विरोध किसी एक मुद्दे को लेकर नहीं है। दिल्ली के दंगों और भीमा कोरेगांव के दौरान जिन लोगों पर हिंसा का आरोप लगाया गया है, उन्हें मुक्त कराने की कोशिश की जा रही है – ये दोनों ही घटनाएं आतंकवाद हैं… यहीं से साबित होता है कि यह प्रदर्शन भारतीय किसानों के लिए नहीं है।ये विरोध भारत के हित में नहीं है और न ही ये हमें किसी भी तरह से प्रगति करने में मदद करता है।
मौजूदा किसान आंदोलन में हाल के दिनों में एक और प्रवृत्ति भी दिख रही है।दरअसल भारत के राजनीतिक आंदोलनों की एक बड़ी समस्या यह है कि वह सामाजिक ऊंच नीच के साथ ही सदियों पुरानी जाति व्यवस्था की कमियों को अपने उभार के लिए सहारा लेते रहे हैं।किसान आंदोलन में भी इसी परिपाटी का निर्वाह हो रहा है।टेलीविजन के कैमरों के सामने भले ही अच्छी-अच्छी और आदर्शवादी बातें की जा रही हैं, लेकिन यह भी सच है कि पर्दे के पीछे इस आंदोलन में समर्थन हासिल करने के लिए जातीय गणित और भावों को भी उभारा जा रहा है। बेशक जाट समुदाय की खाप पंचायतें इस सामने हैं, लेकिन यह भी सच है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जो जाति व्यवस्था है, उसके पारंपरिक ऊंच-नीच के व्यवहार को उभारने की कोशिश इस आंदोलन में दिख रही है। परंपरा से भारत का ग्रामीण समाज अपनी जातीय एकता के लिए पारंपरिक रूप से प्रतिस्पर्धी रही दूसरी जाति के वर्चस्व का डर दिखाकर खुद की जातीय एकता को दुरूस्त करने की कोशिश करता रहा है।पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और गुर्जर जातियों के बीच स्पर्धा रही है। हालांकि पहले जनता दल और बाद के दिनों में भारतीय जनता पार्टी के उभार के बाद यह स्पर्धी माहौल न्यूनतम हो गया था। लेकिन दुर्भाग्यवश मौजूदा किसान आंदोलन के दौरान एक बार फिर इस प्रतिस्पर्धा को उभारने की कोशिश हो रही है.
दिल्ली के शहरीकृत गांवों में प्रमुखता से इन्हीं दोनों समाजों की जनसंख्या ज्यादा है। इनकी चौपालों पर जिस तरह की जातीय बातें इन दिनों सुनीं और सुनाईं जा रही हैं, वे किसान आंदोलन की एक तरह से प्रतिच्छाया ही हैं। वहां अंदरूनी रूप से चल रही खींचतान और कोशिशों का एक रूप इन चौपालों पर भी दिखाई-सुनाई दे रहा है। इन पारंपरिक प्रतिस्पर्धी भावनाओं को उभारकर किसान आंदोलन के दौरान अपना-अपना समर्थन आधार बढ़ाने की कोशिश को ही ये चौपालें एक तरह से दिखा-समझा रही हैं। इस मोर्चे पर उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली की सरकारों और पुलिस को भी चौकस रहना होगा। अन्यथा अगर यह प्रतिस्पर्धी माहौल और बढ़ा, उनमें गति आई तो तय मानिए, जातीय संघर्ष के आसार बढ़ेंगे,जिनका असर संघर्ष के दूसरे रूप में दिखेगा।
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