वंदे मातरम पर चर्चा : सवाल नीति और नीयत का

वंदे मातरम पर चर्चा : सवाल नीति और नीयत का

भारतीय संसद में शीतकालीन सत्र 2025 के दौरान "वंदे मातरम" की 150वीं वर्षगांठ मनाने के लिए एक विशेष चर्चा आयोजित की गयी। ग़ौर तलब है कि संस्कृत और बांग्ला भाषा के मिश्रण से तैयार किया गया यह गीत पहली बार 1882 में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित उनकी बांग्ला उपन्यास आनंदमठ में प्रकाशित हुआ था। 24 जनवरी 1950 को भारत की संविधान सभा ने  इसी गीत अर्थात "वन्दे मातरम्" को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया। आज देश में इस गीत को भी राष्ट्रगान अर्थात  "जन गण मन" के ही समकक्ष सम्मान प्राप्त है। सभी सरकारी और आधिकारिक कार्यक्रमों में जब इसे गाया या बजाया जाता है, तो सभी लोग इसके सम्मान में खड़े होते हैं।
 
परन्तु हमारे देश में मुस्लिम उलेमा का एक वर्ग ऐसा है जिनका मानना है कि धरती-माँ को इस तरह देवी के रूप में पूजना और उसके सामने सजदा करना इस्लाम विरोधी (शिर्क ) है। और अल्लाह के सिवा किसी को सजदा करना हराम है। इस विचारधारा का प्रतिनिधित्व ख़ासतौर पर देवबंदी अथवा जमाअत-ए-इस्लामी से सम्बंधित अतिवादी वर्ग के लोग ही करते हैं। जबकि अधिकांश मुस्लिम राष्ट्रप्रेम का हिस्सा मानते हुये इसे गाते भी हैं। 
 
 परन्तु राष्ट्रगान "जन गण मन" का विरोध करने वाले हिंदूवादी विचारधारा से जुड़े लोग ख़ासकर संघ व भाजपा वंदे मातरम को लेकर कांग्रेस पार्टी पर मुस्लिम परस्त होने का इलज़ाम लगाती रहती है। यही कोशिश गत दिनों संसद में "वंदे मातरम" पर चर्चा के दौरान देखने को भी मिली। ख़ासकर इस चर्चा का ऐसे समय में होना जबकि अगले वर्ष बंगाल में चुनाव भी प्रस्तावित हैं, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों की तरफ़ इशारा करता है। कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी ने लोकसभा में "वंदे मातरम" पर बहस के दौरान सरकार पर तीखा प्रहार करते हुये यह कहा भी कि राष्ट्रगान पर बहस की कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि यह पहले से ही राष्ट्रगान है।
 
प्रियंका गांधी ने भी यही दावा किया कि यह चर्चा बंगाल चुनावों को ध्यान में रखकर जनता के मुद्दों से  ध्यान भटकाने का प्रयास है। उन्होंने "वंदे मातरम" को भारत की आत्मा का हिस्सा बताया, जो ग़ुलामी से जागरण का प्रतीक है और आधुनिक राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति है। उल्टे प्रियंका गांधी ने संविधान सभा में दो छंद अपनाने पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विरोध न करने का ही सवाल उठा कर भाजपा को ही घेरने की कोशिश की। राजयसभा में नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी सत्ता से सवाल किया कि जब भाजपा के पुरखे श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मुस्लिम लीग के साथ बंगाल में सरकार चला रहे थे, तब आपकी देशभक्ति कहां थी? 
 
 बहरहाल, इसी तरह के मुद्दों को उठाकर कांग्रेस को मुस्लिम परस्त बताने व हमेशा ही कांग्रेस पर तुष्टीकरण की राजनीति करने का आरोप लगाने वाली भाजपा को कम से कम देश को एक बात यह भी बतानी चाहिये कि जिस दारुल उलूम देवबंद व जमाअत-ए-इस्लामी ने वंदे मातरम का विरोध किया था, जिस जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने 1937-39 में जारी अपने फ़तवे में वंदे मातरम को गाना 'हराम' बताया था। उसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार से तो भारत बेहतर रिश्ते बनाने की तरफ़ आगे बढ़ रहा है ? गत अक्टूबर माह में ही  अफ़ग़ानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री मौलवी आमिर ख़ान मुत्तक़ी ने भारत का छह-दिवसीय दौरा किया।
 
इस दौरे के दौरान मुत्तक़ी ने विदेश मंत्री एस. जयशंकर से मुलाक़ात की, जिसमें द्विपक्षीय व्यापार, मानवीय सहायता, शिक्षा और आर्थिक सहयोग पर चर्चा हुई। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अनुमति से संभव यह यात्रा भारत- अफ़ग़ानिस्तान संबंधों को मज़बूत करने का संकेत मानी गई। मुत्तक़ी ने अपने भारत प्रवास के दौरान केवल राजकीय यात्रा मात्र ही नहीं की बल्कि इस दौरान उन्होंने 11 अक्टूबर 2025 को उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले में स्थित दारुल उलूम देवबंद अर्थात अपने 'वैचारिक प्रेरणा केंद्र' का भी दौरा किया। यह वही दारुल उलूम देवबंद तो है जिसने वंदे मातरम के एक हिस्से को गाने का विरोध किया था ? 
 
मुत्तक़ी ने अपने भारत दौरे के बीच दारुल उलूम देवबंद पहुंचकर व देवबंदी मसलक से जुड़े दारुल उलूम के उलेमा, छात्रों और अफ़ग़ान छात्रों से मिकर केवल अपनी अतिवादी वैचारिक प्रतिबद्धता ही नहीं दोहराई बल्कि उन्होंने दिल्ली में ही आयोजित अपनी पहली प्रेस कॉन्फ़्रेंस में महिलाओं को प्रवेश न देकर भी यह साबित कर दिया कि महिलाओं के प्रति इस सोच विचार के लोग कितनी असहिष्णुता का भाव रखते हैं। परन्तु आश्चर्य है कि भाजपा सरकार वंदे मातरम गायन का विरोध करने व इसे हराम बताने वाली विचारधारा व इसके रहनुमाओं को तो गले से लगाती है। इनके स्वागत में लाल क़ालीन बिछाती है परन्तु कांग्रेस पर वंदे मातरम विरोधी होने का आरोप मढ़ती है ? परन्तु जब कांग्रेस संविधान सभा में इस गीत के दो छंद अपनाने पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विरोध न करने का सवाल उठाती है तो भाजपा बग़लें झाँकने लगती है ?
 
आज देश बेरोज़गारी व मंहगाई से बुरी तरह जूझ रहा है। डॉलर के मुक़ाबले रूपये की क़ीमत रसातल तक पहुँच गयी है। 2012-13 के मध्य जब डॉलर के मुक़ाबले भारतीय रुपये की कीमत 60-68 के बीच लुढ़क रही थी। उस समय नरेंद्र मोदी ने यूपीए सरकार पर कड़ा प्रहार करते हुये कहा था कि "हमारी मुद्रा मृत्युशैया पर है, यह टर्मिनल स्टेज पर है और इसे तुरंत डॉक्टर की ज़रूरत है"। उसी समय मोदी ने ज़ोर देकर यह भी कहा था कि रुपये की गिरावट से प्रधानमंत्री की इज़्ज़त गिरती है, क्योंकि रुपया केवल काग़ज़ का टुकड़ा नहीं, बल्कि देश की प्रतिष्ठा से जुड़ा होता है। उस समय मोदी ने इसे तत्कालीन यू पी ए सरकार की आर्थिक नाकामी क़रार दिया था। परन्तु आज तो 1 डॉलर के मुक़ाबले भारतीय मुद्रा 90 के क़रीब पहुँच चुकी है। आज देश की संसद में इसपर चर्चा क्यों नहीं होती ? 
 
दरअसल मोदी सरकार ने अपनी पूरी ताक़त देश का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करने में झोंक रखी है। ख़ासकर चुनावों के समय ऐसी कोशिशों में और भी तेज़ी आ जाती है। बड़ा आश्चर्य है कि स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर राष्ट्रगान तक का विरोध करने वाले,गांधी की हत्या पर जश्न मनाने व मिठाइयां बांटने वाले,भारतीय संविधान को न पचा पाने वाले लोग आज सत्ता में आने के बाद बड़े ही शातिर तरीक़े से स्वयं को महान देशभक्त व धर्म के 'अभिरक्षक ' बनने की कोशिश कर रहे हैं।
 
और देश के स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाते हुये फांसी के फंदे पर झूलने व अंग्रेज़ों की यातनायें झेलने वाली कांग्रेस को वंदे मातरम विरोधी तो कभी मुस्लिम परस्त तो कभी पाक परस्त बातकर मुद्रा पतन से लेकर मंहगाई बेरोज़गारी जैसे मूल मुद्दों से ध्यान भटकने की कोशिश करती रहती है। गत दिनों संसद में वंदे मातरम पर हुई चर्चा भी जनहितकारी मुद्दों से ध्यान भटकने की ऐसी ही एक कोशिश थी जिसमें वंदे मातरम को लेकर भाजपा की नीति और नीयत का अंतर साफ़ नज़र आया।

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