इंसानियत गुम, व्यवस्था मौन — फिर हुआ एक कैदी फरार

कैदी भागा नहीं, असंवेदनशीलता ने धक्का दिया

इंसानियत गुम, व्यवस्था मौन — फिर हुआ एक कैदी फरार

कैदी, पुलिस और सिस्टम — कहानी सवालों की, जवाबों की नहीं

इंदौर मप्र के एमवाय अस्पताल से कैदी विशाल का फिल्मी अंदाज़ में फरार होना भले ही सनसनीखेज़ लगेलेकिन इसकी परतें हमारे सिस्टम की गहरी टूट-फूट को साफ़ उजागर करती हैं। इंदौर जिला अदालत से फरार कैदी विशाल की ओर से आत्मसमर्पण के लिए आवेदन दिया गया जिसमें फरार कैदी विशाल की ओर से बताया —“इलाज के दौरान मेरी पत्नी मिलने आई थीलेकिन पुलिस ने मिलने नहीं दिया। उल्टा अपशब्द कहकर भगा दिया। उसी अपमान और आहत मन से ‘पुलिस को सबक सिखाने’ की ठानकर मैं भागा।” उसकी यह बात केवल एक कैदी की व्यथा नहींबल्कि उस संवेदनहीन व्यवस्था का प्रतिबिंब है जो इंसानी भावनाओं को अक्सर प्रक्रियाओं और कठोरता के नीचे दबा देती है। हालाँकिसच्चाई कई परतों में दबी होती है—उसका कथन कितना सही हैयह तो जाँच के बाद ही स्पष्ट होगा

अस्पताल में इलाज के दौरान पुलिसकर्मियों द्वारा उसे पत्नी से मिलने से रोकना और उस पर अभद्र भाषा का प्रयोग करना—यह आरोप चौंकाने से ज़्यादा चिंतित करता है। हमारे समाज में अक्सर यह गलत धारणा देखी जाती है कि कैदी होने का मतलब सारे अधिकार खो देना है। जबकि कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित करता हैउसकी इंसानियत या सम्मान नहीं। यदि पुलिस इस मूलभूत अंतर को समझने में ही असफल रहेतो खोट कानून में नहींउसके रखवालों की सोच में है। ऐसी सोच न सिर्फ व्यवस्था को कलंकित करती हैबल्कि यह बताती है कि कहीं न कहीं वर्दी का कठोरपन मन की संवेदनाओं पर भारी पड़ चुका है।

क्या हमारी पुलिस को यह बुनियादी मानवीय फर्क समझाने कासंवेदनशीलता सिखाने काऔर अधिकारों की मर्यादा समझाने का पर्याप्त प्रशिक्षण मिलता है? कटु सत्य ये है—नहीं। और इसी “नहीं” ने आज देशभर की पुलिस-व्यवस्था में एक ऐसी खाई बना दी है जहाँ नियम तो कड़े हैंपर संवेदना नदारद है। वर्षों से विशेषज्ञ लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि पुलिस प्रशिक्षण का स्वरूप बदलना होगा—उसे बल आधारित नहींमन-व्यवहार आधारितमानवाधिकार केंद्रितऔर संवेदनशीलता पर टिके ढांचे में ढालना होगा। जब तक पुलिस केवल कठोरता और शक्ति सीखती रहेगीपर संवेदनशीलता और संयम नहीं—ऐसे हादसे अपवाद नहींदोहराई जाने वाली त्रासदियाँ बनेंगे।

चार दिन तक गायब रहने वाले कैदी ने अदालत में बताया कि पुलिसकर्मियों के व्यवहार ने उसे इतना आहत किया कि उसने सिस्टम को “सबक” सिखाने का मन बना लिया। चिंताजनक यह है कि अस्पताल जैसी सुरक्षित मानी जाने वाली जगह से एक कैदी यूँ ही ओझल हो जाता है और पुलिस चार दिनों तक उसके निशान तक नहीं पा पाती। यह महज़ सुरक्षा में चूक नहीं—यह व्यवस्था की सुस्तीलापरवाही और ढीली पड़ती जिम्मेदारी का सीधा सबूत है। और जब जिम्मेदारी सो जाएतो अपराधी नहीं—तंत्र खुद कटघरे में खड़ा दिखाई देता है।

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एक आरोपी को इलाज के दौरान अपनी पत्नी से मिलने से रोक देना—आख़िर यह किस कानून में लिखा हैकानून सीमाएँ तय करता हैभावनाएँ नहीं कुचलता। लेकिन जब पुलिस का रवैया मनमानी और कठोरता की हदें पार करने लगेतो अपराधी और पीड़ित के बीच की रेखा धीरे-धीरे धुंधली पड़ने लगती है। यहाँ भी वही हुआ—एक कैदी अस्पताल के बिस्तर पर बीमारी से कमऔर पुलिस की असंवेदनशीलता से मिले अदृश्य घावों से ज़्यादा लड़ रहा था। यह घटना बताती है कि कभी-कभी सबसे गहरे घाव हथकड़ियाँ नहींव्यवहार दे जाते हैं।

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चार दिन बाद कैदी विशाल का खुद अजाक अदालत पहुँचकर आत्मसमर्पण कर देना यह बड़ा संदेश देता है कि सिस्टम चाहे जितना कठोर और असंवेदनशील क्यों न हो जाएकानून पर भरोसे की लौ अब भी बुझी नहीं है। लेकिन क्या हर बार व्यवस्था इतनी किस्मतवाली होगी कि आरोपी स्वयं आकर अपने अपराधों का हिसाब सौंप देअसली संकट तो तब खड़ा होता है जब पुलिस का व्यवहार ही अपराध को जन्म देने लगे—क्योंकि फिर सवाल उठता हैन्याय की मांग आखिर किस दरवाज़े पर की जाए?

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पुलिस ने जांच बिठाने की बात तो कही है—अस्पताल की सुरक्षा में कहाँ कमी रह गईड्यूटी पर मौजूद कर्मियों का व्यवहार कैसा थाक्या कैदी के साथ कोई अनुचित स्थिति बनीसवाल कई हैंपर हमारे यहाँ “जांच” अक्सर सच को सामने लाने की बजाय उसे परतों में सहेज देने का माध्यम बन जाती है। असली चिंता यह है कि जब जांच का दायरा संदेहों को मिटाने की जगह उन्हें अनुत्तरित ही छोड़ देतो न्याय का रास्ता धुंधला पड़ने लगता है। क्योंकि व्यवस्था पर भरोसा तभी टिकता हैजब जांच केवल औपचारिकता न होकरसच्चाई तक पहुँचने का साहस भी रखे।

कैदी होना किसी मनुष्य के अधिकारों को समाप्त नहीं करतायह केवल उसकी स्वतंत्रता को सीमित करता है। इसलिए पुलिस को सिर्फ कठोरता नहींबल्कि संवेदनशीलता और मानवीय समझ का प्रशिक्षण चाहिए। अस्पतालों की सुरक्षा व्यवस्था मज़ाक बनने के लिए नहींबल्कि मानक और जवाबदेही पर आधारित होने के लिए होती है। और जब तक जिम्मेदारी तय नहीं होगीकिसी भी सुधार की संभावना सिर्फ ख़याल भर रह जाएगी। कभी-कभी व्यवस्था की छोटी–सी ढिलाई ही इतना बड़ा रूप ले लेती है कि वह स्वयं अपराध से भी अधिक भयावह दिखाई देने लगती है।

जब तक सिस्टम के भीतर मानवीयता की लौ फिर से नहीं जलेगीऐसे “फरार” यूँ ही होते रहेंगे—और हम बस हैरानी में खड़े रह जाएंगे। यह उस तंत्र की दास्तान है जिसने शक्ति के घमंड में इंसानी पीड़ा सुनने की क्षमता खो दी हैउस पुलिस व्यवस्था की कहानी है जो यूनिफ़ॉर्म की कठोरता को संवेदनहीनता का कवच बनाकर हर व्यवहार को “ड्यूटी” का नाम दे देती हैऔर उस समाज का चेहरा है जो हर घटना पर क्षणभर ठहरकर अगले ही दिन चुपचाप पन्ना पलट देता है। जब तक व्यवस्था में इंसानियत दोबारा जागेगी नहींतब तक “फरार” सिर्फ कैदी नहीं—हमारी संवेदनाएँहमारी जवाबदेही और हमारा विवेक होंगे।

 

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