सहनशीलता का अभाव और बढ़ता आत्महत्या का संकट, बदलते समाज की बड़ी चुनौती
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आज का समाज तेजी से बदल रहा है। तकनीक, प्रतिस्पर्धा, रिश्ते, करियर, और जीवनशैली हर स्तर पर दबाव बढ़ा रहे हैं। इन परिवर्तनों का सबसे गहरा प्रभाव हमारे किशोरों, युवाओं और परिवारों पर पड़ रहा है। बीते कुछ वर्षों में टीनेजर्स और छात्र–छात्राओं में आत्महत्या की घटनाओं में खतरनाक वृद्धि देखने को मिली है। कभी पढ़ाई का दबाव, कभी लव मैरेज में मतभेद, तो कभी पति–पत्नी के विवाद या सोशल मीडिया की आभासी वास्तविकताएं है।ये सभी कारण आज जीवन समाप्त करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहे हैं।
सहनशीलता का अभाव संकट की जड़ में छिपा बड़ा कारण है।सहनशीलता जिसका अर्थ कठिन परिस्थितियों को धैर्य और समझदारी से संभालने की क्षमता है।आज की पीढ़ी में तेजी से घटती जा रही है।तकनीक और सोशल मीडिया ने जीवन को त्वरित बना दिया है। अब मनुष्य का धैर्य, प्रतीक्षा और संघर्ष जैसी मूल योग्यताएँ कमज़ोर पड़ रही हैं। हर चीज़ तुरंत चाहि।सफलता, मान्यता, प्यार, सराहना और समाधान। जब अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं, तब निराशा गहरी होती है। यह निराशा धीरे-धीरे अवसाद का रूप लेने लगती है और कई बार युवा इसे अंत का रास्ता समझ बैठते हैं। किशोरों और छात्रों में बढ़ती आत्महत्या का मुख्य कारण शिक्षा का दबाव सबसे बड़ा कारक रहा है।
परिणाम आधारित शिक्षा का बोझ हम युवाओ पर जुल्म कर रहे है।आज छात्र सिर्फ पढ़ाई नहीं कर रहे, बल्कि प्रतिस्पर्धा की दौड़ में संघर्ष कर रहे हैं। बोर्ड का तनाव,कॉलेज प्रवेश का दबाव,करियर की अनिश्चितता, कोचिंग संस्थानों की रेसदोस्तों और समाज से तुलना यह सब एक छात्र के मन पर गहरा दबाव डालता है।नौंवी की छात्रा,दसवीं औरकिशोर वय के बच्चे दूसरी,तीसरी या पांचवी मंजिल से कूदकर जान देने की घटना हम हररोज अखबार में पढ़ते है।यह समाज पर काला कलंक है।शिक्षित समाज मे किसी कारणवश आत्महत्या करना तकलीफदेह है।
असफलता समाज में एक कलंक की तरह देखी जाती है। बच्चे इस डर से घबरा जाते हैं कि वे माता–पिता, स्कूल या समाज की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरेंगे। यही दबाव कई बार उन्हें खुद को खत्म करने की ओर धकेल देता है। शहरों में अलगाव और अकेलापनअनेक छात्र घर से दूर हॉस्टल या किराए पर रहते हैं।जिससे अकेलापन, परिवार से दूरीऔरभावनात्मक सहयोग का अभाव इन कारणों से मानसिक तनाव बढ़ता है और नकारात्मक विचार मजबूत होते हैं।
सोशल मीडिया की तुलना की बीमारी इंस्टाग्राम, यूट्यूब, स्नैपचैट जैसे माध्यमों पर दिखती परफेक्ट लाइफ युवा मन को भ्रमित कर देती है।वे अपने जीवन की तुलना दूसरों से करते हैं और खुद को असफल मान लेते हैं। टीनेजर्स में आत्महत्या का क्रेज फैशन नहीं, गंभीर बीमारी है।समाज किस तरफ जा रहा है।आज किशोरों में आत्महत्या को कभी-कभी साहस आखिरी कदम या समाधान के रूप में देखा जाने लगा है, जो बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। भावनात्मक परिपक्वता का अभाव बढ़ रहा है।
किशोर मन तेजी से बदलता है। गुस्सा, प्रेम, असफलता और तनाव के समय वे निर्णय लेने में जल्दबाजी करते हैं।
भावनाओं पर नियंत्रण न होने से वे तत्काल प्रतिक्रिया में खतरनाक कदम उठा लेते हैं। लव रिलेशनशिप में टूटन12-18 वर्ष की उम्र में किशोर पहली बार प्रेम और आकर्षण की भावनाएँ महसूस करते हैं।ब्रेकअप या अस्वीकार किया जाना उनके लिए बड़ा सदमा होता है। वे इसे जीवन मृत्यु का प्रश्न समझ बैठते हैं।पति पत्नी के विवाद और आत्महत्या परिवार की टूटन का परिणाम है।विवाहिक संबंधों में बढ़ते तनाव भी आत्महत्या का बड़ा कारण बन रहे हैं।
आजआर्थिक दबाव अहंकार मनमुटाव बातचीत की कमी अविश्वास ने अलग कर दिया है।इन समस्याओं ने रिश्तों को कमजोर कर दिया है। लव मैरेज में अक्सर अपेक्षाएँ अधिक होती हैं। जब वास्तविकता कल्पना से भिन्न होती है, तो टकराव बढ़ता है। रोजाना होने वाले झगड़े कई बार मानसिक स्वास्थ्य को इतने प्रभावित कर देते हैं कि लोग चरम निर्णय लेने लगते हैं। समाज में आत्महत्या को बढ़ावा देने वाले अन्य कारक भी है। किशोर नशे की गिरफ्त में आने पर जल्द गुस्सा करते हैं और मानसिक नियंत्रण खो देते हैं। परिवार में भावनात्मक दूरीभी कारणभूत है।अब संयुक्त परिवारों की जगह छोटे परिवार आ गए हैं।बच्चे मोबाइल में, माता–पिता नौकरी में व्यस्त बातचीत और भावनात्मक जुड़ाव खत्म हो रहा है।आर्थिक असमानता और बेरोजगारीमुख्य कारण है। युवाओं में भविष्य को लेकर अनिश्चितता बढ़ती जा रही है। मीडिया में आत्महत्या की खबरों की ग्लैमराइजेशन पर प्रभाव पड़ रहा है।
लगातार समाचार चैनल और सोशल मीडिया पर इन घटनाओं की विस्तृत कवरेज इससे जुड़े जोखिम को बढ़ाती है। समाधान ढूंढना होगा। इस संकट से बाहर कैसे निकले? आत्महत्या रोकी जा सकती है। यदि परिवार, समाज, स्कूल और सरकार मिलकर प्रयास करें। परिवार की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है।बच्चों से बात करें। बच्चों की भावनाओं को समझें। उन्हें सुनें ।गलतियों पर गुस्सा न करें, बल्कि समझाएं।किसी से तुलना बंद करें।हर बच्चा अलग है।उसे अपनी क्षमता के अनुसार आगे बढ़ने दें। असफलता को स्वीकार करना सिखाएं। असफलता ही सफलता की सीढ़ी है।यह भाव बच्चों में बचपन से बनाना जरूरी है।
स्कूल और कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य ,सहायता, काउंसलिंग सेंटर,हेल्पलाइन,तनाव प्रबंधन कार्यशालाएँ,खेल और सांस्कृतिक कार्यक्रम और परीक्षा परिणाम पर संतुलित नीति से छात्रों पर दबाव कम किया जा सकता है। समाज की जिम्मेदारी आत्महत्या के मामलों को सनसनीखेज बनाने से बचें। भावनात्मक सहयोग की संस्कृति विकसित करें।पड़ोस और समाज में संवाद बढ़ाएं।नशे को रोकने के लिए अभियान चलाएं। डिजिटल दुनिया के प्रति जागरूकता लाए।सोशल मीडिया की अवास्तविक दुनिया से बच्चों को परिचित कराना है।स्क्रीन टाइम कम करानाऔरपरिवार के साथ समय बढ़ाना है।इसके साथ ही मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकतादेनी है।आवश्यक होने पर मनोचिकित्स काउंसलर मनोवैज्ञानिक से सहायता लेने में हिचकिचाना नहीं चाहिए।
मानसिक बीमारी भी उतनी ही वास्तविक है जितनी शारीरिक बीमारी।सहनशीलता बढ़ाना ही समाधान की कुंजी है।आज की पीढ़ी को तकनीक ने बहुत कुछ दिया है, परंतु उसने मनुष्य की भावनात्मक शक्ति और सहनशीलता को कमजोर भी किया है। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम अपने बच्चों और युवाओं में,धैर्य ,सहनशीलता, जीवन कौशलऔर भावनात्मक मजबूती विकसित करें। आत्महत्या कोई समाधान नहीं है।यह एक स्थायी समस्या के लिए अस्थायी निर्णय है। यदि परिवार, स्कूल और समाज सही समय पर सही कदम उठाएँ, तो लाखों जीवन बचाए जा सकते हैं। हमें एक ऐसा वातावरण बनाना होगा जिसमें हर बच्चा, हर युवा और हर परिवार संकट के समय संवाद करें, समाधान ढूंढें, और जीवन को महत्व दें।
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