देशी बीज: धरती की धड़कन, स्वराज की साँस

देशी बीज: धरती की धड़कन, स्वराज की साँस

[बीज पर अधिकार — अन्नदाता की आज़ादी का सवाल]

[धरती की संतानों का स्वाभिमान—देशी बीज आंदोलन]

भारत एक कृषि प्रधान देश हैजिसकी सभ्यता की नींव मिट्टी और बीज से गहराई से जुड़ी हुई है। सदियों से किसान अपनी भूमि पर देशी बीज बोकर न केवल अन्न उत्पन्न करता आया हैबल्कि प्रकृति के साथ संतुलन और सामंजस्य भी बनाए रखता आया है। परंतु आज वही बीजजो कभी स्वावलंबन और आत्मगौरव का प्रतीक थाधीरे-धीरे पराधीनता और निर्भरता का प्रतीक बनता जा रहा है। यह केवल खेती का संकट नहींबल्कि राष्ट्र की स्वतंत्रताआत्मनिर्भरता और अस्तित्व से जुड़ा गंभीर प्रश्न है।

पिछले कुछ दशकों में कृषि के क्षेत्र में वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जेनेटिक और हाइब्रिड बीजों का व्यापक प्रचार किया। उच्च उपज के आकर्षक दावों ने किसानों को अपनी पारंपरिकदेशी बीजों से दूर कर दिया। परिणामस्वरूपकिसान धीरे-धीरे बाजार से खरीदे गए बीजों पर निर्भर हो गए और देशी बीजों की हजारों दुर्लभ किस्में लुप्त हो गईं। इन कंपनियों ने बीजों पर पेटेंट और ट्रेड सीक्रेट के अधिकार स्थापित कर लिएजिससे किसान अपनी ही भूमि पर उगाए बीजों को अगली फसल के लिए सुरक्षित नहीं रख सकता। अब बीज किसान की धरोहर नहीं रहा — वह बाजार की वस्तु बन चुका है। यह स्थिति केवल कृषि की स्वतंत्रता ही नहींबल्कि अन्नदाता की आत्मनिर्भरता के लिए भी गंभीर चुनौती है।

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देशी बीज सदियों की परंपरा और अनुभव से विकसित हुए हैं। ये बीज स्थानीय मिट्टीजलवायु और पर्यावरण के अनुरूप ढले होते हैं। इनमें स्वाभाविक रोग-प्रतिरोधक क्षमता होती हैजिसके कारण ये कम पानीकम खाद और न्यूनतम कीटनाशकों के उपयोग से भी उत्तम उपज प्रदान करते हैं। देशी बीज न केवल फसल की विविधता को सुरक्षित रखते हैंबल्कि पर्यावरणीय संतुलन और जैविक समृद्धि को भी बनाए रखते हैं। इसके विपरीत, “जेनेटिक और हाइब्रिड बीज प्रयोगशालाओं में कृत्रिम रूप से तैयार किए जाते हैं। ये बीज मौसम के बदलावों के प्रति अत्यंत संवेदनशील होते हैं और बार-बार रासायनिक खादकीटनाशक तथा नई तकनीक की मांग करते हैं। परिणामस्वरूपखेती की लागत बढ़ती हैमिट्टी की उर्वरता घटती है और किसान ऋणग्रस्त होकर आर्थिकसामाजिक और मानसिक संकटों से जूझने को मजबूर हो जाता है।

भारतीय पेटेंट अधिनियम, 1970 की धारा 3(j) “पौधे और जन्तु पूर्ण या अंशतःपौधों या जन्तुओं की किस्मेंबीजजैविक प्रक्रियाएँ जिनमें सूक्ष्मजीवों को छोड़कर कोई भी आविष्कार पेटेंट योग्य नहीं है।” 

इसके बावजूद अनेक कंपनियाँ बीज निर्माण की प्रक्रिया के नाम पर पेटेंट लेकर  केवल कानून की भावना का उल्लंघन कर रही हैंबल्कि किसानों के पारंपरिक अधिकारों पर भी कुठाराघात कर रही हैं। यह केवल कानूनी हेरफेर नहींबल्कि अन्नदाता की स्वतंत्रता पर एक गहरा प्रहार है। बीज मानवता की सामूहिक धरोहर हैं — इन्हें किसी निगम या कंपनी की निजी संपत्ति नहीं बनाया जा सकता। बीजों पर नियंत्रण का अर्थ केवल कृषि पर अधिकार नहींबल्कि खाद्य सुरक्षानीति निर्धारण और अंततः मानव स्वतंत्रता पर नियंत्रण है। जब किसी राष्ट्र के बीज बाहरी शक्तियों के अधीन हो जाते हैंतब उसकी आत्मनिर्भरतास्वाभिमान और अस्तित्व—सब खतरे में पड़ जाते हैं।

जेनेटिक बीजों के प्रसार ने रासायनिक खेती को बढ़ावा दिया है। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से मिट्टी की संरचना नष्ट हो रही हैउसकी जीवनदायिनी शक्ति क्षीण होती जा रही है। भूजल विषाक्त हो रहा है और खेतों की जैव विविधता तेजी से समाप्त हो रही है। एकरूप बीजों की खेती से मिट्टी के आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्वों का संतुलन बिगड़ जाता है। 

इसके विपरीतदेशी बीज मिट्टी की उर्वरता और प्राकृतिक जीवंतता को बनाए रखते हैंक्योंकि वे स्थानीय जलवायुमिट्टी और जैविक तंत्र के साथ सामंजस्य में विकसित हुए हैं। इन बीजों में जलवायु परिवर्तन का सामना करने की अद्भुत क्षमता होती है — वे सूखेबाढ़ या तापमान के उतार-चढ़ाव जैसी विपरीत परिस्थितियों में भी स्थिर उत्पादन देने में सक्षम हैं। यह वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित सत्य है कि देशी बीज केवल परंपरा की पहचान नहींबल्कि सतत कृषिपर्यावरणीय संतुलन और वैज्ञानिक स्थायित्व के प्रतीक हैं।

आज अनेक किसान बीजखाद और कीटनाशक कंपनियों की पकड़ में जकड़ चुके हैं। हर फसल के साथ उन्हें नया बीज खरीदने के लिए मजबूर किया जाता हैजिससे खेती की लागत बढ़ती है और आमदनी लगातार घटती जाती है।

जब फसल असफल होती हैतो किसान के पास न तो बीज बचता हैन ही कर्ज चुकाने की सामर्थ्य। परिणामस्वरूपखेती जो कभी गर्व और समृद्धि का प्रतीक थीअब घाटे और निराशा का प्रतीक बनती जा रही है। इस स्थिति में शहरों के लोगों की भूमिका भी कम नहीं है। हम उपभोक्ता जब केवल सस्ते दाम देखकर वस्तुएँ चुनते हैंतो अनजाने में उस व्यवस्था को सशक्त करते हैं जो किसानों की स्वतंत्रता और स्वावलंबन छीन रही है। हमें यह समझना होगा कि थोड़ा अधिक मूल्य देकर खरीदा गया देशी अनाज केवल भोजन नहींबल्कि राष्ट्र की आत्मनिर्भरताकिसानों की गरिमा और स्वदेशी संस्कृति के संरक्षण में हमारा छोटा परंतु महत्वपूर्ण योगदान है।

अब वह समय आ गया है जब बीज स्वराज को केवल एक विचार नहींबल्कि राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में अपनाया जाए। हर गाँव में ऐसे बीज बैंक स्थापित किए जाएँजहाँ किसान अपने देशी बीजों को सुरक्षित रखेंउनका आदान-प्रदान करें और इस धरोहर को आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाएँ। सरकार को चाहिए कि वह देशी बीजों के संरक्षण और पुनरुत्थान के लिए ठोस नीतियाँ बनाएतथा स्कूलों और विश्वविद्यालयों में जैव विविधता संरक्षण को शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बनाया जाए। शहरों में भी बीज बालकनी” और किचन गार्डन” जैसी पहलें लोगों को इस अभियान से जोड़ सकती हैं। जब हर नागरिक यह अनुभव करेगा कि बीज केवल किसान की नहींबल्कि पूरे समाज की साझा धरोहर हैतब यह आंदोलन राष्ट्र की आत्मनिर्भरतापर्यावरणीय संतुलन और सांस्कृतिक अस्मिता का सशक्त प्रतीक बन जाएगा।

बीज केवल अन्न का स्रोत नहींबल्कि हमारी स्वतंत्रतापरंपरा और भविष्य का सजीव प्रतीक है। जब तक बीज हमारे अपने हाथों में रहेगातब तक हमारी थाली की रोटीभूमि की उर्वरता और स्वाभिमान की जड़ें सुरक्षित रहेंगी। परंतु जिस दिन बीज किसी कंपनी की तिजोरी में बंद हो गयाउस दिन हम केवल भोजन नहींअपनी आज़ादी और आत्मनिर्भरता भी खो देंगे। इसलिए अब समय है सोचनेजागने और कार्रवाई करने का। 

देशी बीजों को बचाना केवल किसानों की जिम्मेदारी नहींबल्कि हर नागरिक का राष्ट्रीय कर्तव्य है। यह आंदोलन खेतों तक सीमित नहीं—यह हर रसोईहर बालकनी और हर थाली से शुरू हो सकता है। जब हम अपनी थाली में देशी अन्न का स्वाद चखेंगेतब हम केवल भोजन नहींबल्कि स्वदेश और स्वराज का स्वाद अनुभव करेंगे। क्योंकि मिट्टी का बीज ही राष्ट्र की आत्मा हैऔर उस आत्मा की रक्षा करना ही सच्ची देशभक्ति है।

प्रोआरके जैन अरिजीत, 

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