अभी बहुत दूर है उम्मीदों की ' ईद '
' ईद ' एक लम्बे इन्तजार का दूसरा नाम है। चालीस दिन के कठिन रोजे के बाद हर मुस्लिम धर्मावलम्बी ' ईद ' का बेसब्री से इन्तजार करता है। इन्तजार और बेसब्री का घना रिश्ता है। इन्तजार हो और उसमें बेसबरू न हो तो मजा कहाँ आता है। रोजों की तरह हर धर्म में आत्मशुद्धि ,आत्म जागरण और आत्मशक्ति हासिल करने के अनेकानेक उपाय है । इधर ' ईद ' आ रही है ,उधर शक्तिरूपा माता जी नौ दिवसीय प्रवास पर घर-घर पधार चुकी है। लगभग सभी घर इन दिनों शक्तिपीठ बने हैं। हर कोई चाँद और सूरज से रिश्ता बनाकर रखे हुए है। यही सब कमोवेश भारतीय विविधता का सार है ,लेकिन दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति अब इस सार को छोड़कर थोथेपन का शिकार हो रही है।
अदावत की राजनीति ने तीज-तयोहारों का मजा किरकिरा कर दिया है। अब जब भी तीज-त्यौहार आते हैं,उनके पहले एक आशंका भी आ जाती है या उसे समाज पर थोप दिया जाता है। आपसी भाईचारे के लगातार कमजोर होने से ये समस्या पैदा हुई है। अब ईद के साथ रामनवमी आये तो मुठभेड़ों का भय ,ईद के साथ नवदुर्गा हो तो टकराव की आशंका। और ये सब पैदा कर रही है सियासत। देश को जबरन विविधता से एकांगी,एकरूपा,एक वर्णी,एकरंगी बनाने की जिद। जिद ये कि सर पर जालीदार टोपी पहनने से हजारों साल पुराना धर्म खतरे में पड़ने की चिंता होती है आज के सियासतदानों को।
इनदिनों देश में धार्मिकता के साथ ही चुनावों का भी मौसम है। चुनावी मौसम में ईद और रामनवमी या नवदुर्गा का आना ,मुबारक माना जाना चाहिए। ' ईद ' अगर जमातों को सब्र का पाठ पढ़ाती है तो रामनवमी अमर्यादित सियासत को मर्यादा का पाठ पढ़ने की कोशिश करती है। नवदुर्गा नारी शक्ति वंदना बिना किसी क़ानून के कराती है। अदावत की राजनीति धर्म की इस विविधता की शत्रु बन गयी है। बंगाल में उसे संदेशखाली की सियासत महत्वपूर्ण लगती है। मणिपुर राजनीति को जलता हुआ ही अच्छा लगता है। लद्दाख में जमी वर्फ कोई पिघलाना नहीं चाहता। लद्दाख की ही नहीं बल्कि जम्मू-कश्मीर की भी लगतार अनदेखी की जाती है ,राजपूतों की अस्मिता को कुचलने के कुचक्र रचे जाते हैं। ब्राम्हणों को जानबूझकर किनारे किया जाता है।
संयोग है कि देश की जनता का सब्र अभी तक टूटा नहीं है। देश की जनता को अभी भी सियासत का चाँद दिखाई देने की उम्मीद है। जनता को उम्मीद है कि आज नहीं तो कल सियासत की ईद मनाई जाएगी। अदावत के बादलों से मुहब्बत की सियत का चाँद जरूर बाहर निकलेगा। चाँद ईद वालों के लिए ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोगों के लिए उम्मीदों का प्रतीक है। सबको चाँद चाहिये। गनीमत है कि अभी तक किसी देश में ऐसा कोई क़ानून नहीं बना है जिसमें चाँद दर्शन को प्रतिबंधित किया गया हो। तालिबानी हों या कटटर चरमपंथी सबके सब चाँद के मुरीद हैं। बिना चंद्र दर्शन के ठंडक का अहसास किसी को नहीं होता। चाँद सबका है ,सब जगह दिखता है।
कोई पक्षपात नहीं करता। चाँद अपने भक्तों की जाती,धर्म रंग-रूप नहीं देखता। चाँद यानि चन्द्रमा यानि शशि यानि राकेश यानि , चंद्र, हिमांशु,सुधांशु, राकापति
उडुपति,उडुराज,,उदधि
देश में हर पांच साल में चंद्रोदय की उम्मीद की जाती है। जनता इस काल का बेसब्री से इन्तजार करती है ,कभी उसकी उम्मीदों का चाँद निकलता भी है और कभी नहीं भी निकलता। कभी चकमा दे जाता है ,तो कभी लुका-छिपी करता है। लेकिन लोग चाँद का इन्तजार करते हैं। चाहे वो किसी भी सूरत का हो। सियासत में चाँद के नाम और रूप अलग-अलग है। सियासत का चाँद कमल भी हो सकता है और हाथ भी , हँसिया, हथौड़ा एवं तारा,हँसिया और बाली ,हाथी,घड़ी,साइकिल मशाल,हल,तीर,तीर-कमान,लालटेन ,दो दंपत्ती,शेर,सीढ़ीऔर लड़का-लड़की भी हो सकता है। आप अपने-अपने चाँद को पहचानिये,चुनिए ,बटन दबाइये। ऊँगली पर निशान लगवाइये। तभी जाकर आपको असली ईद मनाने का मौक़ा मिलेगा।
लोकतंत्र का चाँद निकलता है और जरूर निकलता है। ये उम्मीदों का चाँद है। लोकतंत्र की ईद में सब शामिल होते है। लोकतांत्र की ईद का एक ही विधान,एक ही निशान होता है और वो है मोहब्बत,आपसी भाई -चारा,अम्नो-अमान। इसे महफूज रखिये। यही वक्त की मांग है और जरूरत भी। मुझे उम्मीद है कि आप कल भी ईद मनाएंगे और 4 जून 2024 को भी। सब्र बनाये रखिये।
@ राकेश अचल
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