'एक देश एक चुनाव' का विरोध क्यों ?

'एक देश एक चुनाव' का विरोध क्यों ?

 स्वतंत्र प्रभात   
 जितेन्द्र सिंह पत्रकार
 
 एक देश एक चुनाव के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को सौंप दी है। लाजमी है कि जब कोई नया प्रयोग होता है तो उसके पक्ष और विरोध में दोनों तरह की प्रतिक्रिया होती हैं। ऐसी ही प्रतिक्रियाएं इसको लेकर भी आ रही हैं। लेकिन जहां तक समझ में आता है तो इसमें किसी का कोई नुक्सान नहीं है। और यदि यह ठीक प्रकार से क्रियान्वित होता है तो देश का और देश के लोगों का फायदा ही है। इसके लागू हो जाने से हमें बार-बार के चुनावों से छुटकारा मिल सकता है। ऐसा नहीं है कि कि यह पहली बार किया जा रहा हो बहुत पहले भी ऐसा हो चुका है। परंतु समस्या यह है कि इसको क्रियान्वित करने के लिए भी कई पहलुओं पर सोचना होगा।
 
यह इतना सरल नहीं है जितना कि हम सोच रहे हैं। हमारे देश की जनसंख्या विश्व में सर्वाधिक है और यहां शासन चलाने के लिए देश, प्रदेश और तमाम निकायों के चुनाव होते हैं। समिति ने इस बारे में तमाम पहलुओं पर सोचा होगा। लेकिन सोचने में और उसे लागू करने में बहुत अंतर है। लेकिन जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं वह सही नहीं है।  सरकार को इस मामले में गठित समिति में विपक्ष को भी शामिल करना चाहिए था ताकि वह भी समझ सकें कि इसके क्या फायदे और क्या नुकसान हैं।
 
देश में 1952 से 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते थे। तब चुनाव बेलेट पेपर के माध्यम से होते थे। और मतपेटियां महंगी नहीं पड़तीं थीं तो कोई बहुत ज्यादा भार सरकार पर नहीं पड़ता था। लेकिन अब चुनाव वोटिंग मशीन से होते हैं जो कि काफी महंगी पड़ती है। और हमें अतिरिक्त मशीनों की व्यवस्था करने में काफी पैसे खर्च करने होंगे। जिसके लिए सरकार पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा।
 
एक साथ चुनाव कराने में कोई कठिनाई नहीं है लेकिन हम मध्यावधि चुनाव को कैसे रोक सकते हैं। कोई सरकार यदि गिरती है तो चुनाव को कैसे टाला जा सकता है। समिति ने त्रिशंकु परिणाम आने पर दुबारा मतदान की शिफारिश की है। लेकिन यदि दुबारा मतदान भी त्रिशंकु परिणाम आता है फिर क्या होगा। यह सब सोचने वाले प्रश्न हैं। 1971 में मध्यावधि चुनाव से यह सिलसिला इस कदर टूटा कि आज तक नहीं जुड़ सका।
 
अब यदि एक बार फिर से देश में एक साथ चुनाव कराने की आवाज उठी है तो इसके पीछे की कई वजहों को हमें समझना होगा लोकतंत्र का आधार चुनाव ही है। बिना चुनाव के लोकतंत्र हो ही नहीं सकता और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था विश्व में सबसे मजबूत मानी जाती है। और चुनाव प्रक्रिया में यदि कुछ कमी हो, तो उसको दूर करना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत होता है। अलग-अलग चुनाव कराने से पूरे साल हमारा देश चुनाव के 'मोड' में रहता है।
 
देश में हर समय चुनाव का मेला लगे रहने से आदर्श आचार संहिता के कारण विकास के नए काम रफ्तार नहीं पकड़ पाते। इससे राजनीतिक दलों के खर्च पर नियंत्रण और चुनाव में काला धन खपाने जैसी समस्याओं पर भी रोक नहीं लग पाती। सरकारी विभागों के कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया में व्यस्त रहते हैं, जिससे आमजन को अपने काम करवाने में परेशानी होती है। सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों की पढ़ाई तो उनके शिक्षकों की चुनाव में ड्यूटी लगने के कारण खासा प्रभावित होती है।
 
हालांकि, यह भी सच है कि हर चुनाव में आम लोग सरकारों को अलग- अलग नजरिये से देखते हैं, यानी आम चुनाव में केंद्र की, तो राज्य विधानसभा चुनाव में सूबे की सरकार की नीतियों का विश्लेषण करके मतदाता अपने मत का इस्तेमाल करते हैं। माना जा रहा है कि एक साथ चुनाव होने से ऐसा शायद नहीं हो सकेगा। मगर यह आरोप लगाकर हम असल में मतदाताओं की समझदारी पर ही सवाल उठा रहे हैं। आज का वोटर काफी जागरूक हो गया है। वह जानता है कि किस ईवीएम में कौन सा बटन दबाना है। लिहाजा यह एक निराधार आरोप है। अलबत्ता, हमें अब यह सोचना चाहिए कि किस तरह चुनाव प्रक्रिया को सरल बनाया जाए कि अधिक से अधिक लोग मतदान केंद्रों पर पहुंचकर अपने अधिकार का निर्वहन करें।
 
 एक देश एक चुनाव के लिए गठित समिति में कई विद्वान शामिल थे और उन्होंने इस मसौदे को तैयार करने से पहले हर पहलू पर विचार किया होगा। लेकिन कार्ययोजना तैयार करने और उसे धरातल पर लागू करने में बहुत अंतर होता है। जब देश में विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ होने का क्रम टूटा था तब भी कोई न कोई परेशानी रही ही होगी। उस समय हम फिर से एक साथ चुनाव क्यों नहीं करा सके और उसके क्या कारण थे यह भी विचारणीय प्रश्न है।जितनी तत्परता से कोविंद समिति ने 'एक देश, एक चुनाव' पर अपनी रिपोर्ट सौंपी है, उससे यह कयास गलत नहीं कि जल्द ही भारत इस ओर बढ़ जाएगा।
 
सिफारिश में कहा भी गया है कि अगली लोकसभा की पहली बैठक में इस पर निर्णय लिया जा सकता है। कहने वाले इसके पक्ष में दावा कर रहे हैं कि चूंकि यह कोई नई व्यवस्था नहीं है, इसलिए इसे स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, सभी राजनीतिक दलों को इस पर अपनी सहमति दे देनी चाहिए। मगर ऐसा कहने के बावजूद वे इससे जुड़ी चिंताओं के निवारण का प्रयास नहीं कर रहे हैं। दरअसल, एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनावों से मतदान की प्रवृत्ति, यानी 'वोटिंग पैटर्न' प्रभावित हो सकता है। दोनों चुनाव अलग-अलग मुद्दों पर लड़े जाते हैं। ऐसे में, यह में यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि हम किस तरह से अलग अलग निकायों के लिए अलग-अलग प्रत्याशी का चयन कर सकेंगे।
 
आज का मतदाता काफी जागरूक है वह विधानसभा चुनाव में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार प्रचंड बहुमत में बनवाता है और उसी के बाद तुरंत हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सभी सातों सीटें भारतीय जनता पार्टी की झोली में डाल देता है। मतदाता निकाय चुनाव में क्षेत्र के आधार पर काम करने वाले प्रत्याशी को चुनता है। इसमें निश्चित परेशानी होगी। पहले के चुनाव भी हमने देखे हैं जब देश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ होते थे। तब मतदाता जिस पार्टी को लोकसभा के लिए वोट देता था अमूमन उसी पार्टी को ही विधानसभा में वोट देता था।
 
इसीलिए देश के अधिकांश हिस्सों में कांग्रेस पार्टी का ही राज रहता था। लेकिन जब यह क्रम टूटा तो देश की राजनीतिक व्यवस्थाएं बदल गई। कई राज्यों में क्षेत्रीय दल इतने मजबूत हो गये कि उन्होंने वहां से राष्ट्रीय पार्टियों का सफाया कर दिया। कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी क्षेत्रीय दलों के सामने घुटने टेकने लगी। इस प्रक्रिया से छोटे क्षेत्रीय दल प्रभावित हो सकते हैं और इसी लिए वह इस प्रक्रिया का विरोध कर रहे हैं। और ऐसा पहले भी हो चुका है। क्षेत्रीय दल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते दिखाई देते थे।
 
और कांग्रेस पार्टी हर जगह अपना परचम लहराया करती थी। आज कुछ राज्यों को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय दल बड़े दलों को टक्कर दे रहे हैं। या तो उन्हें गठबंधन करना पड़ता है और या फिर उनको क्षेत्रीय दलों के कारण नुकसान उठाना पड़ता है। दिल्ली की जनता ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को चुना जब कि प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी पसंद नरेन्द्र मोदी ही रहे। लेकिन वहीं अगर एक साथ चुनाव होते हैं तो मतदाता असमंजस में पड़ सकता है। 

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