कैंपस की आग नहीं—तंत्र की नाकामी का धुआँ

छात्र, प्रणाली और शासन—आख़िर चूक कहाँ हुई?

कैंपस की आग नहीं—तंत्र की नाकामी का धुआँ

शिक्षा का मंदिर या भविष्य का क़ब्रिस्तान?—वीआईटी की आग से सीख

वीआईटी यूनिवर्सिटी सीहोर (भोपालमध्यप्रदेश) की घटना किसी एक संस्थान की नहीं, पूरे शिक्षा तंत्र की विफलता का नग्न रूप है। आगतोड़फोड़भगदड़ और पुलिस-दमकल की अफरातफरी… यह सब कड़ाई से याद दिलाता है कि जब शिक्षा व्यवस्था की आवाज़ नहीं सुनी जातीतो अव्यवस्था विस्फोट बनकर उभरती है। यह हादसा सिर्फ़ कैंपस के क्रोध का उबाल नहींबल्कि उन वर्षों की अनदेखी का धमाका है जिसे सभी पक्षों ने सुविधानुसार दरकिनार किया।

कितने माँ-बाप ने खून-पसीने की कमाईकर्जगहने तक गिरवी रखकर फीस भरी—बस इसलिए कि उनका बच्चा पढ़-लिखकर जीवन संवार सकेउनकी बुढ़ापे का सहारा बने। फिर एक रात टीवी पर खबर चली—विश्वविद्यालय में आगजनी। उसी क्षण उनके हाथ से रिमोट छूट गयादिल धड़कना भूल गया। बीस वर्षों से सँजोए सपने राख होते दिखे। वे कब सोचते हैं कि जहाँ उन्होंने सब कुछ झोंक दियावहीं उनका बच्चा डर में जियेगाजहरीला खाना खाएगा और एक दिन पूरा कैंपस आग के हवाले होता देखेगा। कोई मंत्रीकोई अफसरकोई कुलपति शायद ही समझता हो कि इस आग में हज़ारों माँ-बाप की उम्मीदें जल रही हैं। हमने अपने बच्चों को किताबें दी थींपत्थर नहीं। फिर आग उनके ही हाथों क्यों भड़की

मान्यता देने के बाद शासन ने मानो अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ली। विश्वविद्यालयों को अनुमति देना सिर्फ़ प्रशासकीय कार्रवाई नहींबल्कि छात्रों के भविष्य की सुरक्षा का वचन होता है। लेकिन वीआईटी का मामला दिखाता है कि मान्यता के बाद सरकार और नियामक संस्थाएँ (यूजीसीएआईसीटीई और राज्य उच्च शिक्षा विभाग) आँखें मूंदकर आगे बढ़ती रहीं—न नियमित निरीक्षणन व्यवस्थाओं की समीक्षान उभरती समस्याओं पर गंभीर ध्यान। यदि कभी निरीक्षण हुआ भीतो वह सिर्फ़ फ़ाइलों में टिकमार्क भरने तक सीमित रहा। जमीन पर क्या बदलना चाहिए था और वास्तव में क्या बदला—इसकी जवाबदेही कहीं नज़र नहीं आती।

प्रबंधन भी अपनी जगह निर्दोष नहीं ठहर सकता। विश्वविद्यालय तब तक प्रगति के प्रतीक नहीं बनते जब तक वे शिक्षा के साथ सुरक्षित और सम्मानजनक सुविधाएँ न दें—और जब हॉस्टलसुरक्षा और बुनियादी व्यवस्थाएँ ही संकट में पड़ जाएँतो आक्रोश उभरना स्वाभाविक है। छात्र केवल क्लासरूम नहींबल्कि गरिमा और सुरक्षा की आशा लेकर संस्थानों की दहलीज़ पार करते हैं। लेकिन जब प्रबंधन के लिए विद्यार्थी ग्राहक और शिक्षा व्यापार में बदल जाएतब विश्वास टूटता है और यही टूटा भरोसा अंततः बगावत का स्वर बनकर फूट पड़ता है।

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स्थानीय प्रशासन का रवैया भी इस अव्यवस्था को बढ़ाने में उतना ही दोषी है। क्या प्रशासन ने सच में अपनी जिम्मेदारी निभाईक्या विश्वविद्यालय का वास्तविक निरीक्षण हुआक्या अभिभावकों और विद्यार्थियों की आवाज़ कभी सुनी गईकटु सत्य यही है कि निरीक्षणों को महज़ औपचारिकता मान लिया गया—रिपोर्टें बनींसिफारिशें गुम हो गईंसुधार ठप पड़े रहे और अव्यवस्था लगातार फैलती गई। जिस सिस्टम का काम खतरे पहचानना और रोकना थावही गहरी नींद में डूबा रहा—और नतीजा आज सबके सामने है।

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और हाँसवाल छात्रों पर भी उठते हैं। विरोध लोकतांत्रिक अधिकार हैऔर अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना आवश्यक भी। पर क्या आगजनीतोड़फोड़ और हिंसा किसी समाधान का रास्ता हैंविश्वविद्यालय का जलना किसी समस्या की जीत नहीं—हर पक्ष की सामूहिक हार है। यह स्वीकारना भी ज़रूरी है कि उग्रता वहीं जन्म लेती है जहाँ शिकायतें अनसुनी रह जाएँसंवाद बंद कर दिया जाए और निराशा चरम पर पहुँच जाए। लेकिन हिंसा कभी समाधान नहीं बनती—वह सिर्फ शिक्षा और समाज दोनों के घाव और गहरे कर देती है।

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मुख्य प्रश्न यही है—क्या समय पर कदम उठाए जाते तो यह स्थिति जन्म लेतीयदि निरीक्षण वास्तविक होतेशिकायतों को गंभीरता से सुना जातासमस्याओं का समाधान होता और प्रबंधन व छात्रों के बीच संवाद खुला रहता—तो क्या आज कैंपस में आग बुझाने को दमकलें दौड़ रहीं होतींक्या क्लासरूम राख बनते और छात्र भय में भागतेउत्तर बिल्कुल स्पष्ट है—यह संकट टाला जा सकता थापर इसे रोकने की कोशिश किसी ने की ही नहीं।

अब सबसे ज़रूरी यह है कि पूरे मामले को सिर्फ कार्रवाई में  समेट दिया जाए। कुछ छात्रों को दोषी ठहरानाकुछ अधिकारियों को निलंबित करना या प्रबंधन को नोटिस भेज देना—ये त्वरित कदम हो सकते हैंपर स्थायी समाधान नहीं। शिक्षा व्यवस्था को सुधार चाहिएदिखावटी सख्ती नहीं। हर निजी और शासकीय विश्वविद्यालय में नियमितपारदर्शी और वास्तविक निरीक्षण अनिवार्य हो—कागजी रिपोर्टों से नहींबल्कि स्थानीय शिक्षाविदोंसमाजसेवियोंअभिभावकों और प्रशासन की संयुक्त भागीदारी से। छात्रों के लिए सुरक्षित और प्रभावी शिकायत निवारण तंत्र होना चाहिए जिसे अनसुना न किया जाए। प्रबंधन को अधिकार के साथ जवाबदेही भी निभानी होगी। और सबसे महत्वपूर्ण—छात्र और संस्थान के बीच संवाद कभी टूटने नहीं देना चाहिए।

विश्वविद्यालय युद्धस्थल नहींभविष्य की प्रयोगशालाएँ होते हैं। यहाँ आग नहींविचारों की तपिश जलनी चाहिए। यहाँ गुस्सा नहींविकास पनपना चाहिए। शिक्षा की पवित्रता तब तक सुरक्षित नहीं हो सकती जब तक शासनप्रबंधनप्रशासननियामक और विद्यार्थी—सभी अपनी-अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से न निभाएँ। वीआईटी की घटना कठोर चेतावनी है कि यदि शिक्षा संस्थानों में व्यवस्था नहीं बनीतो अव्यवस्था बार-बार सड़क पर उतरेगी—और उसका सीधा दंश राष्ट्र को झेलना पड़ेगा।

अब दोष खोजने का समय नहीं—जिम्मेदारी उठाने का क्षण है। अब सज़ा बाँटने से ज़्यादाव्यवस्था को सुधारने की आवश्यकता है। अब चुप्पी की नहींखुले और ईमानदार संवाद की जरूरत है। जब शिक्षा के मंदिरों से धुआँ उठने लगेतो यह सिर्फ़ इमारतों का नहींसमाज के भविष्य का अंधेरा होता है। यह संकेत है कि कहीं न कहीं हमारी नींव हिल चुकी है। इसलिए आज एक ही संकल्प सबसे जरूरी है—शिक्षा का स्थान संघर्षअव्यवस्था या भय नहीं होना चाहिएशिक्षा वहाँ होनी चाहिए जहाँ समाधान जन्म लेंविचार पनपें और भविष्य मजबूत हो।

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