एक कवि, एक मधुशाला, और पूरी सदी पर छाया हुआ नशा
जहाँ शब्दों में आग हो और अर्थों में मेघ—वही हरिवंश राय बच्चन
हरिवंश राय बच्चन: हिंदी को सिर्फ भाषा नहीं, एक नशा बना दिया
27 नवंबर 1907। प्रतापगढ़ के बाबूपट्टी गाँव में, एक साधारण से कायस्थ परिवार में जन्मे नवजात की आहट किसी को नहीं बताती थी कि यह बच्चा आगे चलकर हिंदी साहित्य की तकदीर बदल देगा। परिवार ने नाम दिया—हरिवंश राय। पर समय ने उसके चारों ओर एक और पहचान बुन दी—बच्चन, और यही बच्चन आगे चलकर उन कविताओं का जनक बना, जिनमें पहली बार शब्द शराब की तरह चढ़े, जिनमें पहली बार धुएँ की लकीरें भी जीवन-दर्शन बनकर उभरीं, और जिसने निडर होकर कहा—जीवन एक मधुशाला है; जो जीना चाहता है, वह पहले पीना सीखे।
मधुशाला के बिना हरिवंश राय बच्चन की छवि ऐसे लगती है, जैसे किसी मंदिर में दीपक न जले—अधूरी, अपूर्ण, और अपने उजाले की प्रतीक्षा करती हुई। 1935 में जब “मधुशाला” छपी, तो पूरा हिंदी जगत स्तब्ध रह गया। एक तरफ़ छायावाद के कवि फूलों-पत्तियों में प्रेम ढूँढ रहे थे, दूसरी तरफ़ एक 28 साल का नौजवान शराब, प्याला, साकी और हाला को प्रतीक बनाकर जीवन का पूरा दर्शन सुना गया। उसने लिखा – “मृत्यु न आती यदि जीवन में, जीवन होता न इतना सुहाना।” यह पंक्ति कोई दार्शनिक की नहीं थी, यह उस युवक की थी जिसने जीवन को गिलास की आख़िरी बूंद तक चखने का फ़ैसला कर लिया था। मधुशाला कोई शराब की प्रशंसा नहीं थी, वह जीवन के अनगढ़, अनावृत, निडर सौंदर्य का उत्सव थी – नग्न, बेलौस, बेख़ौफ़।
बच्चन की कविता में जो बात सबसे ज़्यादा चुभती थी, वह उसकी निर्मम ईमानदारी थी। वह कभी ढोंग नहीं करते थे। प्रेम लिखा तो ऐसा कि लगे अभी कोई आशिक़ सिगरेट का कश लेकर आह भर रहा हो – “रात आधी खींचकर मेरा आँचल…”। दर्द लिखा तो ऐसा कि जैसे कोई अपना सीना चीरकर दिखा रहा हो। और संघर्ष लिखा तो “अग्निपथ” लिखा – वह कविता जो आज भी हर उस लड़के की रगों में दौड़ती है जो रात-रात भर पढ़कर सुबह असफल होता है, फिर भी उठता है। “तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी…” – यह किसी मंच पर खड़े, तालियाँ बटोरते प्रेरक वक्ता की आवाज़ नहीं थी। यह एक पिता था, जो अपने बेटे की हथेली में जीवन का सबसे कठोर, सबसे कीमती शस्त्र रख रहा था। और उस बेटे का नाम था—अमिताभ बच्चन।
उन्होंने जीवन को कभी दो रंगों में नहीं बाँटा। उनके लिए जीवन न उजला था, न काला—बल्कि वह तीखी, झकझोर देने वाली धूसर रोशनी था, जहाँ हर अनुभव अपने पूरे ताप के साथ जलता है। श्यामा की मृत्यु ने उनके भीतर ऐसी दरार डाली, जो किसी को भी जीवनभर के लिए बिखरा देती—लेकिन बच्चन टूटे नहीं; उन्होंने उस टूटन को ही अपनी कविता का नया आधार बना दिया। जब तेजी सूरी से प्रेम हुआ तो प्रेम की औपचारिकताओं में नहीं बँधे। वर्षों साथ रहे—बिना परिभाषाओं, बिना सामाजिक मुहर के, और विवाह के बाद भी वही अपरिवर्तित दीवानगी, वही अनकही निकटता उनके बीच जलती रही। उनके घर की हवा में कविता पढ़कर नहीं, जीकर बसती थी। रसोई में उबलती चाय के साथ तेजी अपनी धुनें घोलतीं, और बालकनी में बच्चन साहब सिगरेट के धुएँ में ऐसे छल्ले बनाते जिनमें धीरे-धीरे नई रुबाइयों के चेहरे उभर आते—मानो जीवन खुद उनके शब्दों का शिष्य हो।
Read More दमघोंटू हवा पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती- अब नियमित सुनवाई से जुड़ेगी दिल्ली की सांसों की लड़ाईबच्चन ने हिंदी को वह आवाज़ दी जो आज तक कोई दूसरा कवि नहीं दे पाया – युवा मन की बेक़ाबू, अनगढ़, तेज़तर्रार आवाज़। जब साहित्य सभ्यता, संस्कार और मर्यादा की चमक-दमक में सिमट रहा था, तब बच्चन ने कहा —“हाँ, मैं नशे में हूँ, प्रेम में हूँ, जीवन में हूँ—और यह मेरा अभिमान है, अपराध नहीं।” उनकी हर पंक्ति में एक विद्रोह था, एक बग़ावत थी, पर इतनी सौंदर्यपूर्ण, इतनी सम्मोहित करने वाली, कि विद्रोह का ताप नहीं, उसका आकर्षण महसूस होता था। वह शराब के प्रतीकों में जीवन का सार घोलते थे, जबकि स्वयं मदिरा से कोसों दूर थे। प्रेम पर ऐसी पंक्तियाँ रचते जो दिलों में भूचाल ला दें, पर स्वयं प्रेम में पागलपन की सीमा कभी न लाँघते। और जीवन? जीवन के बारे में उन्होंने सिर्फ लिखा नहीं—उसे ऐसे जिया जैसे हर दिन अंतिम हो, और हर अंतिम दिन एक नया आरंभ।
आज उनकी 118वीं जयंती है, और यह आश्चर्य नहीं—मधुशाला अब भी खुली है, अब भी बह रही है, अब भी जीवित है। कहीं कोई लड़का अपनी प्रेमिका को व्हाट्सऐप पर “जो बीत गई सो बात गई” भेजकर टूटे दिल को सांत्वना दे रहा है। किसी जिम में कोई नौजवान “अग्निपथ! अग्निपथ!” की गूँज के साथ डंबल उठा रहा है। किसी बार में एक बुज़ुर्ग अकेला गिलास घुमाते हुए धीमे से गुनगुना रहा है—“मुसाफ़िर हूँ यारों, न घर है न ठिकाना…”। और किसी अस्पताल के आईसीयू में कोई आख़िरी साँस लेते हुए मुस्कुरा रहा है क्योंकि उसे याद आ रही है बच्चन की वह निर्भीक, अनश्वर पंक्ति – “मरना तो है ही एक दिन, फिर क्यों न आज मर जाएँ हम मधुशाला में।”
हरिवंश राय बच्चन देह छोड़कर चले गए, पर उनकी कविता कहीं नहीं गई। वह अब भी हमारी नसों में दौड़ती है, हमारे साहस में उभरती है, हमारे प्रेम में पिघलती है, और हमारे संघर्ष में तलवार बनकर चमकती है। वह आज भी जीवित हैं—हर उस प्याले में जिसे कोई उठा कर जीवन को चुनौती देता है; हर उस रास्ते पर जिसे कोई अपनी आग से अग्निपथ बना लेता है; हर उस आँख में जो आँसू निगलकर भी मुस्कुराने का हौसला पाती है। क्योंकि बच्चन ने यह सिद्ध कर दिया था—असली कविता मरती नहीं; वह बस प्याले बदलती है, पर नशा वही रखती है। और मधुशाला? वह तो अभी भी खुली है, अब भी बुला रही है। चलो… एक प्याला हो ही जाए।

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