भारत–चीन-अमेरिकी संबंध, परिस्थिति-जन्य वैश्विक कुटनीति का नया दौर

भारत–चीन-अमेरिकी संबंध, परिस्थिति-जन्य वैश्विक कुटनीति का नया दौर

 भारत और चीन के रिश्ते कितने दूरगामी हैं, यह प्रश्न आज एशिया ही नहीं पूरी वैश्विक राजनीति की धुरी बन चुका है। चीन से दोस्ती भारत के लिए कोई नई बात नहीं है; यह इतिहास की धारा में कई उतार-चढ़ावों से होकर गुज़री है। 1954 में नेहरू और झोऊ एनलाई के बीच “हिंदी-चीनी भाई-भाई” का नारा उभरा था, जब भारत 1947 में और चीन 1949 में स्वतंत्र राष्ट्र बने थे। दोनों देशों ने उभरती शीतयुद्ध राजनीति में तटस्थता और एशियाई एकता का सपना देखा था, किंतु 1962 के भारत-चीन युद्ध ने इस सपने को अफसाना बना दिया और विश्वास की दीवारें इतनी ऊँची खड़ी हुईं कि उसकी गूँज आज भी सीमा के पहाड़ों तक सुनाई देती है।

1962 के बाद चीन ने लद्दाख और हिमाचल के बड़े हिस्सों पर नियंत्रण बढ़ाया, अक्साई चिन पर कब्ज़ा किया, और गलवान से डोकलाम तक हर दशक में कभी खुली तो कभी निहित झड़पें होती रहीं। अप्रैल 2020 के बाद एल ए सी पर चीन की आक्रामक तैनाती ने भारत को अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ क्वाड साझेदारी मज़बूत करने की ओर धकेला, और यही अमेरिकी असहजता का मूल भी है—क्योंकि वाशिंगटन चाहता है कि भारत उसका पूर्ण सामरिक मित्र बने, परंतु भारत अपनी स्वायत्त विदेश नीति छोड़ने को तैयार नहीं है।

सितंबर 2025 में शंघाई सहयोग संगठन  की 25वीं बैठक ने अचानक एशिया की राजनीति में नया मोड़ ला दिया, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात लंबी खाई को पाटने की कोशिशों से भर उठी। दोनों देशों ने सामरिक तनाव कम कर व्यापार, पर्यटन, निवेश, डिजिटल कनेक्टिविटी और ऊर्जा गलियारों में सहयोग बढ़ाने की रूपरेखा तैयार की। चीन को भी अहसास है कि अमेरिका की टैरिफ नीति और निर्यात प्रतिबंधों ने उसकी अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ाया है और भारत एक विशाल बाज़ार के रूप में उसके लिए रणनीतिक राहत बन सकता है। दूसरी ओर भारत समझता है कि चीन से टकराव स्थायी समाधान नहीं है, क्योंकि सीमा विवाद के बावजूद 2024–25 में द्विपक्षीय व्यापार 136 अरब डॉलर तक पहुँच चुका है, और आर्थिक वास्तविकता दोनों को एक-दूसरे से जोड़े बिना नहीं रख सकती।

उधर अमेरिका और पाकिस्तान के बीच हालिया महीनों में बढ़ती निकटता ने एशिया में शक्ति संतुलन को नई दिशा दे दी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की पाकिस्तानी सेना प्रमुख आसिम मुनीर और प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ से हुई बैठकों ने दोनों देशों के रणनीतिक रिश्तों को पुनर्जीवित कर दिया है। पाकिस्तान द्वारा अमेरिकी रक्षा उपकरण खरीदने की नई योजनाएँ और वाशिंगटन द्वारा पाकिस्तान को ‘क्षेत्रीय सुरक्षा सहयोगी’ का दर्जा देने से भारत की सुरक्षा चिंताएँ बढ़ना स्वाभाविक है।

यह वही अमेरिका है जिसने 1999 के कारगिल युद्ध और 1971 के बांग्लादेश युद्ध में पाकिस्तान की हिफ़ाज़त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, इसलिए भारत जानता है कि शक्ति संतुलन का कोई भी समीकरण स्थायी नहीं होता। विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका पाकिस्तान का इस्तेमाल चीन और रूस के विरुद्ध अपनी पश्चिमी एशिया रणनीति के हिस्से के रूप में करेगा, और भारत-अमेरिका मित्रता भी केवल साझा हितों पर आधारित है, स्थायी भावनाओं पर नहीं।

भारतीय दृष्टिकोण से, आज की कूटनीति का सच यह है कि जितना अविश्वसनीय अमेरिका है, उतना ही अविश्वसनीय चीन भी। दोनों देशों का इतिहास भारत के प्रति अवसरवादी रहा है। यही कारण है कि भारत की विदेश नीति ‘बहुध्रुवीयता’ और ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ पर आधारित है—जहाँ भारत न तो चीन के ब्लॉक में पूरी तरह शामिल होगा, न अमेरिका के प्रभाव में आएगा। एससीओ  सम्मेलन में में भारत-चीन की नज़दीकी और ब्रिक्स -प्लस ढांचे में नए आर्थिक सहयोग की संभावनाएँ यह संकेत देती हैं कि एशिया अपनी शर्तों पर अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देने की स्थिति बना रहा है। चीन-रूस-भारत त्रिकोण अमेरिका,नाटो  चिंताओं का मुख्य कारण है, क्योंकि यह त्रिकोण ऊर्जा, रक्षा, तकनीक, और क्षेत्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर पश्चिमी देशों के दबदबे को कम कर सकता है।
 

चीन के लिए, भारत-अमेरिका निकटता रणनीतिक दबाव बढ़ाती है, जबकि भारत-चीन तालमेल उसे दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और इंडो-पैसिफिक में बेहतर स्थिति दे सकता है। भारत के लिए, चीन से संबंध सुधरने का अर्थ है LAC पर तनाव में कमी, व्यापार में निर्भरता नियंत्रित करना और वैश्विक महंगाई व सप्लाई-चेन संकट से बचाव। जबकि अमेरिका इस पूरे बदलते परिदृश्य को एशिया में अपने प्रभाव के लिए चुनौती के रूप में देख रहा है, और यह चिंता सिर्फ सामरिक नहीं बल्कि आर्थिक भी है, क्योंकि अमेरिकी उद्योग चीन-भारत सहयोग को अपने बाज़ार हितों के विपरीत मानते हैं।

इन बदलते समीकरणों के बीच सवाल यही है कि क्या भारत-चीन का सहयोग अमेरिका के खिलाफ प्रभावी रणनीतिक विकल्प बन सकता है? सच यह है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्थायी मित्र या स्थायी शत्रु जैसा कुछ नहीं होता; केवल स्थायी हित होते हैं। भारत और चीन जब अपने हितों के आधार पर एक-दूसरे के करीब आते हैं तो यह एशिया को अधिक स्वायत्त और बहुध्रुवीय बनाता है, परंतु सीमा विवाद, ताईवान-दक्षिण चीन सागर तनाव, और चीन-पाकिस्तान गठजोड़ जैसे कारक भारत को पूरी तरह निश्चिंत नहीं होने देते। भारत की चुनौती यह है कि वह अमेरिका और चीन दोनों के साथ संतुलन बनाते हुए अपनी सामरिक स्वतंत्रता बनाए रखे।

बहुपत्नीत्व अब इतिहास—असम ने बदल दी सदियों की परंपरा Read More बहुपत्नीत्व अब इतिहास—असम ने बदल दी सदियों की परंपरा

शंघाई सम्मेलन का यह नया समीकरण आने वाले वर्षों में एशिया-प्रशांत की राजनीति को पुनः परिभाषित कर सकता है। भारत और चीन जब साझा आर्थिक हितों, ऊर्जा सुरक्षा, क्षेत्रीय स्थिरता और व्यापारिक गलियारों पर साथ खड़े होते हैं, तो यह अमेरिका की टैरिफ रणनीति और एशियाई राजनीति की धुरी को भी बदल देता है। भविष्य बताएगा कि यह सहयोग स्थायी रणनीति बनता है या एक और अस्थायी कूटनीतिक अध्याय। किंतु इतना स्पष्ट है कि भारत-चीन की नई राह यदि टिकाऊ साबित होती है, तो एशिया की शक्ति संतुलन रेखाएं बदल जाएंगी और अमेरिका का प्रभाव सीमित होगा और यदि यह राह फिर बाधित होती है, तो भारत को अपनी सुरक्षा और आर्थिक नीति में नए विकल्प तलाशने होंगे। यही अंतरराष्ट्रीय संबंधों का शाश्वत सत्य है कि विश्व राजनीति में न कोई स्थाई दोस्त होता है न स्थाई दुश्मन केवल स्थाई हित होते हैं, और भारत उसी हित-नीति पर आगे बढ़ रहा है।


डब्ल्यूपीएल ऑक्शन: जहाँ पैसा नहीं, सपने अनुबंध हुए Read More डब्ल्यूपीएल ऑक्शन: जहाँ पैसा नहीं, सपने अनुबंध हुए

 

वेद–उपनिषदों के आलोक में प्रदीप्त होता वैश्विक आकाश,अयोध्या से विश्वशांति का नवोदय Read More वेद–उपनिषदों के आलोक में प्रदीप्त होता वैश्विक आकाश,अयोध्या से विश्वशांति का नवोदय

 

About The Author

स्वतंत्र प्रभात मीडिया परिवार को आपके सहयोग की आवश्यकता है ।

Post Comment

Comment List

आपका शहर

अंतर्राष्ट्रीय

Online Channel