धर्मेन्द्र: पर्दे का हीरो नहीं, दिलों का बादशाह
धर्मेन्द्र: नायक नहीं, नज़रिया थे
धर्मेन्द्र: ही-मैन नहीं, ह्यूमन हीरो थे
फ़िल्मी आसमान में कुछ सितारे ऐसे जन्म लेते हैं, जिनकी चमक समय की सीमाओं को लांघ जाती है। धर्मेन्द्र — वह नाम जिसने भारतीय सिनेमा को सिर्फ़ वीरता नहीं, संवेदना भी दी। वह अभिनेता नहीं, भावनाओं का एक संस्थान थे। उनकी आँखों में ग़ज़ब की सच्चाई थी, आवाज़ में गूँजता अपनापन और मुस्कान में वो गर्मजोशी जो किसी गाँव की धूप जैसी लगती थी — कोमल, सच्ची और आत्मीय। धर्मेन्द्र वो इंसान थे जो परदे पर जितने बड़े हीरो दिखे, असल ज़िंदगी में उससे कहीं बड़े इंसान निकले। उनकी शख़्सियत किसी पुराने बरगद की तरह थी — जो हर पीढ़ी को छाँव देता रहा, स्थिरता देता रहा। सूरज भले हर दिन उगता हो, पर कुछ रोशनियाँ ऐसी होती हैं जो एक बार जाती हैं तो युग को अँधेरा दे जाती हैं। 24 नवंबर को ऐसी ही एक रौशनी बुझी — धर्मेन्द्र की। यह सिर्फ़ एक व्यक्ति का जाना नहीं था, यह अभिनय के एक युग का अवसान था। वह युग, जब पर्दे पर मांसपेशियों से नहीं, दिल से नायक गढ़े जाते थे। धर्मेन्द्र सिर्फ़ फ़िल्मों के हीरो नहीं थे, वे उस मिट्टी की आत्मा थे जिसमें भारतीय सिनेमा की जड़ें बसी हैं।
1960 में “दिल भी तेरा हम भी ते
धर्मेन्द्र कोई साधारण अभिनेता नहीं थे। वे हिंदुस्तान की मिट्टी के बेटे थे — पंजाब के लुधियाना ज़िले के सहनेवाल गाँव में 8 दिसंबर 1935 को जन्मे धर्म सिंह देओल। खेतों की खुशबू, माँ की रसोई की महक और गाँव की सादगी उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा रही। यही ज़मीन उनकी आत्मा बनी — वही ज़मीन जिसने उन्हें गढ़ा और वही ज़मीन जिसने उन्हें धरती का हीरो बनाया। अगर अमिताभ “एंग्री यंग मैन” थे, तो
Read More दमघोंटू हवा पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती- अब नियमित सुनवाई से जुड़ेगी दिल्ली की सांसों की लड़ाईधर्मेन्द्र का जीवन संघर्ष से भरा था, पर उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। लुधियाना के छोटे से गाँव साहनेवाल से निकलकर उन्होंने फ़िल्मी दुनिया का शिखर छू लिया — लेकिन उस ऊँचाई पर पहुँचकर भी ज़मीन नहीं छोड़ी। वह हमेशा कहते थे — “मैं आज भी वही गाँव का लड़का हूँ, जो अपनी माँ की रसोई की खुशबू नहीं भूला।” उनकी यह विनम्रता ही उन्हें ‘लिजेंड’ बनाती है। आज जब ग्लैमर की चकाचौंध में सादगी खो रही है, धर्मेन्द्र उस दौर के प्रतीक हैं जहाँ इंसानियत, इज़्ज़त और इमोशन का मेल होता था।
वह हिंदी सिनेमा के सिंहासन के शेर थे, जिनकी दहाड़ पर सिनेमाघरों में सीटियाँ बजती थीं। वह रोमांस के संगीतकार थे, जो बिना शब्दों के प्रेम गा जाते थे। वह एक्शन के आंधी थे, और करुणा के समुद्र। अगर दिलीप कुमार अभिनय के विद्यालय थे, तो धर्मेन्द्र उसकी सजीव पाठशाला। उनकी उपस्थिति वैसी थी जैसे सूरज की — जिसके बिना रोशनी अधूरी लगती है। धर्मेन्द्र सिर्फ़ देखे नहीं जाते थे, महसूस किए जाते थे। आज की पीढ़ी अगर सनी देओल या बॉबी देओल को देखती है, तो उनमें धर्मेन्द्र की परछाईं झलकती है। उनका असर सिनेमा की रगों में दौड़ता है — हर उस अभिनेता में जो अभिनय को भावनाओं की भाषा मानता है। वह हमारे सिनेमा के ध्रुवतारा हैं — जो दिशा दिखाता है, मार्ग रोशन करता है। धर्मेन्द्र सिर्फ़ फ़िल्मों का नाम नहीं, एक संवेदना हैं, जो भारतीय दिलों में हमेशा जीवित रहेगी।
समय चाहे आगे बढ़ जाए, तकनीक बदल जाए, पर एक बात सदा रहेगी — जब भी “यमला पगला दीवाना” गूँजेगा,
धर्मेन्द्र सिर्फ़ अभिनेता नहीं थे, वे भारतीय सिनेमा की आत्मा थे। वे एक पीढ़ी नहीं, कई पीढ़ियों के हीरो रहे — जो पर्दे पर गरजते थे और असल ज़िंदगी में झुकते थे। वे बरगद के उस पेड़ की तरह थे जिसकी छाँव में पूरा बॉलीवुड पला-बढ़ा। उनके बेटे और पोते उसी वटवृक्ष की शाखाएँ हैं। धर्मेन्द्र हमें यह सिखा गए कि असली नायक वह नहीं जो युद्ध जीतता है, बल्कि वह है जो दिल जीतता है। उन्होंने भारतीय सिनेमा को वीरता दी, संवेदना दी, और सबसे बढ़कर — इंसानियत दी।

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