चुनाव में नहीं दिख रही मुद्दों की बात 

चुनाव में नहीं दिख रही मुद्दों की बात 

धीरे-धीरे चुनाव अपने अंतिम चरण की ओर बढ़ रहा है। तापमान बहुत अधिक है लेकिन तापमान रैली और रोड शो में भीड़ को कम नहीं कर पा रहा है। यह पार्टी कार्यकर्ताओं का अपनी पार्टी के लिए लगाव को दर्शाता है। जनता शांत है। चर्चा दबे जुबान से हो रही है। आरोप प्रत्यारोप की बौछार हो रही है लेकिन मुद्दों का अभाव इस चुनाव में साफ नजर आ रहा है। या यह कहना सही है कि विपक्ष मुद्दों को सही ढ़ंग से नहीं उठा पाया है। इस चुनाव में कोई मैजिक भी नहीं चल रहा है। लेकिन जनप्रतिनिधियों के लिए जनता में रोष व्याप्त है। ज्यादातर मतदाताओं का यही मानना है कि जनप्रतिनिधि जीतने के बाद क्षेत्र में नहीं आते और न ही ऐसे कोई काम किए हैं जिनसे जनता खुश हो। हां यह सत्य है कि धर्म और जाति का बहुत बड़ा असर चुनाव पर है। सत्ताधारी पार्टी एक धर्म की दुहाई दे रही है तो विपक्ष दूसरे धर्म की। जातियों का संयोजन अच्छी तरह से किया गया है। इसी लिए पूर्वांचल में ऐसी पार्टियां को बड़ी अहमियत मिली है जो अकेले दम पर एक सीट जीतने की भी हिम्मत रखते हों। लेकिन जातियों का संयोजन करने में यह पार्टियां अच्छी तरह से कार्य कर रही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपना दल सोनेलाल, अपना दल कमेराबादी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी, महान दल, भारतीय शोषित समाज पार्टी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल, और आजाद समाज पार्टी अकेले चुनाव में उतरने पर कतरातीं हैं क्योंकि उनको एहसास है कि वह एक सीट नहीं जीत सकते। इसलिए यह समय और माहौल देखकर ही गठबंधन का विचार करते हैं। और गठबंधन करने से इनको अहमियत भी अच्छी खासी मिल रही है।
 
जिस चुनाव में विपक्ष के पास मुद्दे नहीं हैं तो शायद यह उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है। दूसरों की कमियां निकाल कर बार बार चुनाव नहीं जीता जा सकता है। आपको उनसे अधिक अच्छा कार्य करना पड़ेगा कुछ अलग हट कर करना पड़ेगा तभी आप सत्ता तक पहुंच सकते हैं अन्यथा हमेशा की तरह आप इस बार भी छटपटाते ही नजर आएंगे। भारतीय जनता पार्टी दस वर्ष पहले नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब चुनाव में लड़ी थी तो उसके मुद्दे अलग हटकर थे। उसने देश के मन को पढ़ लिया था।‌ और दस साल बाद वह आज भी उसी मुद्दे पर कायम है। भारतीय जनता पार्टी के पास कार्यकर्ताओं का एक लंबा हुजूम है जो उसको बुलंदियों तक पहुंचाने की दम रखता है। विपक्ष के पास न तो मुद्दे दिख रहे हैं और न ही अच्छे जुझारू कार्यकर्ता हैं।‌ यह चुनाव केवल एक दूसरे की कमियों को उजागर करके ही लड़ा जा रहा है। ऐसा भी नहीं है कि देश में मुद्दे ही नहीं बचे हैं लेकिन उन मुद्दों पर विपक्ष खुलकर नहीं बोल पा रहा है। इसमें उसकी कोई मजबूरी भी हो सकती है। बहुजन समाज पार्टी का उत्तर प्रदेश में जो हस्र है वह किसी से छिपा नहीं है। बसपा केवल वोट कटुआ पार्टी के रुप में ही नजर आ रही है। विदित हो कि पहले के चुनावों में मायावती के भाषणों में कितना पैनापन होता था लेकिन आज न वह सरकार के खिलाफ कुछ भी बोल पा रही हैं और न ही अन्य समकक्ष दलों के खिलाफ।
 
राजनैतिक दल मुद्दों पर चर्चा न करके मतदाताओं को डराने की कोशिश ज्यादा कर रहे हैं कि यदि फलां पार्टी सत्ता में आ गई तो ऐसा करेगी कि आपका जीना दुश्वार हो जाएगा। मुद्दों की कमी नहीं है। गरीबी पर खुल कर बोला जा सकता है। महंगाई को एक बहुत बड़े मुद्दे के रूप में उठाया जा सकता है। युवाओं को साथ में लाने के लिए बेरोजगारी पर वोला जा सकता है।‌ माना कि विकास कार्य हुए हैं लेकिन अभी भी बहुत से क्षेत्रों में विकास की बहुत संभावनाएं हैं जिस पर खुल कर बोला जा सकता है।‌ भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा है। किसी भी सरकारी विभाग में बिना खर्चा किए कोई काम नहीं होता है, इसको मुद्दा बनाकर बोला जा सकता है। रेलवे का हाल किसी से छिपा नहीं है जहां एक तरफ हम बंदे भारत जैसे ट्रेनों का संचालन कर रहे हैं वही दूसरी तरफ अन्य ट्रेनों में जो सवारियों का लोड है उस पर बहुत कुछ बोला जा सकता है।‌ भारत में रेलवे को सबसे सस्ता यातायात का माध्यम माना जाता है और देश की 90 फीसदी आबादी इन्हीं सस्ती रेलों में ही सफ़र करती है लेकिन एक वोगी जो सिर्फ 80 सीटों की होती है उसमें 150 से अधिक यात्री मजबूरन यात्रा करते हैं। हम इस रेल सेवा को नहीं सुधार पा रहे हैं और बंदे भारत जैसी ट्रेनों की संख्या में लगातार इजाफा कर रहे हैं। यह एक बहुत बड़ा मुद्दा है। देश में कितने प्रतिशत आबादी है जो बंदे भारत जैसी महंगी ट्रेन में सफर कर सकती है। जब कि महंगी ट्रेनों में शताब्दी और राजधानी जैसी ट्रेनों का संचालन पहले से ही हो रहा था। 
 
 मुद्दा विहीन विपक्ष भी किसी काम का नहीं होता क्योंकि आज के नेता केवल चुनाव के समय में ही जनता के बीच आते हैं। धूप, सर्दी और वर्षांत में निकलने में उन्हें परेशानी होती है। यदि हम पुराने नेताओं की बात करें तो कांग्रेस ने देश में 70 साल राज्य किया है लेकिन पुराने नेताओं ने अपने विपक्षी धर्म को बहुत ही उम्दा तरीके से निभाया था। उनमें सरकार में आने की छटपटाहट नहीं होती थी लेकिन वह सरकार के किसी ग़लत कार्य का खुलकर विरोध करते थे भले ही उसके लिए उन्हें जेल जाना पड़े। विपक्ष में एक से बढ़कर एक काबिल नेता थे लेकिन उनमें सत्ता की लोलुपता नहीं थी। जिस तरह कि आज के नेता विपक्ष को छोड़कर सत्ता की तरफ भागते दिख रहे हैं। ऐसा नहीं है कि जनता सिर्फ सरकार के कार्यों पर ही निगाह रखती हो वह विपक्ष के कार्यों को भी गहराई से अध्ययन करती है।
 
और दोनों में फर्क महसूस करती है। दलबदल भी हमारे देश की एक बहुत बड़ी बीमारी है जो कि लगातार विपक्ष को कमजोर करती है। आज हर नेता सत्ता की तरफ भागता नजर आ रहा है। इसलिए विपक्ष और कमजोर होता जा रहा है। नेताओं में कोई भी विचारधारा नहीं बची है वह समय देखकर अपनी विचारधारा को भी बदल देते हैं। पुराने नेताओं में बहुत से नेता ऐसे रहे जिन्होंने पूरा जीवन विपक्ष में ही काट दिया लेकिन सत्ता के लिए विचारधारा का त्याग नहीं किया। इसीलिए वह नेता अमर है आज भी लोग उनकी चर्चा करते हैं। उनके विचारों को सुनते हैं। लेकिन आज ऐसे नेताओं का अभाव है। केवल धर्म और जाति की राजनीति का बोलबाला है। आरक्षण को किस तरह से समायोजित किया जाए या उसमें कौन कौन से संसोधन किए जाएं कोई भी बोलने की हिमाकत नहीं कर सकता है।
 
 जितेन्द्र सिंह पत्रकार 

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