न जाने कितने मुखौटों में जिंदगी तू है

न जाने कितने मुखौटों में जिंदगी तू है

एक तरफ राजनीति है और दूसरी तरफ जिंदगी ।  दोनों के पास असंख्य मुखौटे हैं। इसीलिए न जिंदगी का असल चेहरा सामने आ पाता है और न राजनीति का।  लोग एक चेहरे पर कई चेहरे लगाए बैठे हैं। हमारे साथी कवि स्वर्गीय प्रदीप चौबे ने सियासत पर कम जिंदगी पार ज्यादा लिखा ।  वे कहते थे -
कभी जुकाम,कभी पीलिया,कभी फ़्लू है
न जाने कितने मुखौटों में  जिंदगी तू है
यकीनन जितनी दुश्वारियां जिंदगी के साथ बाबस्ता हैं ,उतनी ही दुश्वारियां सियासत के साथ भी हैं। दोनों गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर है। आप कह सकते हैं कि उस्ताद हैं। न आप जिंदगी से पार पा सकते हैं और न सियासत से। जिंदगी और सियासत के बिना काम भी नहीं चलता। आप समाज में वीतरागी होकर तो रह नहीं सकते।

 सियासत का का हर फैसला आपकी जिंदगी को प्रभावित करता है ,भले ही आपका सियासत से कोई रिश्ता हो या न हो ? आप किसी दल या विचारधारा के साथ हों या न हों ? मार तो आपको खाना ही पड़ेगी। लेकिन सवाल ये है कि आखिर कब तक और कितनी मार खाई जा सकती है ?
आजकल जिंदगी पर मौसम भी भरी पद रहा ह।  पारा 47  डिग्री को पार कर चुका है ।  जैसे  नेताओं को कोई केंचुआ आदर्श आचार संहिंता की धज्जियां उड़ाने से नहीं रोक सकता ,उसी तरह मौसम को भी   कोई अपने तेवर दिखने से नहीं रोक सकता। अकेले वृक्ष रोक सकते थे लेकिन उन्हें भी बेरहमी के साथ कत्ल किया जा रहा है।  कल ही पढ़ा की पांच साल में 53  लाख से ज्यादा छायादार वृक्ष हमारे राष्ट्रवादी,देशभक्त,अंधभक्त समाज ने काट कर फेंक दिए। अब आसमान से बरसती आग को रोकने के लिए कोई छाता हमारे पास नहीं है। एयर कंडीशनर हमें भीतर ठंडक देते हैं लेकिन बाहर वे भी इतनी आग उगलते हैं की सांस लेना मुश्किल हो रहा है। दुर्भाग्य से इस बार सियासी पारा और मौसम का पारा एक साथ चढ़ा हुआ है। इसीलिए गर्मी दो गुना ज्यादा है। परिंदों और पशुओं की तो छोड़िये किसी को इंसानों की जिंदगी की फ़िक्र नहीं है।  सारे फ़िक्र तौसवीं इन दिनों चुनाव में व्यस्त है।  कुछ लड़ रहे हैं और   बाकी के चुनाव लड़ा रहे हैं। दिल्ली में तो केजरीवाल,मालीवाल आपस में ही लड़ रहे हैं। जनता के बारे में सोचे कौन ?

लोकतंत्र में आम चुनाव सत्यनारायण कथा के अध्यायों की तरह होने लगे है।  चुनाव में मौसम  का मिजाज नहीं बल्कि सत्तारूढ़ दल की सहूलियत देखी जाती है ।  इस बार भी केंचुआ ने मतदान की तारीखें तय करते वक्त मौसम विभाग से नहीं भाजपा मुख्यालय से विमर्श किया। इसी का नतीजा है कि इस बार मतदान अपेक्षाकृत कम हो रहा है। अब आप ही सोचिये की आदमी मतदान के जरिये अपना लोकतंत्र ,अपना विचार ,अपना भविष्य बचाये या जिंदगी बचाये ? अगर मतदान के लिए घर से निकले और लू ने आपकी लू-लू कर दी तो न घर के रहिएगा और न घाट के। 'जिंदगी से हाथ धोना पड़ेंगे सो अलग। लू से मरने पर कोई भी सरकार अपने परिजनों को दो-चार लाख रूपये का मुआवजा भी नहीं देने वाली। यदि आपने बीमा करवा रखा होगा तो कम्पनी दावा स्वीकार नहीं करेगी । कहेगी-' भरी दोपहर में घर से निकले ही क्यों थे मरने के लिए ?'

अग्निदग्ध मौसम में नयी सरकार चुनना  भी लोहे के चने चबाने जैसा है ।  एक तरफ अपीलें की जा रहीं हैं कि -' पहले मतदान ,बाद में जलपान 'और दूसरी तरफ मतदान के बाद जलपान कराने वाला कोई दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा। अयोध्या में राम मंदिर में प्राण -प्रतिष्ठा समारोह में जाने के लिए निमंत्रण   के साथ घर-घर पीले चावल बांटने वाले इस बार मतदाता पर्चियां बांटने भी नहीं आये ।  सबने सोच लया है कि राम जी के नाम पर जिसे वोट देना है वो पीले चावलों या मतदाता पर्चियों का इन्तजार थोड़े ही करेंगा ? भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं ने ये मान लिया है कि जिसे अपनी बीबी का मंगलसूत्र बचाना है,पुरखों कि जमीन बचाना है ,आरक्षण बचाना है और मुसलमानों को भगाना है तो हर कोई  झक मारकर वोट डालने आएगा। अर्थात अब अटकी मतदाता की है ,भाजपा की नहीं। भाजपा को तो जो हासिल करना था सो उसने कर लिया।

प्रचंड गर्मी में हो रहे मतदान के नतीजे भी प्रचंड ही आएंगे ।  आप जब इस लेख को पढ़ रहे होंगे तब तक मतदान का पांचवां चक्र समाप्त हो चुका होगा।  टीवी चैनलों  और यू- ट्यूब चैनलों पर एक तरफ गोदी मीडिया और दूसरी तरफ गैर मोदी मीडिया की चिड़ियाँ चहकती नजर आएँगी। वे किस को हरा रही होंगी तो किसी को जिता रही होंगी। पांचवें चरण में   मोदी से लेकर गांधी तक का भविष्य दांव पर  है ।देश के भविष्य की बात कोई नहीं कर रहा और न किसी को देश के भविष्य की फ़िक्र है। सबको अपना-अपना भविष्य दिखाई दे रहा है। इतने आत्मकेंद्रित नेताओं के भविष्य के मुकाबले आपको,हमको देश के भविष्य की चिंता करना चाहिए।

राकेश अचल  

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