क्या होगा सपा, बसपा और आप का हाल

     काटेंगे वोट या बनेंगे संकट मोचक

क्या होगा सपा, बसपा और आप का हाल

  ---- जितेन्द्र सिंह
 
 
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अंतिम चरण में हैं हिंदी भाषी राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के परिणामों पर लोगों की नजर ज्यादा लगी है। मिजोरम और तेलंगाना में वहां की क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा है। उत्सुकता यह है कि इन तीन हिंदी भाषी राज्यों में जहां सपा, बसपा, आप, आजाद समाज पार्टी, और राजस्थान में बेनीवाल की पार्टी ने जिस तरह से अपने कैंडीडेट चुनाव मैदान में उतारे हैं इनका क्या हस्र होगा। क्या ये पार्टियां सम्मानजनक स्थिति में पहुंच सकेंगी या वोट कटवा साबित होंगी। राजस्थान,  मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुकाबला सीधे तौर पर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के ही बीच होता है।
 
अन्य पार्टियां इन राज्यों की तैयारी तो बड़े जोर शोर से करती हैं लेकिन जब परिणाम आता है तो निष्कर्ष यही निकलता है फलां प्रत्याशी जीत जाता लेकिन इस पार्टी ने इतने वोट काटकर उसको हरवा दिया। दरअसल इन राज्यों में इन पार्टियों के पास न तो ठीक ठाक जनाधार है और न ही संगठन यहां तक कि ये कैंडीडेट पाने के लिए भी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के असंतुष्ट नेताओं पर नज़र रखते हैं और उसी को अपना प्रत्याशी घोषित कर देते हैं। और इनके यदि 2-4 प्रत्याशी जीत भी जाते हैं तो वह अंत समय तक उन्हीं पार्टियों में वापस चले जाते हैं। जहां से वह नाराज़ होकर आए थे या फिर जिस पार्टी की सरकार बन रही होती है उस पार्टी में शामिल हो जाते हैं। और अंत में सपा, बसपा और आप जैसी पार्टियां इन राज्यों में शून्य हो जाती हैं। लेकिन अगले चुनावों में ये पार्टियां इन राज्यों में फिर से उधेड़बुन में लग जातीं हैं।
 
                           मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने पुरजोर कोशिश की कि कांग्रेस से उसका समझौता हो जाए। लेकिन सीटों को लेकर मामला फंसा हुआ समझौता नहीं हो सका। इस बीच दोनों पार्टियों के नेताओं के बीच जुबानी जंग छिड़ गई। और हालात इतने बिगड़ गए। कि समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को धमकी दे डाली कि जब लोकसभा चुनाव होंगे तब हम उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को देख लेंगे। इसी खुन्नस में अखिलेश यादव ने मध्यप्रदेश में अपने तमाम प्रत्याशी घोषित कर दिए। लेकिन कुछ एक प्रत्याशी को छोड़कर सपा के सभी प्रत्याशी वोट कटवा ही साबित होंगे। समाजवादी पार्टी जो उत्तर प्रदेश में अमेठी और रायबरेली में लोकसभा में अपना प्रत्याशी नहीं उतारती थी उसने यह भी घोषणा कर दी कि इस बार के चुनाव में पार्टी वहां भी अपने प्रत्याशी खड़े करेगी। कुल मिलाकर वह कांग्रेस को ही नुकसान पहुंचाने की कोशिश में है। फिर विपक्षी एकता के इतने बड़े बड़े वादे क्यों किए जाते हैं।
 
आम आदमी पार्टी ने विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से बिल्कुल सीट शेयरिंग की बात नहीं की क्यों कि वह जानती है कि यदि यहां सीटों को लेकर कोई समझौता हुआ तो कांग्रेस पंजाब और दिल्ली में भी इस बात को रखेगी। जबकि पंजाब और दिल्ली दोनों ही राज्य आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से ही छीने हैं। बहुजन समाज पार्टी का अपना अलग रोल है और उन्होंने पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि बसपा न तो इंडिया गठबंधन में शामिल होगी न हो किसी बड़ी पार्टी से गठबंधन करेगी। उनका कहना था कि बसपा सभी चुनाव अकेले दम पर ही लड़ेंगी।
 
                            अब सवाल उठता है कि जब इन पार्टियों का खासकर सपा और बसपा का उत्तर प्रदेश के बाहर कोई जनाधार नहीं है तो इन राज्यों में भी समान विचारधारा वाले दलों का समर्थन क्यों नहीं करती है। यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है और शायद आसानी से इसका उत्तर भी नहीं मिल पाएगा। बस इतना समझ लीजिए कि आज के समय में टिकट दिए नहीं जाते बल्कि टिकट बिकते हैं। तो यह एक कारण हो सकता है। दूसरी तरफ जब अमित शाह ने मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता सम्मेलन को सम्बोधित किया तो उनका स्पष्ट कहना था कि आप सपा बसपा को दाना पानी दीजिए ये पार्टियां ही कांग्रेस को हरा देंगे। और पिछले विधानसभा चुनाव में कई सीटों पर ऐसा हुआ भी है। जीतने वोटों से कांग्रेस प्रत्याशी की हार हुई उससे अधिक वोट सपा और बसपा ले गईं। तो क्या ये पार्टियां कांग्रेस को हराने के लिए अपना काम करती हैं। इन पार्टियों के पास इन राज्यों में न तो ठीक ठाक कार्यकारिणी है न नेता हैं और न ही असरदार जनाधार है ये केवल कांग्रेस और भाजपा के असंतुष्ट नेताओं पर नज़र रखते हैं और उन्हीं को चुनाव मैदान में उतार देते हैं। और कई बार इनके प्रत्याशी जीत भी जाते हैं। उन प्रत्याशियों की जीत भी पूरी तरह से इन पार्टियों पर ही निर्भर नहीं होती उनका अपना जनाधार मिलाकर वह वहां जीत जाते हैं। कुल मिलाकर भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ जो विपक्षी एकता के ताने-बाने बुने जाते हैं वह मात्र ढकोसला ही सिद्ध होते हैं। 
 
                         उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का ही एक हिस्सा था और मुलायम सिंह यादव ने जब राजनीति शुरू की थी तब उत्तराखंड का जन्म भी नहीं हुआ था। और जब मुलायम सिंह यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा ही था। लेकिन समाजवादी पार्टी वहां अब तक कुछ खास करके नहीं दिखा पाई है। शुरुआत में एक बार हरिद्वार सीट पर सपा प्रत्याशी जीता है। लेकिन बाद में समाजवादी पार्टी वहां कोई करिश्मा नहीं दिखा सकी। आम आदमी पार्टी का भी पिछले विधानसभा चुनाव में यही हस्र हुआ था। क्यों कि वहां की भौगोलिक स्थिति, कल्चर उत्तर प्रदेश से बिल्कुल जुदा है।
 
सपा और बसपा एक क्षेत्रीय दल हैं और उत्तर प्रदेश से बाहर इनकी पहचान बहुत ज्यादा नहीं है। और न ही इनके पास दूसरे राज्यों में कोई संगठन है और न ही नेता। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में हिंदी भाषी राज्यों में इन पार्टियों ने अपने प्रत्याशी अवश्य खड़े कर दिए लेकिन यह सिर्फ कांग्रेस को नुक़सान पहुंचाने के अलावा कोई काम नहीं कर सकते हैं। लेकिन राजनीति में यह सब चलता रहता है। लेकिन अब बात आती है कि इतने मनमुटाव के वावजूद क्या लोकसभा चुनाव में स्थित समान्य रह सकती है। इसकी संभावना बहुत ही कम नजर आ रही हैं।

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