गौ आधारित राष्ट्र की आर्थिक संरचना
यथार्थ भारतीय संस्कृति में धरती, गौ और जननी को मां का स्थान दिया गया है।
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शारीरिक स्वास्थ्य एवं निरोगिता में गौदुग्ध, घृत एवं दही के सेवन का महत्व सर्वविदित है। गाय के गोबर में परमाणु विकिरणों तक को निरस्त करने की क्षमता को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित किया जा चुका है।
स्वतंत्र प्रभात-
गौ आधारित जीवन संरचना हमारा मूलाधार है, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। इसके इर्द-गिर्द ही हमारी अर्थव्यवस्था घूमती है। यथार्थ भारतीय संस्कृति में धरती, गौ और जननी को मां का स्थान दिया गया है। भारतवर्ष सदैव से कृषि और कृषि प्रधान राष्ट्र रहा है। इस राष्ट्र की आर्थिक एवं मानव जीवन की संरचना का केंद्र बिंदु गौ आधारित रहा है। इसे सुरक्षित और संरक्षित करने की जिम्मेदारी अब हमारी है।
यथेष्ठ, हमारे मंत्र दृष्टा ऋषि ने गौमाता के महत्व को समझते हुए प्रत्येक मनुष्य के लिए गौपालन और गौसंरक्षण का सूत्र दिया है। गौ आधारित आर्थिक संरचना के बल पर यह भारत भूमि शस्य- श्यामला और धन-धान्य से परिपूर्ण रही। ऐसी गौ आधारित आर्थिक संरचना के बल पर यह भारत राष्ट्र सोने की चिड़िया कहलाता था। "जैसी गौमाता की स्थिति होती है वैसी हम सबकी एवं समग्र विश्व की परिस्थिति निर्माण होती है"।
स्तुत्य, समुद्र मंथन के दौरान निकले 14 रत्नो में से एक कामधेनु गाय भी थी। जिसे भगवान श्री कृष्ण अपना स्वरूप बताते है। गौपालन वैदिक समाज एवं संस्कृति का केन्द्रीय तत्व था। गौमाता का दुग्ध, दही, घृत, गोबर एवं गौमूत्र से तैयार पंचगव्य को साधना एवं औषधि के एक प्रमुख घटक के रूप में प्रयोग किया जाता था, जिसका चलन आज भी जारी है। ग्रामीण जीवन का तो यह आधारस्तंभ भी है।
शारीरिक स्वास्थ्य एवं निरोगिता में गौदुग्ध, घृत एवं दही के सेवन का महत्व सर्वविदित है। गाय के गोबर में परमाणु विकिरणों तक को निरस्त करने की क्षमता को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित किया जा चुका है। गौमूत्र औषधीय गुणो से भरा हुआ है। ऐसे ही गौ का संग सानिध्य एवं इसके उत्पादो का सेवन मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से व्यक्ति का कायाकल्प करने वाला पाया गया है।
अभिभूत, गौपालन पर आधारित संस्कृति के माध्यम से परिवार एवं सामाज में सात्विक भावों का प्रसार, आज के वैचारिक प्रदूषण से दूषित होते युग में एक बहुत बड़ा कार्य है। साथ ही गौ-उत्पाद आर्थिक स्वावलंबन के सुदृढ़ आधार हो सकते है। शोध के आधार पर जैविक कृषि की सर्वांगिण सफलता देशी नस्ल की गाय पर केन्द्रित मानी जा रही है, जिसमें गाय के गोबर से लेकर गौमूत्र का बहुतायत में उपयोग किया जाता है। इन सब लाभो के आधार पर ग्रामीण जीवन के उत्थान से जुड़े कार्यक्रमो की केन्द्रीय धूरी के रूप में गोपालन की उपयोगिता स्वयंसिद्ध है, लेकिन देश में इसकी वर्तमान स्थिति बहुत संतोषजनक नही है।
अलबत्ता, आज भी व्यापक स्तर पर गौपालन उपेक्षा का शिकार है। शहरो में अवारा पशु के रूप में जहाॅं-तहाॅ इसे टहलते देखा जा सकता है। कुछ अज्ञानतावश तो कुछ व्यक्ति की अदूरदर्शिता एवं लोभवृत्ति के कारण गौपालन में विकृति आ चली है। गाय से अधिक से अधिक दूध एवं लाभ लेने की वृत्ति के चलते पारंपरिक रूप से उपलब्ध देसी गायों की उपेक्षा हो रही है तथा कुछ नस्ले तो विलुप्त के कगार पर है।
इनके स्थान पर ऐसी नस्लो की गायों के पालन का चलन बढ़ चला है, जिनसे अधिक दूध एवं तात्कालिक आर्थिक लाभ मिलता हो, लेकिन दूरगामी दृष्टि से इनसे लाभ की तुलना में हानि अधिक हो रही है। न इसके दुग्ध में वो स्वास्थ्यवर्धक गुण रहते है, न ही सात्विकता का भाव, जिस कारण इसका स्वास्थ्यवर्धक एवं आध्यात्मिक महत्व माना जा रहा है। इस परिस्थिति में शुद्ध देशी नस्लों के गौधन के संवर्द्धन एवं प्रसार की आवश्यकता है। आवश्कयता हर घर में गौपालन तथा हर ग्राम में गौशालाओं की स्थापना की है। तथा इनको सवंर्द्धित करने की है, जिससे स्वावलंबी ग्रामीण जीवन, आत्मनिर्भर भारत का सपना साकार हो सके।
हेमेन्द्र क्षीरसागर, पत्रकार, लेखक व स्तंभकार
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