भ्रष्ट सरकारी तन्त्र को दुस्साहसी बनाने वाला शासनादेश

भ्रष्ट सरकारी तन्त्र को दुस्साहसी बनाने वाला शासनादेश

भ्रष्ट सरकारी तन्त्र को दुस्साहसी बनाने वाला शासनादेश


डॉ.दीपकुमार शुक्ल 

लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत हर पांच वर्ष में एक सरकार जाती है और दूसरी आती है| प्रत्येक सरकार सरकारी तन्त्र से सुचारू रूप से काम करवाने का न केवल संकल्प बार-बार दोहराती है बल्कि हर सम्भव प्रयास करती है कि प्रथम श्रेणी से लेकर चतुर्थ श्रेणी तक के कर्मचारी अपने दायित्व का ईमानदारी पूर्वक निर्वाहन करें| लेकिन दुर्भाग्य कहें या विडम्बना कि जैसे जैसे लोकतान्त्रिक भारत की आयु बढ़ रही है वैसे वैसे सरकारी तन्त्र निकम्मा और नैतिक आचरण से हीन होता जा रहा है| किसी भी शिकायत या समस्या का संज्ञान लेकर उस पर कार्यवाही करने की अपेक्षा शिकायतकर्ता को विभिन्न माध्यमों से परेशान करके हतोत्साहित करना ही पूरे तन्त्र का एकमात्र उद्देश्य बन चुका है| 

इसके मूल में 9 मई 1997 को उत्तर प्रदेश शासन द्वारा जारी शासनादेश संख्या 13/1/97-का-1/1997 है| जो किसी भी अधिकारी के विरुद्ध की गयी शिकायत के परिप्रेक्ष्य में उसका पूर्ण रूपेण संरक्षण करता है| इस शासनादेश की भाषा इतनी सरल और भावपूर्ण है कि पूरा आदेश पढ़ने के बाद हर कोई इसे प्रथम दृष्टया उचित कहने में संकोच नहीं करेगा| परन्तु इसका व्यावहारिक पक्ष उतना ही जटिल और लोकतन्त्र को मुंह चिढ़ाने वाला है| यही वह शासनादेश है जिसके चलते सूचना अधिकार जैसा प्रभावी कानून मजाक बनकर रह गया है| सूचना आयुक्तों के यहाँ द्वितीय अपीलों की लम्बी श्रंखला का कारण यही शासनादेश है| यह वही शासनादेश है जिसके कारण प्रतिदिन उच्च अधिकारियों के कार्यालय से लेकर मुख्यमन्त्री के जनता दरबार तक अनगिनत फरियादियों की भीड़ जमा होती है| एक ही शिकायत के निस्तारण हेतु उच्च अधिकारियों से लेकर राष्ट्रपति तक को शिकायतकर्ताओं द्वारा पत्र-दर-पत्र प्रेषित किये जाते हैं| इसके बाद भी उनकी समस्या का समाधान नहीं होता है| वहीं जिस अधिकारी के विरुद्ध शिकायत की जाती है वह पूर्ण निर्भय होकर भ्रष्टाचार के निते नये कारनामे करता रहता है|

शासनादेश संख्या 13/1/97-का-1/1997, 9 मई 1997 को कार्मिक अनुभाग-1 उत्तर प्रदेश शासन के तत्कालीन विशेष सचिव के.एम.लाल की आज्ञा से सचिव जगजीत सिंह द्वारा प्रदेश के समस्त प्रमुख सचिवों/सचिवों, विभागाध्यक्षों/प्रमुख कार्यालयाध्यक्षों एवं सचिवालय के समस्त अनुभागों तथा सतर्कता विभाग के प्रमुख सचिव को प्रेषित किया गया था| “समूह ‘क’ (श्रेणी-1) के अधिकारियों के विरुद्ध प्राप्त शिकायती-पत्रों का निस्तारण” विषय वाले इस शासनादेश के अनुसार सामान्य व्यक्तियों से प्राप्त शिकायतों के सम्बन्ध में शिकायतकर्ता को शपथ-पत्र तथा शिकायत की पुष्टि हेतु समुचित साक्ष्य उपलब्ध कराने के साथ जाँच अधिकारी के समक्ष बयान देने हेतु प्रस्तुत होने का निर्देश दिया जाता है| इसके बाद जाँच की लम्बी प्रक्रिया कच्छप गति से आगे बढ़ती है| कहने को तो यह शासनादेश मात्र समूह ‘क’ (श्रेणी-1) के अधिकारियों के विरुद्ध प्राप्त शिकायतों के सन्दर्भ में है| परन्तु इसका इस्तेमाल न केवल हर छोटे-बड़े अधिकारी को बचाने में होता है बल्कि शिकायत के निस्तारण को लम्बित और प्रभावहीन बनाने में भी इसको ढाल और तलवार के रूप में प्रयुक्त किया जाता है| गम्भीर से गम्भीर मामले का शिकायती-पत्र प्रेषित करने के बाद प्रथम दृष्टया उस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता| लम्बी प्रतीक्षा के बाद जब शिकायतकर्ता उच्च अधिकारियों को पत्र लिखता है या सूचना अधिकार का प्रयोग करता है|

 तब उसको इस शासनादेश का हवाला देते हुए शपथ-पत्र एवं साक्ष्यों सहित बयान देने हेतु जाँच अधिकारी के समक्ष पेश होने का निर्देश मिलता  है| अनेक मामलों में हर किसी के पास साक्ष्य उपलब्ध नहीं होते और यदि हुए भी तो महीनों की समयावधि तक उन्हें सुरक्षित रख पाना मुश्किल होता है| इसके बाद पैसा तथा समय लगाकर शपथ-पत्र बनवाना और फिर बयान देने हेतु जाँच अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत होना, सामान्य या रोज खाने-कमाने वाले व्यक्ति के लिए दुरूह कार्य जैसा है| कोई शिकायतकर्ता यदि साहस करके पूरी कवायद करता भी है तो उसे बयान के नाम पर उलझाने का प्रयास होता है| पहले एक अधिकारी बुलाता है फिर दूसरा बुलाता है| अवसर मिलते ही यह सिद्ध कर दिया जाता है कि शिकायतकर्ता की शिकायत के प्रति कोई रूचि नहीं है| इस बीच जिसके विरुद्ध शिकायत होती है वह साम, दाम, दण्ड, भेद द्वारा शिकायतकर्ता पर दबाव डालकर शिकायत वापस करवाने या फिर मामले को फर्जी सिद्ध करवाने का प्रयास करता है| कई मामलों में तो जाँच उसी अधिकारी को सौंप दी जाती है, जिसके विरुद्ध शिकायत होती है| कुल मिलाकर शिकायत को प्रभावहीन बनाकर दोषियों को बचाने का खुला खेल इस शासनादेश की आड़ में चल रहा है| 

इस सन्दर्भ में लेखक का निजी अनुभव है| बीते अगस्त माह में लेखक ने अपने पिताजी को खांसी की समस्या के चलते कानपुर के मन्नत हॉस्पिटल में भर्ती करवाया था| इस अस्पताल के संचालक मनीष सचान को क्षेत्रीय जनों की तरह लेखक भी एम.एम.बी.एस. डॉक्टर समझता था| मनीष सचान ने स्वयं को कानपुर के सरकारी अस्पताल के.पी.एम. हॉस्पिटल का सरकारी डॉक्टर बताया था| जबकि बाद में मालूम हुआ कि वह वहाँ चिकित्सक न होकर फार्मासिस्ट के पद पर कार्यरत है| क्षेत्रीय जनों को वेवकूफ बनाकर सुबह-शाम मन्नत हॉस्पिटल में ओपीडी करने वाले इस तथाकथित डॉक्टर के गलत इलाज से 30 अगस्त को लेखक के पिता की मृत्यु हो गयी| अतः लेखक ने अपर निदेशक चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण को पत्र भेजकर उक्त चिकित्सक तथा ऐसे सभी चिकित्सकों को प्रश्रय देकर आम जन के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने वाले चिकित्साधिकारियों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही करने की मांग की| इस बीच पिताजी को श्रद्धांजलि देने लेखक के घर पहुँचे क्षेत्रीय विधायक तथा वर्तमान विधानसभा अध्यक्ष सतीश महाना को भी उक्त प्रकरण से अवगत कराया गया| उन्होंने तत्काल मुख्य चिकित्साधिकारी को फोन करके पन्द्रह दिनों में कार्यवाही करने का निर्देश दिया| 

इसके बाद भी जब कुछ नहीं हुआ तब लेखक ने सूचनाधिकार के तहत अपनी शिकायत के सन्दर्भ में जानकारी मांगी| तब अपर निदेशक कार्यालय द्वारा पत्र भेजकर उपरोक्त शासनादेश का हवाला देते हुए शपथ-पत्र एवं साक्ष्य सहित बयान देने हेतु उपस्थित होने का निर्देश दिया गया| इस खानापूर्ति के लगभग दो माह बाद अपर मुख्य चिक्तिसाधिकारी के कार्यालय में पुनः साक्ष्य सहित बयान हेतु बुलाया गया| इस दिन 23 दिसम्बर था| यहाँ गौरतलब है कि लेखक ने अपनी शिकायत में स्वास्थ्य विभाग के जिन अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही करने की मांग की थी, उनमें अपर मुख्य चिकित्साधिकारी भी एक हैं| क्योंकि प्राईवेट अस्पतालों का नोडल अधिकारी प्रायः अपर मुख्य चिकित्साधिकारी को ही बनाया जाता है| जिनकी सहायता से मुख्य चिकित्साधिकारी प्राईवेट अस्पतालों के मानक की निगरानी करते हैं| लेखक के एक पत्रकार मित्र भी साथ गये थे| जो कि पिताजी की मृत्यु वाले दिन बराबर साथ थे| अपर मुख्य चिक्तिसाधिकारी के कार्यालय में पहुँचते ही सर्वप्रथम अकेले बयान देने का दबाव बनाया गया| जबकि लेखक चाहता था कि उसके मित्र साथ रहें| अतः बयान लेने वाले अधिकारी ने प्रोपेगंडा बनाते हुए बयान लेने से मना कर दिया|

 इसके बाद अपर मुख्य चिकित्साधिकारी द्वारा पत्र प्रेषित करके लेखक को पुनः बयान देने हेतु 17 जनवरी को बुलाया गया| जबकि यह पत्र 19 जनवरी को प्रेषित किया गया था| जो कि 20 जनवरी को प्राप्त हुआ| पत्र में स्पष्ट रूप से लिखा गया था कि यदि आप नहीं आये तो समझा जायेगा कि शिकायत के सम्बन्ध में आपको कुछ नहीं कहना है| जाहिर है जब 17 तारीख को बुलावे की सूचना 20 तारीख को प्राप्त होगी तब वही होगा जो पत्र प्रेषक चाहेगा| हुआ भी वही| अगले ही दिन शिकायत को निराधार बताकर प्रकरण को समाप्त करने की संस्तुति कर दी गयी| जब एक पत्रकार के मामले में यह हो सकता है तब फिर सामान्य व्यक्ति के साथ क्या होता होगा, यह स्वतः समझा जा सकता है| आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबे सरकारी तन्त्र को दुस्साहसी बनाने वाले उपरोक्त शासनादेश संख्या 13/1/97-का-1/1997 के रहते क्या सामान्य व्यक्ति न्याय की अपेक्षा कर सकता है? यह प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा में है|   

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