भोजन पद्धति में लगातार 'उठान' स्वास्थ्य और संस्कृति के लिए 'नुकसानदेह'
भारत एक ऐसा देश है जहां पर सनातन काल से ऋषि परम्परा को आधार मानकर हर कार्य किया जाता है
भारत एक ऐसा देश है जहां पर सनातन काल से ऋषि परम्परा को आधार मानकर हर कार्य किया जाता है। और यहां की आध्यात्मिक परम्परा और पद्धति को अपने विज्ञान की कसौटी पर सही साबित करने के लिए विश्व के महान वैज्ञानिकों ने कार्य किया और उनको मानना पड़ा कि भारतीय संस्कृति सच में एक अनूंठी संस्कृति है। और इसी वजह से भारत ने सनातन काल से ही विश्व गुरू की पदवी को सुशोभित करता रहा। लेकिन आज देश का इतना दुर्भाग्य है कि हम अपनी सनातन संस्कृति और संस्कार को छोडकर दूसरों के संस्कृति और संस्कार को आत्मसात कर रहे है। आज के वैज्ञानिक युग में हम भी विश्व के अन्य देशों की तरह बेशक तरक्की करे लेकिन यह ध्यान रहे कि अपना संस्कार और संस्कृति कभी भी कमजोर न होने दे नही तो हमारी सारी तरक्की और सफलता बेकार हो जायेगी।
आज देश में एक विषय को लेकर काफी चर्चा देखने को मिलती है वह है भोजन पद्धति। कुछ लोग पंगत (पंक्ति) में बैठकर भोजन करने की बात को सही मानते है तो कुछ का तर्क है कि बुफे सिस्टम ही बढ़िया है। हालांकि लोग इस पर अपने अपने सुविधा के हिसाब से भी समर्थन करते है लेकिन सच्चाई यह है कि जब हम अपनी सनातन संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति के तरफ उन्मुख हो रहे है तो बेशक भोजन करने के तरीके में बदलाव नही करते है तो हमें पाश्चात्य समर्थकों के तानों का डर बना रहता है
जो हमारी कमजोर मानसिकता का द्योतक है। वैसे लोगों को सभी कार्य खुद के सोच समझ से ही करना चाहिए न कि किसी के कुछ कहने की 'आशंका' से प्रभावित होकर अपने इरादे में बदलाव करना चाहिए। जैसा कि हम सभी को पता है कि सनातन परंपरा में भोजन से पहले और भोजन करने के बाद के लिए कुछ नियम बताए गये हैं। अन्न देवता की प्रसन्नता और उनका आशीर्वाद पाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को इसे जरूर करना चाहिए। लेकिन लोग सोचते है कि इन झंझटों में पडने से क्या मतलब? यही तो हमारी भूल होती है।
जो भी भारतीय संस्कृति का अंग है उसका आध्यात्मिक महत्व तो है ही साथ में वैज्ञानिक महत्व भी है।जैसे थाली के चारों ओर तीन बार जल छिड़कने की परंपरा रही है। जिसका आध्यात्मिक अभिप्राय तो अन्न देवता का सम्मान करना होता है। और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसे में जल से आचमन करने के कारण थाली के चारों ओर घेरा सा बन जाया करता है। जिसके चलते थाली के पास कीटाणु नहीं आया करते है। साथ में भारतीय संस्कृति में भोजन सामग्री सबसे पहले अग्निदेव को समर्पित की जाती है। इसके बाद पंचवलिका विधान है। जिसमें गाय, कुत्ते, कौए, चींटी ओर देवताओं के लिए भोजन निकालने का विधान है। जो बुफे सिस्टम में संभव ही नही है। सनातन परंपरा में भोजन के पहले मंत्र पढ़ने की परंपरा चली आ रही है। जिसमें नाम मात्र के लोग मंत्र पढते है जबकि अधिकांश लोग तो आधुनिकता की दौड़ में इन सबके चक्कर में पड़ना अपना टाइम वेस्ट करना मानते है।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना।।
ॐ सह नाववतु।
सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु।
मा विद्विषावहै॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
भारतीय समाज में लोगों को पंगत में बैठा कर खाना खिलाने की प्रथा क्यों थी और वर्तमान के बुफे सिस्टम में क्या खराबी है थोड़ा सा इस पर नजर दौड़ाया जाए तो कुछ चीजे स्वयं स्पष्ट हो जाती है। हालांकि इनमें समय के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। पंगत प्रथा को भारतीय भोजन की दैवीय भोजन पद्धति भी कहा जाता है।
पहले शादी समारोह या अन्य कार्यक्रम में लोग जमीन पर बैठकर ही बडे ही भाव से भोजन करते थे और परोसने वालों की भी एक अलग छवि दिखती थी कि प्रेम से थोड़ा सा अधिक भी खिलाने में कुरेज नही करते थे। जो बुफे सिस्टम में देखने को नही मिलता है। शादी हो या अन्य कार्यक्रम जिसमें परिवार, गांव और रिश्तेदार मिलकर खाना बनाने से लेकर खाना खिलाने तक की जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाते और एकजुटता और प्रेम का गजब उदाहरण देखने को मिलता। लेकिन अब लोग खुद में इतने व्यस्त हो गये है कि लोगों के पास समय कम है और लोग केवल खानापूर्ति के लिए लोगो के यहां समय दे पाते है।
इसलिए अब सब कुछ भाड़े का हो गया है। जिससे पंगत प्रथा धीरे धीरे समाप्त हो रही है। ऐसी मान्यता है कि भोजन करने के लिए जमीन से अधिक शुद्ध और पवित्र स्थान कोई अन्य नहीं हो सकता। जमीन पर खाना खाने के लिए जब बैठते है तो वह एक आसन (सुखासन) होता है। जिससे होने वाले लाभ शरीर को मिलते है, खाना भी आसानी से पचता है। पैर मोड़ कर बैठने से शरीर मजबूत और लचीला रहता है। रक्त प्रवाह शरीर के सभी हिस्सों में बेहतर होता है। जोड़ों में दर्द की समस्या कम होती है, शरीर का आकार सही बना रहता है। वजन भी नियंत्रण में रहता है। जब पंगत में साथ बैठ कर खाते है तो आपसी मेलजोल भी बढ़ता है। पारस्परिक द्वेष दूर होता है। अपनों को अपनों के द्वारा जब खाना परोस कर खिलाया जाता है तो प्यार बढ़ता ही नहीं बल्कि खाने में भी प्यार छलकता है। आज भी कुछ जगह पर लोग जमीन पर बैठाकर खाना खिलाते है। जो बहुत ही अच्छा लगता है। यह परम्परा केवल अब कुछ ही जगह देखने को मिलती है।
यदि बुफ़े सिस्टम की बात की जाए तो इसमें कोई बुराई तो नहीं है। लेकिन कुछ खामियाँ जरूर है। आजकल समय की कमी व पहनावा इस तरह का हो गया है कि लोग बैठने से कतराने लगे है। ज़्यादातर किसी भी समारोह में बुफ़े में ही खाना खिलाया जाता है। सभी अपने में व्यस्त होते है। किसी के पास समय नहीं है। खड़े होकर खाना खाने से शरीर पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। खड़े होकर खाने से पैर,पेट और आंतों पर तनाव पड़ता है। जिससे घुटने, कमर दर्द, कब्ज, गैस, अपच जैसी बीमारियों के होने की आशंका होती है। खड़े होकर खाने से हृदय पर भार पड़ता है, जिससे हृदय रोगों की संभावना बढ़ती है। पैरों में जूते-चप्पल पहने होने के कारण पैर गरम रहते है, जिससे जठराग्नि मंद हो जाति है और पाचन क्रिया सही नहीं होती। लोग आलस के चलते एक बार में ही भर-भर के खाना ले लेते है और अत्यधिक खा लेते है साथ ही खाना बर्बाद भी बहुत होता है। बार-बार सभी झूठे हाथों से ही खाना लेते है, जिससे खाने की पवित्रता भी नष्ट होती है जिसका सीधा असर खाने वाले की मानसिकता पर पड़ता है।
साथ में ऐसा भी देखा जाता है कि कुछ लोग तो इस सिस्टम की वजह से खा नही पाते है। क्योकि काउन्टर पर रखे व्यंजन पर भारी भीड़ लगी रहती है। कुछ लोग संकोच वश भी नही खाते है। सबसे खास बात यह होती है कि यहां पर वह प्रेम नही रहता जो प्रेम पंगत में बैठकर एक एक लोगों से एक एक चीज के लिए पूछा जाता है। हालांकि लोग अपने सुविधानुसार ही व्यवस्था करते है। चाहे पंगत हो या बुफे लेकिन खाना खाना एक महत्वपूर्ण क्रिया है इसमें प्रेम, स्वच्छता और शांति बेहद जरूरी है। लेकिन समाज में भोजन का स्तर धीरे धीरे पंगत से उठकर टेबल तक और टेबल से उठकर हथेली तक पहुंच गया है। जो सच में भारतीय संस्कृति और परम्परा के लिए घातक है।
संतोष कुमार तिवारी
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