बालिका दिवस पर उठी अधिकारों की माँग, पत्र भेजकर प्रधानमंत्री से किया अनुरोध

बालिका दिवस पर उठी अधिकारों की माँग, पत्र भेजकर प्रधानमंत्री से किया अनुरोध

माधौगढ़, जालौन


राष्ट्रीय बालिका दिवस/अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के अवसर  पर किशोरी बालिकाओं ने प्रधानमंत्री को लिखे  पोस्ट कॉर्ड्स 12वीं कक्षा तक की अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा के मौलिक अधिकार की मांग की गई। राष्ट्रीय बालिका दिवस के अवसर पर , जिसे जनवरी 24 को  अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है, चैंपियंस अथवा राइट टू एजुकेशन फोरम के संगठन का नाम यहां जोड़ें,  जो 'चैंपियंस फॉर गर्ल्स एजुकेशन'  का हिस्सा है, लड़कियों का शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009  के 12 वी तक उपलब्धता के अधिकार की मांग उठाने में सहयोग कर रहे हैं ।  'चैंपियंस फॉर गर्ल्सएजुकेशन'बालिका शिक्षा के लिए कार्यरत संस्थाओं के एक नेटवर्क है जो राइट टू एजुकेशन फोरम एवं स्कोर  नेटवर्क  (यूपी) के साथ मिल कार्य करते हैं। "यदि 12वी तक शिक्षा को निःशुल्क और अनिवार्य बना दिया जाए, तो हम में से अनेक लड़कियां, जो निजी स्कूल की फीस वहन करने में सक्षम न होने या कक्षा 8 के बाद सरकारी स्कूल की अनुपलब्धता के कारण बीच में ही स्कूल छोड़ देती हैं , वे भी अपनी शिक्षा पूरी कर पाएंगीं। ” राज्य का  नाम लिखें  के  संख्या जिलों से सैंकड़ों  लड़कियों ने 12 वी तक शिक्षा के अधिकार के लिए चल रहे अभियान के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री को अपने अनुरोधों के साथ पोस्टकार्ड भेजे। लड़कियां अपने-अपने क्षेत्र के स्थानीय डाकघरों में इकट्ठी हुईं और अपनी मांगों में एकजुटता के संकेत के रूप में एक साथ पोस्टकार्ड भेजे।

यह 'चैंपियंस फॉर गर्ल्स एजुकेशन’ की सदस्य संस्थाओं  द्वारा आयोजित किए जा रहे शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को 12  वी तक प्रदान करने की मांग करते हुए राष्ट्रव्यापी अभियान के एक हिस्से के रूप में किया गया है।  30,000 से ज्यादा लड़कियों ने असम, बिहार और उत्तर प्रदेश (उत्तर प्रदेश के छब्बीस जिले, बिहार के 20 जिले और असम के पांच जिले) के  51 जिलों से पोस्टकार्ड हस्ताक्षर में भाग लिया। यह अभियान द राइट टू एजुकेशन फोरम और अन्य सहयोगी संगठनों के सहयोग से पूरे भारत के 10 राज्यों में आगे बढ़ाया जाएगा। इस प्रक्रिया में लड़कियों के साथ परामर्श आयोजित किये गए , जिसने असम, बिहार और उत्तर प्रदेश की लड़कियों को अपनी समस्याओं को साझा करने, अपनी राय व्यक्त करने, शिक्षा प्राप्त करने में अपनी चुनौतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और अपनी मांगों को स्पष्ट करने का अवसर मिला। उनका उद्देश्य इन मांगों को स्थानीय अधिकारियों/जन प्रतिनिधियों/विभिन्न राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों के पास ले जाना है ताकि उनकी आवाज सुनी जा सके।

“सरकारी स्कूल हमारे स्कूल से लगभग 12 किमी दूर है। कई लड़कियां वहां नहीं जातीं, क्योंकि उनके लिए इतनी दूरी तय करना असुरक्षित माना जाता है। हालांकि निजी स्कूल केवल 3-4 किमी दूर है, लेकिन हर कोई उनका व्यय  वहन नहीं कर सकता। हालांकि मैं भाग्यशाली हूं कि मैं निजी स्कूल में अपनी पढ़ाई जारी रखने में सक्षम हूं, मेरी  कई सहेलियों को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी है। एक बार जब वे स्कूल छोड़ देती हैं, तो वे या तो बाल श्रम में शामिल हो जाती हैं या उनकी शादी हो जाती है और एक बार शादी हो जाने के बाद, वे अक्सर शिक्षा प्रणाली और स्कूलों के लिए अदृश्य हो जाती  हैं। ”कोविड 19वैश्विक संकट ने लड़कियों की शिक्षा की मौजूदा निराशाजनक स्थिति को और खराब कर दिया है, खासकर माध्यमिक स्तर पर। आस-पड़ोस में सरकारी माध्यमिक विद्यालयों की कमी एक प्रमुख कारण है कि बच्चे माध्यमिक स्तर पर स्कूली शिक्षा बंद कर देते हैं, खासकर लड़कियां। अधिकांश माध्यमिक विद्यालय जिला या ब्लॉक मुख्यालय में स्थित हैं। दूरदराज के क्षेत्रों जैसे जंगल, रेगिस्तान, पहाड़ी और पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित बच्चों  स्कूल  पहुंचना अधिक कठिन हो जाता है।शिक्षा की गुणवत्ता में कमी, शिक्षकों कीअनुपस्थिति, अनुपयुक्त शाला भवन, शौचालयों की अनुपस्थिति, सुरक्षा संबंधी चिंताएं, नकारात्मक सामाजिक मानदंड, माता-पिता का लड़कियों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया, माता-पिता की सामाजिक-आर्थिक स्थिति कुछ प्रमुख चुनौतियां हैं जो लड़कियों की शिक्षा में बाधा डालती हैंl

यदि,  एक बार स्कूल छोड़ने  पर, लड़कियों को अक्सर घर के काम में लगा दिया जाता है, और उनकी जल्दी शादी कर देने या मजदूरी  करने के लिए मजबूर किए जाने या मानव तस्करी के जोखिम अधिक हो जाते हैं ।गौरतलब है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई), 2009 प्रारंभिक शिक्षा को 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए मौलिक अधिकार बनाता है। इसके कार्यान्वयन के एक दशक के अनुभव से पता चला है कि इसके कार्यान्वयन में कई कमियों  के बावजूद, प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने के लिए कानूनी जनादेश होने के कारण राज्यों ने इसे लागू करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किये हैं तथा कार्यान्वयन के  प्रयास भी हुए हैं । हालांकि यू डाइस डाटा 2019-20 के मुताबिक कानून लागू होने के 11 साल बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर महज 25.5 फीसदी स्कूलों में ही कानून लागू हो पाया है। यह आंकड़ा बिहार और उत्तर प्रदेश में क्रमशः 11.1 और 27.7 फीसदी है। जाहिर है, न केवल इस कानून के क्रियान्वयन के लिए बजट में बढ़ोत्तरी के साथ एक ठोस रोडमैप की जरूरत है, बल्कि कानून के दायरे को बढ़ा कर 3 से 18 वर्ष तक करने और इस तरह से देश के करोड़ों बच्चों के लिए शिक्षा के मौलिक हक की गारंटी करने की जरूरत है।

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