यूनिवर्सल सोशल कॉन्ट्रैक्ट की शपथ एवं घोषणा । – जावैद अब्दुल्लाह ,अध्यक्ष- वर्ल्ड नेचुरल डेमोक्रेसी। संसदवाद का अंतरराष्ट्रीय दिवस पर विश्व सरकार की सम्भावना: एक विमर्श

प्रारंभ में, संगठन व्यक्तिगत सांसदों के लिए था, लेकिन तब से यह संप्रभु राज्यों के संसदों के एक अंतरराष्ट्रीय संगठन में बदल गया

स्वतंत्र प्रभात वाराणसी


। मनीष पांडेय

30 जून, पार्लियामेंट डे ऑफ़ पार्लियामेंट्री मनाने का दिन संयुक्त की महासभ द्वारा नामित किया गया । जिसकी घोषणा 2018 में की गयी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने प्रस्ताव में राष्ट्रीय योजनाओं और रणनीतियों में संसदों की भूमिका को मान्यता दी और राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने पर भी जोर दिया । अंतर-संसदीय संघ (Inter-Parliamentary Union) एक वैश्विक अंतर-संसदीय संस्था है जिसकी स्थापना 1889 में फ्रैडरिक पैसी और विलियम रैंडल क्रेमर ने की थी । यह राजनीतिक बहुपक्षीय वार्ता का पहला स्थायी मंच था । प्रारंभ में, संगठन व्यक्तिगत सांसदों के लिए था, लेकिन तब से यह संप्रभु राज्यों के संसदों के एक अंतरराष्ट्रीय संगठन में बदल गया ।
संयुक्त राष्ट्र अपने वेबसाइट सन्देश में कहता है कि दुनिया के हर देश में प्रतिनिधि सरकार का कोई न कोई रूप होता है । संसदीय प्रणाली दो श्रेणियों में आती है: द्विसदनीय (संसद के दो सदनों के साथ) और एकसदनीय (एक सदन के साथ) । संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट पर जारी सूचना के मुताबिक़ यूएनओ के193 देशों में से, 79 द्विसदनीय हैं और 114 एकमुखी हैं, जो संसद के 46,000 से अधिक सदस्यों के साथ संसद के कुल 272 सदन हैं । दुनिया की 25% संसद सदस्य महिलाएं हैं । दुनिया के 28.1% संसद सदस्य 45 वर्ष से कम आयु के हैं । इस अवसर पर मैंने डब्लूएनडी संस्था के अध्यक्ष की हैसियत से 22 अप्रैल 2020 को सार्वभौमिक/प्लेनेटरी सोशल कॉन्ट्रैक्ट परिकल्पना प्रस्तुत की जिसे लोगों ने काफ़ी सराहा और अब यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ जाने वाला है । तो प्रस्तुत है, नये सार्वभौमिक/प्लेनेटरी सोशल कॉन्ट्रैक्ट परिकल्पना का पूर्ण विवरण ।
प्यारी दुनिया ! लेखक एवं, शिक्षाविद्, ब्रैंडर मैथ्यूज़ ने अपनी किताब ‘American Character’ (1906) में ग्रही चेतना, के विषय में कहा था, “मनुष्य पृथ्वी ग्रह के समाज का वैसा ही सदस्य है, जैसा कि वे अपने राष्ट्र, प्रान्त, ज़िले, द्वीप, शहर या गाँव का सदस्य है ।” लेकिन मछली जब तक टकराती नहीं है, रास्ता नहीं बदलती । दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, का एक जागरूक प्रहरी होने के नाते, सामूहिक विनाश से पहले चेतना, और सचेतकर होकर सामूहिक सुरक्षा, की तैयारी में लग जाना युग धर्म है, वक़्त की अहम ज़िम्मेदारी है । हम सभी जानते हैं कि, आज ग्लोबल वार्मिंग का संकट, पानी का संकट, बेरोज़गारी का संकट, तनाव का संकट, क्लाइमेट चेंज का संकट, ग़रीबों के लिये भोजन का संकट, ग्लेशियर का संकट, जैव विविधता का संकट, बाढ़, सुनामी, भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं का संकट और अब ये COVID-19 जैसी महामारी का संकट; न जाने और कितने वैश्विक संकट हैं जो देखते-देखते पूरी मानवता को अपनी चपेट में लेने वाले हैं । हम इन्सान अब भी न जागे तो हो सकता है, हम फिर कभी न जाग पायें ।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव, माननीय एंटोनियो गुटेरेस महोदय, एवं अन्य सभी सदस्य ! वर्ल्ड नेचुरल डेमोक्रेसी आपके समक्ष यह प्रस्ताव रखती है और आपसे अपील करती है कि COVID-19 का प्रभाव निष्क्रिय होने के बाद, आप हर देश और राज्य के साथ मीटिंग बुलायें, और उन्हें इस बात के लिये सहमत करें कि हर देश अथवा राज्य का बजट, अगले 200 साल तक के लिये किसी भी तरह का Mass Destruction Weapons जैसे, Nuclear, Biological, Chemical हथियार बनाने में आवंटित नहीं किया जाये । Conventional Weapons में भी laser Weapons जैसे घातक हथियार पर रोक लगायी जाये । जो विध्वंसक हथियार बन चुके हैं, जैसे- Nuclear Weapons आदि, उसे संभवतः Nuclear Energy में रूपांतरित कर दिया जाये । लिहाज़ा हर देश की सरकारों के साथ, यह सुनिश्चित किया जाये कि अब नागरिक का श्रम अर्थात टैक्स केवल Agriculture, Health, Education और वो सभी वैश्विक संकट; पानी, ग्लोबल वार्मिंग, भूखमरी, क्लाइमेट चेंज आदि के समाधान के लिये उपयोग किया जाये ।
साथियों ! दुनिया लॉकडाउन में है । लोग घरों में बंद हैं । सड़कें वीरान हैं । यह चेतावनी है कि अब हमें अपने विचारों को मुक्त करना ही होगा ।
‘सामाजिक समझौता/अनुबंध’ के बारे में आपने पढ़ा और सुना होगा । अब सामाजिक संविदा को, विस्तृत रूप देने का समय आ गया है । सामाजिक संविदा सिद्धांत क्या है ? प्राकृतिक अवस्था से, निकलने की यह परिकल्पना कि आदि काल में, मानव ने आपस में एक-दूसरे के साथ मिलकर एक समझौता किया, और यह निर्णय लिया कि हम सभी इस तीसरे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को, अपनी सारी शक्ति और सारे अधिकार सौंप दें, जो प्रकृति से हमें प्राप्त हैं, ताकि यह हमारे जीवन की रक्षा करे । प्राकृतिक वस्तुओं का सही-सही वितरण करे । हम सभी के बीच न्याय करे और नैतिकता की स्थापना करे, इत्यादि । यही समझौता एक ने दूसरे के साथ, और दूसरे ने तीसरे के साथ यह कहकर किया कि मैं इस व्यक्ति को या व्यक्तियों के इस समूह को अपना शासन, स्वयं कर सकने का अधिकार और शक्ति, इस शर्त पर समर्पित करता हूँ कि तुम भी अपने अधिकार, इसको इसी तरह समर्पित कर दो । इस प्रकार जिस व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को लोगों ने अपने अधिकार सौंप दिये, वो व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह राज्य सत्ता कहलायी । राज्य संप्रभुता कहलायी । मोटे तौर पर यही सामाजिक संविदा की अवधारणा है ।
आज संसार में सैकड़ों राज्य हैं । प्राकृतिक अवस्था से निकला वो मानव समाज आज 2020 में आ चुका है । उस मानव समाज की, शान्ति लिये समर्पित सबसे बड़ी संगठन, संयुक्त राष्ट्र संघ ने ढेरों उतार-चढ़ाव से लड़ते हुये, कामयाबी के साथ अपने कर्तव्य-निर्वहन के पचहत्तर साल की महान यात्रा, तय कर ली है । अब ज़रुरत इस बात की है, कि विश्व भर के अलग-अलग देश/राज्य अपनी जगह रहते हुये, एक दूसरे से जुड़ जायें, और एकजुट होकर देश, और दुनिया की सामूहिक सुरक्षा के लिये एक विश्व देश, विश्व राज्य की स्थापना करें । क्योंकि जब समस्या और संकट सार्वभौमिक है तो उसका निदान भी सार्वभौमिक विधि से ही होगा । COVID-19 से बचने के लिये, सारी दुनिया वैक्सीन खोजने में लगी है । इस घटना ने हमें भूला हुआ सबक़ याद दिलाया है कि, पूरी मानवता पूरी, मानवता पर निर्भर है । पूरी दुनिया, पूरी दुनिया पर निर्भर है । बीते छः वर्षों से लेखन, चिन्तन एवं संगठन द्वारा इसी जागरूकता के लिये अपनी बिसात भर कोशिश करता रहा हूँ । आज उसी ज्ञान की दिशा में बढ़ते हुये एक महत्वपूर्ण क़दम उठाने जा रहा हूँ । आमतौर पर वजूद की सीमा यह है कि, जीवन है तो विश्व है । यानी जान है तो जहाँन है । लेकिन मानव के अनियंत्रित व्यवहार के चलते एक सीमा ऐसी भी आ सकती है, कि हमें कहना पड़ जाये कि, विश्व है तो जीवन है । यानी जहाँन है तो जान है । आज कहीं न कहीं मानवता, इसी सीमा के निकट आ चुकी है । अतः दोनों अवस्थाओं का बराबर महत्त्व है । जीवन ही जगत है । जगत ही जीवन है । इसलिये हम सबको, सार्वभौमिक दृष्टि और ऐसी नवीन सम्भावना की समझ अपने अन्दर विकसित करने की ज़रूत है, जो कि, जगत में जीवन की स्वतंत्रता, और जीवन में जगत की निर्भरता, दोनों घटक को एक साथ बराबर अहमियत दे ।
साथियों ! आज पृथ्वी दिवस की पचासवीं जयंती है, और पृथ्वी परिवार का हर सदस्य, फ़िज़िकल डिसटेनसिंग यानी देह दूरी बनाते हुये COVID-19 की त्रासदी से, एक साथ लड़ रहा है । यह समय आत्म-मंथन का है । जीवन-मंथन का है । विश्व की सरकार के लिये भी, और विश्व के नागरिक के लिये भी । ऐसे में, हम सभी को अपनी बड़ी ज़िम्मेदारीयाँ समझनी होंगी और यह तय करना होगा, कि अब हमारा भविष्य क्या है ! आने वाले कल में हम, किस तरह की ज़िन्दगी बसर करेंगे । हमारी सोंच क्या होगी । दुनिया को देखने की, दृष्टि क्या होगी । और हम कितना अन्दर तक, अपने आपको झाँक पायेंगे । हो न हो, हमारा भविष्य इन्हीं सब, सवालों के जवाब पर निर्भर करेगा । जिसमें सबसे अहम यह देखना होगा कि, क्या अब हम अपने दिमाग़ से, नफ़रत और लालच को कम कर पायेंगे ? दिलों को बड़ा कर पायेंगे ? पूरी पृथ्वी के लिये दिलों के अन्दर, जगह बना पायेंगे ? एक बच्चे की ज़ुबान में कहें, तो इस वायरस ने हमें बार-बार हाथ धोना तो सिखा दिया है, लेकिन मानवता का भविष्य, हाथ-मुँह धोने से अधिक, इस बात पर निर्भर करेगा, कि हमने बार-बार अपने दिलों को धोना सीखा या नहीं ? या उसके लिये दुनिया किसी और वायरस का इंतज़ार करेगी । इस वक़्त, पृथ्वी के सबसे बुद्धिमान व्यक्तयों में गिने जाने वाले, इतिहासकार प्रोफ़ेसर युवाल नोआ हरारी के शब्दों से, अपनी बात ख़त्म करना चाहूँगा-  
“मुझे लगता है, इस वक़्त दुनिया का सबसे बड़ा ख़तरा वायरस नहीं, हम वायरस से निपट सकते हैं । बड़े ख़तरे तो मानवता के ख़ुद के भीतर पल रहे दानव हैं- नफ़रत, लालच, अज्ञानता ।” “यदि हम राष्ट्रवादी अलगाव चुनते हैं, तो हम और अधिक ग़रीब, और दयनीय, और कम स्वस्थ होते चले जायेंगे । “सीमाओं को बन्द कर देने से, आप महामारी से नहीं निपट सकते । महामारी की वास्तविक औषधि, अलगाव नहीं, सहयोग है ।” “सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि, हम क्या चुनते हैं और मुझे उम्मीद है कि, हम राष्ट्रवादी प्रतिस्पर्धा नहीं, वैश्विक एकजुटता चुनेंगे ।”
सार्वभौमिक अनुबंध की शपथ एवं घोषणा ।
मैं, प्रकृति प्रतिनिधि एवं सदस्य, पृथ्वीवासी, नागरिक, जावैद अब्दुल्लाह, लेखक, संस्थापक एवं अध्यक्ष- वर्ल्ड नेचुरल डेमोक्रेसी, स्थान- वाराणसी भारत, आज 22 अप्रैल 2020 पृथ्वी दिवस, समय- प्रातःकाल, मानव इतिहास की ज्ञान-यात्रा में, राज्य की उत्पत्ति के रूप में चर्चित परिकल्पना ‘सामाजिक संविदा’ सिद्धांत को ‘सार्वभौमिक संविदा/प्लेनेटरी कॉन्ट्रैक्ट’ अथवा ‘सार्वभौमिक सामाजिक अनुबंध’ के रूप में, विस्तार देने की शपथ लेता हूँ और मैं अपना सम्पूर्ण प्राकृतिक अधिकार/शक्ति भारत के संविधान/सरकार के साथ ही, संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपता हूँ, और उसे मानव सभ्यता, पर्यावरण एवं पृथ्वी की सामूहिक सुरक्षा, के लिये एक महान गौरवशाली, पृथ्वी राष्ट्र और विश्व संप्रभु/विश्व सरकार बनाने का, आह्वान करता हूँ और संयुक्त राष्ट्र संघ को, सार्वभौमिक राष्ट्र संघ स्वीकारता हूँ, और पृथ्वी राज्य अथवा पृथ्वी सरकार के, आम चुनाव का सार्वभौमिक मतदाता बनने की, परिकल्पना की घोषणा करता हूँ इस निम्नलिखित स्पष्टीकरण के साथ कि इस सार्वभौमिक अनुबंध की परिकल्पना, इस शर्त पर की गयी है कि, स्व सहित पृथ्वी के किसी भी मानवजाति, जैसे- महिला, पुरुष, बच्चे, बूढ़े आदि के लिये उसके जीवन की सुरक्षा और सम्मान के साथ उसके मेटाफ़िज़ीकल, एपिस्टमॉलॉजिकल, रैशनल और एम्पिरिकल बिलीफ़, फ़ेथ, रिलिजन, रिचुअल्स, एथिक्स, कल्चर, लैंग्वेज, वैल्यूज़ आदि के अधिकार को मानने की आज़ादी/समर्थन/प्रचार आदि पर किसी भी तरह का पर्सनल/डायरेक्ट, स्ट्रक्चरल/इनडायरेक्ट प्रतिबन्ध, क्षति, शोषण, अत्यचार या प्रताड़ना आदि विश्व राज्य/सरकार की तरफ़ नहीं किया जायेगा/न ही इसके लिये किसी को प्रेरित किया जायेगा, बल्कि कोई भी सरकार/संगठन व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से ऐसा करता है या ऐसा करने के लिये किसी को उत्तेजित करता है, तो उन दोनों पर अंकुश लगाने और उसे ऐसा कृत करने से, रोकने की ज़िम्मेदारी विश्व राज्य/सरकार की भी उतनी ही होगी जितना देश के सरकार की है । यदि ऐसा नहीं होता है, और इसके विपरीत किसी के साथ, उपरोक्त मौलिक/निजी/व्यक्तिगत इत्यादि, अधिकार से सम्बंधित प्रतिबन्ध/क्षति/शोषण/अत्याचार/प्रताड़ना घटित होती है, तो जिसके साथ ऐसा किया जायेगा, वो व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का समूह, विश्व राज्य/सरकार/संसद से न्याय की माँग कर सकता है, उसके हिंसक मौन सहमति/भाषा/विचार/क्रिया/भ्रमित इरादों/आदेशों/नीतियों आदि का अहिंसात्मक, सभ्य एवं संवैधानिक ढंग से, विरोध प्रदर्शित कर सकता है, किन्तु किसी भी देश-काल में विश्व राज्य/सरकार, अलिखित या लिखित आदेश, अथवा क़ानून बनाकर, मानवता पर हिंसा/निरंकुशता अपनाती है, तो फिर अंततः एक मानव या पूरी मानवता, अपने सम्पूर्ण प्राकृतिक अधिकार/शक्ति विश्व राज्य से, वापिस ले सकता है और तब ऐसी स्थिति में, यह ‘सार्वभौमिक सामाजिक अनुबंध’ स्वतः ही सीमित या असीमित समय के लिये समाप्त हो जायेगा, तब वो व्यक्ति, या व्यक्तियों का समूह या सारे विश्व नागरिक; फिर से, विश्व राज्य/सरकार की पुनर्स्थापना अथवा पुनः विश्वास बहाल करना चाहते हों, या न चाहते हों, प्रत्येक स्थिति में, उन्हें पृथ्वी ग्रह पर स्वतंत्रता सहित आत्म-सम्मान के साथ, जीने का प्राकृतिक जन्मसिद्ध अधिकार सुरक्षित रहेगा ।
यह पुनः स्पष्ट कर दूँ कि, इस सार्वभौमिक संविदा का, एक मात्र उद्देश्य पृथ्वी, पर्यावरण और मानवता को, नाना प्रकार के वैश्विक संकट, पानी, भोजन, स्वास्थ्य, ग़रीबी, बेरोज़गारी, तनाव, जलवायु परिवर्तन, ग्लेशियर, जैव विविधता, बाढ़, सुनामी, भूकम्प, महामारी, इत्यादि के लिये, ठोस वैश्विक निदान और भविष्य में कभी भी, मानव पीढ़ी पर आने वाली संकट से, निपटने की मुकम्मल तैयारी को लेकर, विश्व की सरकारों को एकजुट होकर सोचने और मिलकर, एक मंच पर काम करने के लिये किया गया है, ताकि जीवन संरक्षण की सारी नीतियाँ, पूरी इंसानियत को, ध्यान में रख बनायी जायें और सम्पूर्ण मानवता का श्रम, केवल और केवल सकारत्मक कार्यों में ही ख़र्च हो, क्योंकि जिन भी कारणों से हम बंटे हुये हैं, अनदेखी लकीरों की नुमाईश, या जो भी, लेकिन उसी, कारण का ही यह परिणाम है कि, दुश्मनों का नाश करने के लिये तो, दुनिया के पास हथियारों का भंडार है, लेकिन आज इस भीषण त्रासदी में, अपने नागरिकों का इलाज करने के लिये, अस्पताल में वेंटीलेटर नहीं है । बहरहाल ! हमें इंसानियत की रस्सी को मज़बूती से, थामने की ज़रूरत है । आईये ! इस सार्वभौमिक अनुबंध के उद्देश्य के ज़रीय, जीवन और जगत के, वास्तविक स्वरुप को स्वीकारने, और इस धरती पर आने वाली मासूम, निर्दोष पीढ़ियों के हाथों में एक विकसित, समृद्ध, ज्ञानवान, गौरवशाली एवं शान्तिपूर्ण विश्व-व्यवस्था सौंप जाने के लिये, हम मानवजाति प्रतिबद्ध हाें

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