हाईकोर्ट में अग्रिम जमानत पर सुनवाई जज के विवेक पर निर्भर

हाईकोर्ट में अग्रिम जमानत पर सुनवाई जज के विवेक पर निर्भर

प्रयागराज इलाहाबाद हाईकोर्ट के पांच न्यायाधीशों की वृहद पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अग्रिम जमानत अर्जी पर हाईकोर्ट व सत्र न्यायालय दोनों को समान रूप से सुनवाई करने का अधिकार है।हाईकोर्ट में सीधे दाखिल अग्रिम जमानत की अर्जी पर सुनवाई न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करेगी, जो केस के तथ्यों व

प्रयागराज‌ इलाहाबाद हाईकोर्ट के पांच न्यायाधीशों की वृहद पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अग्रिम जमानत अर्जी पर हाईकोर्ट व सत्र न्यायालय दोनों को समान रूप से सुनवाई करने का अधिकार है।हाईकोर्ट में सीधे दाखिल अग्रिम जमानत की अर्जी पर सुनवाई न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करेगी, जो केस के तथ्यों व परिस्थितियों पर विचार कर निर्णय लेंगे। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अग्रिम जमानत अर्जी सीधे हाईकोर्ट में दाखिल की जा सकती है लेकिन यह न्यायाधीश के विवेक पर होगा कि वह सुने या नहीं।‌यह आदेश मुख्य न्यायमूर्ति गोविंद माथुर, न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा, न्यायमूर्ति सुनीता अग्रवाल, न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा एवं न्यायमूर्ति राहुल चतुर्वेदी की वृहद पीठ ने अंकित भारती सहित सैकड़ों की याचिकाओं पर संदर्भित विधि प्रश्न को निस्तारित करते हुए दिया है।

कोर्ट ने प्रत्येक केस के तथ्यों व विशेष परिस्थितियों के आधार पर हाईकोर्ट में सीधे दाखिल अग्रिम जमानत अर्जी की सुनवाई न्यायाधीश के विवेकाधिकार पर निर्भर करेगी।‌वृहद पीठ ने विनोद कुमार केस के फैसले को सही माना है। वृहद पीठ ने इसी के साथ प्रकरण को एकल पीठ को वापस कर दिया है। वादकारी हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय में से कहीं भी अग्रिम जमानत को एकल पीठ को वापस कर दिया है। साथ ही स्पष्ट किया कि अग्रिम जमानत अर्जी सीधे हाईकोर्ट में दाखिल नहीं की जा सकती। केवल न्यायाधीश के विवेक पर विशेष स्थिति में ही अर्जी सीधे हाईकोर्ट में दाखिल की जा सकती है।‌

उत्तर प्रदेश में गैरजमानती अपराध के मामलों में अग्रिम जमानत की व्यवस्था पिछले वर्ष जून माह में बहाल किया था। 1 जून, 2019 को सीआरपीसी की धारा 438 में संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मंजूरी दे थी। 6 जून, 2019 से यह कानून यूपी में लागू हो गया है। वर्ष 1976 में आपातकाल के दौरान उत्तर प्रदेश में अग्रिम जमानत की व्यवस्था खत्म कर दी गई थी। यूपी और उत्तराखंड को छोड़कर बाकी राज्यों में यह व्यवस्था बाद में शुरू हो गई थी। संज्ञेय अपराधों में अरेस्ट स्टे के लिए हाई कोर्ट में लगातार याचिकाएं आ रही थीं। इससे कोर्ट पर काफी दबाव पड़ रहा था।‌ प्रयागराज से दया शंकर त्रिपाठी की रिपोर्ट।

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