लोकतंत्र की कसौटी पर चुनाव आयोग: सवाल, आरोप और जवाबदेही

लोकतंत्र की कसौटी पर चुनाव आयोग: सवाल, आरोप और जवाबदेही

भारतीय लोकतंत्र इस समय ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ संस्थागत साख और राजनीतिक जवाबदेही के बीच संघर्ष असाधारण रूप से तीखा हो गया है। हाल ही में 272 नागरिकों (पूर्व जजों, नौकरशाहों, राजनयिकों और सैन्य अधिकारियों) द्वारा जारी खुले पत्र ने इस संघर्ष को और अधिक स्पष्ट और संवेदनशील बना दिया है। पत्र में लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी पर संवैधानिक संस्थाओं—विशेषकर चुनाव आयोग—की विश्वसनीयता को बदनाम करने का आरोप लगाया गया है। दूसरी ओर विपक्ष का तर्क है कि ये सभी हस्ताक्षरकर्ता सत्ता से कठिन सवाल पूछने का साहस नहीं कर पा रहे, जबकि चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर वास्तविक और गंभीर शंकाएँ मौजूद हैं। यह पूरा विवाद भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं, संस्थागत पारदर्शिता और राजनीतिक संवाद की बदलती प्रकृति का दर्पण बन गया है।

 

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नागरिकों के इस पत्र में कहा गया कि विपक्ष जानबूझकर सेना, न्यायपालिका, संसद और अब चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं पर हमला कर रहा है। पत्र में विशेष रूप से राहुल गांधी द्वारा लगाए गए ‘वोट चोरी’ के आरोपों पर सवाल उठाए गए, जिनमें उन्होंने दावा किया था कि उनके पास “100% सबूत” हैं, जबकि उन्हें न तो औपचारिक शिकायत के रूप में पेश किया गया, न हलफनामे के रूप में। पत्र में यह भी रेखांकित किया गया कि चुनाव आयोग की SIR प्रक्रिया—जिसमें मतदाता सूची की समीक्षा, अवैध नामों को हटाना और पात्र मतदाताओं को जोड़ना शामिल है—पूर्णतः पारदर्शी और सार्वजनिक है। हस्ताक्षरकर्ताओं के अनुसार, केवल राजनीतिक हार के आधार पर आयोग की भूमिका पर संदेह उठाना चयनात्मक आक्रोश है, क्योंकि जीत के समय कोई ऐसी आलोचना सामने नहीं आती। उनके अनुसार मतदाता सूची की पवित्रता बनाए रखना विश्व के किसी भी लोकतंत्र में अपरिहार्य है, और भारत को भी इसी सिद्धांत पर कायम रहना चाहिए।

 

परंतु कांग्रेस की प्रतिक्रिया उतनी ही तीखी और आरोपों से भरी थी। उनका कहना है कि यह पत्र वस्तुतः चुनाव आयोग की संभावित लापरवाही या पक्षपात पर उठ रहे सवालों से ध्यान हटाने का प्रयास है। कांग्रेस प्रवक्ता का यह तर्क कि 272 लोगों में से एक भी पूर्व चुनाव आयुक्त नहीं है, और न ही कोई ऐसा व्यक्ति है जिसने चुनावी प्रबंधन में प्रत्यक्ष भूमिका निभाई हो, इस पत्र की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। विपक्ष यह भी कहता है कि मतदाता सूचियों में गड़बड़ियों, जैसे एक ही पते पर दर्जनों नाम, फर्जी पते, डुप्लिकेट प्रविष्टियाँ और बिना फोटो पहचान के वोट देने की घटनाओं पर लगातार रिपोर्ट सामने आती रही हैं, फिर भी चुनाव आयोग ने इन मामलों को लेकर पर्याप्त पारदर्शिता या सक्रियता नहीं दिखाई।

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यह प्रश्न इसलिए और जटिल हो जाता है क्योंकि लोकतंत्र में संस्थाओं को सम्मान देना जितना आवश्यक है, उनसे सवाल पूछना उतना ही अनिवार्य—और वैध—कदम है। केवल आरोप लगाना पर्याप्त नहीं होता, लेकिन केवल आरोपों को खारिज कर देना भी किसी स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकेत नहीं कहा जा सकता। आधुनिक लोकतंत्र केवल निष्पक्ष होने से नहीं चलता; उसे निष्पक्ष दिखना भी पड़ता है। जब जनता का विश्वास किसी संस्था की ओर से डगमगाने लगता है, तब सवालों को ‘संस्थाओं पर हमला’ बता देना राजनीतिक दृष्टि से सुविधाजनक हो सकता है, लेकिन लोकतांत्रिक दृष्टि से यह खतरनाक संकेत माना जाएगा।

 

भारतीय राजनीति में बढ़ते ध्रुवीकरण ने इस विवाद को और अधिक संवेदनशील बना दिया है। राजनीतिक दल जब अपने-अपने चश्मों से संस्थागत क्रियाकलापों को देखने लगते हैं, तो किसी भी निष्कर्ष पर पहुँच पाना कठिन हो जाता है। विपक्ष की शिकायत है कि चुनाव आयोग अपने निर्णयों पर औपचारिक और तकनीकी रूप से पारदर्शी होते हुए भी राजनीतिक रूप से अप्रत्यक्ष दबावों से मुक्त दिखाई नहीं देता। वहीं सत्ता पक्ष और पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले नागरिकों का मत है कि केवल राजनीतिक लाभ के लिए आयोग को कटघरे में खड़ा करना देश की लोकतांत्रिक संरचना को कमजोर करता है। यह दो तरह का अविश्वास है—एक तरफ संस्थाओं पर, और दूसरी तरफ विपक्ष की मंशा पर।

 

इस पूरे प्रकरण की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि दोनों पक्ष आंशिक रूप से सही हैं, और दोनों ही लोकतांत्रिक विमर्श का हिस्सा हैं। विपक्ष यदि यह कहता है कि मतदाता सूची में गड़बड़ियाँ हैं, तो इन दावों का स्वतंत्र ऑडिट किया जाना चाहिए। और यदि नागरिक समूह यह कहता है कि बिना सबूत आरोप लगाना संस्थागत साख को चोट पहुँचाता है, तो इसमें भी तर्क है। समस्या तब पैदा होती है जब कोई भी पक्ष अपने दावे को तथ्यों, औपचारिक शिकायतों और सत्यापित प्रक्रियाओं के बजाय भावनात्मक और राजनीतिक आरोपों पर आधारित कर देता है।

 

भारतीय लोकतंत्र की इस घड़ी में सबसे महत्वपूर्ण तत्व सिर्फ राजनीतिक बहस नहीं, बल्कि उस बहस का मूल चरित्र है। लोकतंत्र में संस्थाओं की रक्षा तभी संभव है जब वे जनता की नज़र में न केवल विश्वसनीय हों, बल्कि उनकी कार्यप्रणाली पारदर्शिता और जवाबदेही के आधुनिक मानकों पर खरी उतरे। विपक्ष की आलोचना और नागरिकों की चिंताओं दोनों को संतुलित रूप से सुना जाना चाहिए। असली सवाल यह है कि क्या भारत अपनी लोकतांत्रिक परिपक्वता को इतना मजबूत रख सकेगा कि राजनीतिक जंग संस्थागत विश्वास को न कुचल दे।

लोकतंत्र की शक्ति यही है कि उसमें विवाद होते हैं—पर उसका अस्तित्व तभी सुरक्षित रह सकता है, जब विवाद तथ्यों और नैतिक मर्यादा पर आधारित हों, न कि शोर या संदेह के ध्रुवीकरण पर।

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