राष्ट्रीय एकता का सूत्र है हिंदी

राष्ट्रीय एकता का सूत्र है हिंदी

भारत विविध भाषाओं, संस्कृतियों और परंपराओं का देश है। इतनी अपार विविधता के बावजूद, जो भाषा
भारतीय जनमानस को एक सूत्र में पिरोती है, वह हिंदी है। महात्मा गांधी ने अपने देशव्यापी भ्रमण के
दौरान अनुभव किया कि हिंदी अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित हर वर्ग के बीच बोली और समझी जाती है।
उन्होंने हिंदी को राष्ट्रीयता का प्रतीक और भारतीय आत्मा का संवाहक माना। इसी उद्देश्य से उन्होंने 1936
में वर्धा में राष्ट्र भाषा प्रचार समिति की स्थापना की, जिसने देशभर में हिंदी शिक्षा के प्रसार के लिए अनेक
केंद्र स्थापित किए। गांधी जी का विश्वास था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना स्वतंत्रता और एकता के लिए
आवश्यक है।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी नेताओं और जनता के बीच संवाद का सबसे सशक्त माध्यम बनी। डॉ.
राजेन्द्र प्रसाद, पंडित नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, वल्लभभाई पटेल और जमनालाल बजाज जैसे नेताओं ने
सांस्कृतिक जागरण और जनसंवाद के लिए हिंदी को अपनाया। रवीन्द्रनाथ टैगोर, सी. राजगोपालाचारी
और सुभाष बोस जैसे गैर-हिंदी भाषी नेताओं ने भी हिंदी की शक्ति को पहचाना और इसका समर्थन किया।
उनका मानना था कि जब प्रमुख नेता हिंदी का सम्मान करेंगे, तब अन्य प्रांत भी विरोध नहीं करेंगे।
स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा में हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का प्रस्ताव रखा गया। हालांकि,
राजनीति ने राजभाषा और राष्ट्रभाषा का भेद पैदा कर दिया।

1949 में अनुच्छेद 343 के तहत हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया, पर 15 वर्षों तक अंग्रेज़ी के प्रयोग की अनुमति दी गई। बाद में 1963 के राजभाषा अधिनियम ने अंग्रेज़ी के स्थायी प्रयोग का रास्ता खोला, जिससे हिंदी को अपेक्षित स्थान नहीं मिल सका। सेठ गोविन्ददास जैसे नेताओं ने संसद में इसका कड़ा विरोध किया और कहा कि लोकतंत्र बहुमत की आवाज़ है, न कि सभी प्रांतों की सहमति की शर्त। माखनलाल चतुर्वेदी सहित कई साहित्यकारों ने भी विरोध जताया। इसके विपरीत पाकिस्तान ने उर्दू और तुर्की ने अपनी भाषा को तुरंत राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया।

हिंदी विरोध, विशेषकर दक्षिण भारत में, राजनीति द्वारा पोषित था। प्राचीनकाल से दक्षिण भारत संस्कृत
विद्वता और हिंदू संस्कृति का केंद्र रहा है, ऐसे में संस्कृत की पुत्री हिंदी का वहां विरोध स्वाभाविक नहीं था।
पर राजनीतिक हितों ने यह स्थिति पैदा की। अंग्रेज़ी, जो औपनिवेशिक गुलामी का प्रतीक थी, प्रशासन में
अपना वर्चस्व बनाए रखी। इतिहास गवाह है कि हर काल में किसी एक भाषा ने राष्ट्रीय एकता का सूत्र संभाला है—अशोक काल में
पाली, मध्यकाल में ब्रजभाषा और आधुनिक काल में खड़ी बोली हिंदी।

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अंग्रेज़ अधिकारी टॉमस रोबक ने 1807 में लिखा था कि कन्याकुमारी से कश्मीर और असम से सिंधु तक लोग हिंदुस्तानी बोलते हैं।
लोकमान्य तिलक और एनी बेसेंट जैसे नेताओं ने भी हिंदी शिक्षा को अनिवार्य बनाने पर ज़ोर दिया। गांधी
जी ने कहा था, “मेरे लिए हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।” नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने 1918 में कलकत्ता
कांग्रेस में हिंदी में भाषण देकर इसका सम्मान बढ़ाया। स्वामी दयानंद, अरविंद, सरोजिनी नायडू और
रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे नेताओं ने भी इसका समर्थन किया।

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हिंदी साहित्य ने विभिन्न प्रांतों और भाषाओं के रचनाकारों को जोड़ा है—बंगाल के क्षितिमोहन सेन,
महाराष्ट्र के प्रभाकर माचवे, गुजरात के कन्हैयालाल मुंशी, तमिल के श्रीनिवासाचारी और पंजाब के
यशपाल जैसे लेखक हिंदी की राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बने। विदेशी भाषाओं के अंधानुकरण से राष्ट्रीय
आत्मगौरव कमजोर होता है। सच्ची एकता तभी संभव है जब हमारी अभिव्यक्ति जनमानस की आत्मा में
बसने वाली भाषा में हो।

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आज हिंदी दुनिया की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। डिजिटल युग में यह अंग्रेज़ी और
चीनी के बाद प्रमुख वैश्विक भाषाओं में गिनी जाती है। विदेशी भी व्यापार, शिक्षा और संस्कृति के लिए
हिंदी सीखने में रुचि दिखा रहे हैं। भारतीय नेताओं और साहित्यकारों ने भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी को
सम्मान दिलाया है। विदेश मंत्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देकर
इसका गौरव बढ़ाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य नेताओं ने भी विदेशों में हिंदी के प्रयोग को
प्रोत्साहित किया।

नई शिक्षा नीति ने हिंदी और मातृभाषाओं को उच्च शिक्षा में स्थान देकर एक बड़ा कदम उठाया है।
चिकित्सा, अभियंत्रण जैसे क्षेत्रों में मातृभाषा में पढ़ाई की सुविधा राष्ट्रीय अस्मिता को मजबूत करेगी।
भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन और विभिन्न सरकारी आयोजनों ने हिंदी को वैश्विक पहचान दी
है।

हिंदी दिवस केवल एक औपचारिक आयोजन नहीं, बल्कि संकल्प का दिन है। हमें अपने दैनिक जीवन,
सामाजिक माध्यमों और पेशेवर क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग बढ़ाना चाहिए। हिंदी हमारी संस्कृति, आत्मगौरव
और राष्ट्रीय एकता का सबसे सशक्त माध्यम है। जिस प्रकार गंगा-यमुना के संगम में अदृश्य सरस्वती
प्रवाहित रहती है, उसी प्रकार हिंदी उत्तर और दक्षिण के बीच सेतु बनकर भारत की आत्मा को जोड़ती है।

- महेन्द्र तिवारी

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