कुर्सी का काला खेल, संगीत का उजला मेल

[सत्ता की बिसात पर साज़िश, सुरों की धारा में सुकून]

कुर्सी का काला खेल, संगीत का उजला मेल

ज़िंदगी मानो दो परस्पर विरोधी धाराओं का अखाड़ा है—एक ओर वह जो सत्ता की पिपासा में अपने कंठ को फाड़कर चीखता हैदूसरी ओर वह जो अपने सुरों की मल्हार से रूह को अमृतपान कराता है। राजनीति वह दलदल हैजहाँ साज़िशों की बेलें विषवृक्ष बनकर लहराती हैंगठबंधनों का सौदा होता हैऔर अवसर मिलते ही विश्वसनीयता को तिलांजलि दे दी जाती है। इसके ठीक विपरीतसंगीत एक ऐसी निर्झरिणी हैजो लोभ-मोह की मर्यादाओं से परेबिना किसी छल-प्रपंच के हृदयों को सुरों की अटूट डोर में बाँध देती है। न विश्वासघातन छलावा—बस एक ऐसी रागिनी जो आत्मा को मधुर आलिंगन में भर लेती है। किंतु विधि का यह कटु सत्य है कि सत्ता का भूत जब किसी पर सवार होता है कि भाई-भाई की पीठ में छुरा घोंप देता हैजबकि सुरों का सच्चा साधक अपने शिष्य को स्वर-सिंधु में डुबोकर उसे अनंत ऊँचाइयों तक पहुँचा देता है।

राजनीति का असली मज़ा तो उसकी बेशर्मी में छुपा है। कल जो एक दरबार में चरणों में लोट रहे थेआज दूसरे की चप्पलें चूमते नज़र आते हैं। कोई बड़ा भाई बनकर पीठ में खंजर मारता हैतो कोई मुलायम की चौखट छोड़कर मोदी के डेरे में ठुमके लगाता है। यहाँ न गुरु-शिष्य की मर्यादान कोई पवित्र रिश्ता—बस सौदेबाज़ी की सुई टनटनाती रहती है। मगर संगीत की दुनिया में ऐसा कहाँवहाँ उस्ताद चट्टान-सा अडिग खड़ा रहता हैऔर शागिर्द उसकी छाँव में पनपता-चमकता है। उस्ताद कोई ढोंगी बाबा नहींजो गले में तावीज़ टाँगे घूमेवह तो सुरों का जादूगर हैजो ऐसी माला गूँथता है कि सीधे ऊपरवाले के दरबार में पहुँच जाए।

राजनीति का ढोल ऐसा बेसुरा कि मज़हब के नाम पर चिंगारियाँ भड़काएऔर उसकी राख से अपनी गंदी दुकान चलाए। किसी शानदार निशानी को अपने हिसाब से रंग दोकिसी बुलंद छाया को ज़मीन में मिलाने की साज़िश रचो—ये सब इनके घटिया तमाशे हैंबस भीड़ को ठगने का धंधा। मगर ज़रा संगीत की तरफ़ आँख उठाकर दिखाओ! किसी उस्ताद की शहनाई को मज़हब की तलवार से चीरोकिसी सितार की झंकार को हिंदू-मुसलमान की कसौटी पर कसो—है हिम्मत तो करो! तानसेन की रागिनियों में आग की लपटें सुलगाओरसखान की बाँसुरी छीनकर उसकी धुन को कुचल दो—सुरों का ज़ोर नहीं टूटेगातुम्हारी गर्दन की अकड़ ज़रूर धूल चाटेगी। आत्मा को अमर का ख़िताब दोफिर रूह को जूतों तले रौंदने की गुस्ताख़ी करो—किसी रानी के जज़्बे को गंदे लफ़्ज़ों से तोलोमगर मियाँ की तोड़ी की लय को तोड़ने का दुस्साहस करके दिखाओ!

ये कुर्सी के दीवाने हरियाली को अपने झंडे की ओट में ढाँपते हैंसुनहरे रंग को अपनी चादर में लपेटकर नचाते हैं। मगर इस खुले आसमान में ये रंग आज़ाद लहराते हैंइन्हें कौन अपनी गंदी मुट्ठी में क़ैद कर लेगाचाँद को अपने मज़हब का बंधक बनाने की ख़्वाहिश पालोसूरज को अपनी खेती का ढोंगी नौकर बनाओ—मगर ये दोनों तो सबके साथी हैं। चाँद कभी ईद का हमनवाज़कभी करवा चौथ का साक्षीसूरज कभी संक्रांति का मेहमानकभी गुरु का चमकता चेहरा—इनके सामने तुम्हारी सारी चालें बेमानी हैंबस हवा में फुसफुसाती रह जाती हैं।

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ज़िंदगी का असली मज़ा तो जुगलबंदी में छुपा है। कोई स्वर की मिठास बिखेरे या कोई गायक की गहराई से रूह को थामे—दोनों मिलकर दिल को लट्टू कर देते हैं। चाहे कोई पंडित तान छेड़ेचाहे कोई खान धुन उड़ाए—सुरों की दुनिया में ऊँच-नीच का झमेला कहाँसितार की तारें हों या तबले की थाप—जब साथ में गूँजते हैंतो मुँह से बस वाह-वाह ही फूटता है। रैना बीती जाए—ये मियाँ की तोड़ी का ऐसा जादू हैजिसे कुर्सी का कोई पहलवान अपनी भैंस की ताकत से भी नहीं मिटा सकता।

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सुबह की ताज़गी हो मियाँ की तोड़ीया बारिश की बूँदों में मेघ मल्हार—ये ज़िंदगी के सुर हैंजो रग-रग में बसते हैं। शिवरंजनी की चुलबुली शरारत हो या यमन की रूहानी सैर—हर साज़ में एक ही रंग समाता है। मालकौंस की धुन बजेतो मन हरि के पीछे नाचने को बेकरार हो जाए। चाहे सरोद की गहरी आवाज़ होचाहे शहनाई की सीधी आत्मा तक की पुकार—सब एक ही राग में डूबते हैंऔर वो है देस का राग। ये राग न कुर्सी की चापलूसी का गुलाम हैन वोटों की ठेकेदारी का भिखारी। ये तो बस यूँ ही बहता हैजैसे बादल बिना किसी रोक-टोक के बरसते हैं।

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अब ज़रा राजनीति के ढोल को देखो—शोर मचाएचिल्ल-पों करेमगर सुर की एक लकीर भी न पकड़ सके। कुर्सी के नीचे से ज़मीन खिसक जाएतो ये सारे बादशाह मुँह के बल धड़ाम से गिर पड़ते हैं। मगर संगीतवो तो ज़मीन पर कदम जमाकर आसमान को भी सलाम ठोकने पर मजबूर कर देता है। एक तरफ़ कुर्सी का तमाशाजहाँ मज़हब के नाम पर तलवारें लहराई जाती हैंदूसरी तरफ़ सुरों का जहानजहाँ दिलों के किवाड़ खुलते हैं। अब फैसला तुम्हारे हाथ—कुर्सी की कर्कश चीखों में कान फोड़ोगेया सुरों के सुकून में गोते लगाओगेक्योंकि जहाँ राजनीति की चिल्लाहट थम जाती हैवहाँ संगीत का आलाप गूँज उठता है—और वो कभी थमने का नाम नहीं लेता।

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