कुर्सी का काला खेल, संगीत का उजला मेल
[सत्ता की बिसात पर साज़िश, सुरों की धारा में सुकून]
ज़िंदगी मानो दो परस्पर विरोधी धाराओं का अखाड़ा है—एक ओर वह जो सत्ता की पिपासा में अपने कंठ को फाड़कर चीखता है, दूसरी ओर वह जो अपने सुरों की मल्हार से रूह को अमृतपान कराता है। राजनीति वह दलदल है, जहाँ साज़िशों की बेलें विषवृक्ष बनकर लहराती हैं, गठबंधनों का सौदा होता है, और अवसर मिलते ही विश्वसनीयता को तिलांजलि दे दी जाती है। इसके ठीक विपरीत, संगीत एक ऐसी निर्झरिणी है, जो लोभ-मोह की मर्यादाओं से परे, बिना किसी छल-प्रपंच के हृदयों को सुरों की अटूट डोर में बाँध देती है। न विश्वासघात, न छलावा—बस एक ऐसी रागिनी जो आत्मा को मधुर आलिंगन में भर लेती है। किंतु विधि का यह कटु सत्य है कि सत्ता का भूत जब किसी पर सवार होता है कि भाई-भाई की पीठ में छुरा घोंप देता है, जबकि सुरों का सच्चा साधक अपने शिष्य को स्वर-सिंधु में डुबोकर उसे अनंत ऊँचाइयों तक पहुँचा देता है।
राजनीति का ढोल ऐसा बेसुरा कि मज़हब के नाम पर चिंगारियाँ भड़काए, और उसकी राख से अपनी गंदी दुकान चलाए। किसी शानदार निशानी को अपने हिसाब से रंग दो, किसी बुलंद छाया को ज़मीन में मिलाने की साज़िश रचो—ये सब इनके घटिया तमाशे हैं, बस भीड़ को ठगने का धंधा। मगर ज़रा संगीत की तरफ़ आँख उठाकर दिखाओ! किसी उस्ताद की शहनाई को मज़हब की तलवार से चीरो, किसी सितार की झंकार को हिंदू-मुसलमान की कसौटी पर कसो—है हिम्मत तो करो! तानसेन की रागिनियों में आग की लपटें सुलगाओ, रसखान की बाँसुरी छीनकर उसकी धुन को कुचल दो—सुरों का ज़ोर नहीं टूटेगा, तुम्हारी गर्दन की अकड़ ज़रूर धूल चाटेगी। आत्मा को अमर का ख़िताब दो, फिर रूह को जूतों तले रौंदने की गुस्ताख़ी करो—किसी रानी के जज़्बे को गंदे लफ़्ज़ों से तोलो, मगर मियाँ की तोड़ी की लय को तोड़ने का दुस्साहस करके दिखाओ!
ये कुर्सी के दीवाने हरियाली को अपने झंडे की ओट में ढाँपते हैं, सुनहरे रंग को अपनी चादर में लपेटकर नचाते हैं। मगर इस खुले आसमान में ये रंग आज़ाद लहराते हैं, इन्हें कौन अपनी गंदी मुट्ठी में क़ैद कर लेगा? चाँद को अपने मज़हब का बंधक बनाने की ख़्वाहिश पालो, सूरज को अपनी खेती का ढोंगी नौकर बनाओ—मगर ये दोनों तो सबके साथी हैं। चाँद कभी ईद का हमनवाज़, कभी करवा चौथ का साक्षी; सूरज कभी संक्रांति का मेहमान, कभी गुरु का चमकता चेहरा—इनके सामने तुम्हारी सारी चालें बेमानी हैं, बस हवा में फुसफुसाती रह जाती हैं।
ज़िंदगी का असली मज़ा तो जुगलबंदी में छुपा है। कोई स्वर की मिठास बिखेरे या कोई गायक की गहराई से रूह को थामे—दोनों मिलकर दिल को लट्टू कर देते हैं। चाहे कोई पंडित तान छेड़े, चाहे कोई खान धुन उड़ाए—सुरों की दुनिया में ऊँच-नीच का झमेला कहाँ? सितार की तारें हों या तबले की थाप—जब साथ में गूँजते हैं, तो मुँह से बस “वाह-वाह” ही फूटता है। “रैना बीती जाए”—ये मियाँ की तोड़ी का ऐसा जादू है, जिसे कुर्सी का कोई पहलवान अपनी भैंस की ताकत से भी नहीं मिटा सकता।
सुबह की ताज़गी हो मियाँ की तोड़ी, या बारिश की बूँदों में मेघ मल्हार—ये ज़िंदगी के सुर हैं, जो रग-रग में बसते हैं। शिवरंजनी की चुलबुली शरारत हो या यमन की रूहानी सैर—हर साज़ में एक ही रंग समाता है। मालकौंस की धुन बजे, तो मन हरि के पीछे नाचने को बेकरार हो जाए। चाहे सरोद की गहरी आवाज़ हो, चाहे शहनाई की सीधी आत्मा तक की पुकार—सब एक ही राग में डूबते हैं, और वो है देस का राग। ये राग न कुर्सी की चापलूसी का गुलाम है, न वोटों की ठेकेदारी का भिखारी। ये तो बस यूँ ही बहता है, जैसे बादल बिना किसी रोक-टोक के बरसते हैं।
अब ज़रा राजनीति के ढोल को देखो—शोर मचाए, चिल्ल-पों करे, मगर सुर की एक लकीर भी न पकड़ सके। कुर्सी के नीचे से ज़मीन खिसक जाए, तो ये सारे बादशाह मुँह के बल धड़ाम से गिर पड़ते हैं। मगर संगीत? वो तो ज़मीन पर कदम जमाकर आसमान को भी सलाम ठोकने पर मजबूर कर देता है। एक तरफ़ कुर्सी का तमाशा, जहाँ मज़हब के नाम पर तलवारें लहराई जाती हैं; दूसरी तरफ़ सुरों का जहान, जहाँ दिलों के किवाड़ खुलते हैं। अब फैसला तुम्हारे हाथ—कुर्सी की कर्कश चीखों में कान फोड़ोगे, या सुरों के सुकून में गोते लगाओगे? क्योंकि जहाँ राजनीति की चिल्लाहट थम जाती है, वहाँ संगीत का आलाप गूँज उठता है—और वो कभी थमने का नाम नहीं लेता।

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