क्या 9 बार समझौते के फेल होने के  बाद गहलोत और पायलट के बीच  यह फ़ाइनल समझोता है ?

क्या 9 बार समझौते के फेल होने के  बाद गहलोत और पायलट के बीच  यह फ़ाइनल समझोता है ?

दरअसल मुख्यमंत्री  की कुर्सी को लेकर गहलोत और पायलट के बीच साल 2018 के विधानसभा चुनावों में मिली जीत के बाद से ही तकरार शुरू हो गया था।

 

अशोक भाटिया,
वरिष्ठ  लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार

पिछले लंबे समय से गहलोत सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले सचिन पायलट को एक बार फिर कांग्रेस हाईकमान सुलह के रास्ते पर लाने में कामयाब होने का दावा कर रहा है। अशोक गहलोत और सचिन पायलट की चुप्पी के बीच सियासी सीजफायर की घोषणा हो गई है।सचिन पायलट के आंदोलन के अल्टीमेटम से ठीक पहले कांग्रेस हाईकमान से जुड़े नेताओं ने उन्हें मनाने और गहलोत-पायलट के फिर एकजुट होने का दावा किया है। जुलाई 2020 से लेकर अब तक यह तीसरा मौका है, जब पायलट से सुलह हुई है, लेकिन उनकी मांगें अब भी जस की तस हैं। ऐसे में इसे परमानेंट सुलह नहीं माना जा रहा। हाल ही में  कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के घर पर हुई बैठक के बाद केसी वेणुगोपाल ने सुलह की घोषणा भी इशारों में की, न कोई फॉर्मूला बताया, न गहलोत और पायलट ने कोई बयान दिया। कांग्रेस हाईकमान के लिए राहत वाली बात यह है कि विधानसभा चुनाव से पहले राजस्थान जैसे राज्य में रोज झगड़ों से होने वाली किरकिरी पर कुछ विराम लगेगा।

दरअसल मुख्यमंत्री  की कुर्सी को लेकर गहलोत और पायलट के बीच साल 2018 के विधानसभा चुनावों में मिली जीत के बाद से ही तकरार शुरू हो गया था। साल 2020 में अपनी ही सरकार को अल्पमत में बताकर समर्थक विधायकों के साथ मानेसर चले जाने के बाद तकरार अदावत और अदावत बगावत में बदल गई। उसके बाद से दोनों ही पक्षों की तरफ से जिस तरह के बयान आये उसने मामले को उलझा दिया।

लेकिन अपनी ही सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच नहीं कराने के आरोप लगाकर पायलट ने जब पहले अनशन और उसके बाद पदयात्रा की तो हाईकमान को फिर से हस्तक्षेप करना पड़ा। जिसके बाद एक बार फिर से वहीं समझौते की तस्वीर सामने आ गई। ऐसे में बीजेपी ने भी तंज कसना शुरू कर दिया है की 9 बार समझौते के बाद भी जब तकरार बरक़रार है तो अब जनता को और गुमराह नहीं किया जा सकता।

बहरहाल एकजुटता के साथ चुनाव लड़ने की बात के साथ समझौते को लेकर मुस्कराती हुई गहलोत और पायलट की तस्वीर तो सामने आ गई। उस पर सचिन पायलट द्वारा अपने अधिकारिक सोशल मीडिया पर इससे जुड़े विडियो को शेयर करके उस पर सहमति देने की खबर भले ही राहत देने वाली हो।इस दौरान दोनों की ही चुप्पी और सुलह के फार्मूले के सामने नहीं आने को लेकर सियासी सवाल अब भी जस के तस बने हुए हैं। अब सबकी नज़रें इस पर लगी है की कांग्रेस हाईकमान ने इस मुद्दे पर किस फार्मूले के साथ निर्णायक हल निकालता है।

यह जग जानी बात है कि  गहलोत और पायलट के बीच असली लड़ाई मुख्यमंत्री  कुर्सी की है। दोनों नेता ये बात कांग्रेस हाईकमान से कह नहीं सके।वैसे मुद्दों की आड़ में राजनीतिक दबाव बनाने के एक और एपिसोड का सोमवार रात पटाक्षेप तब हो गया, जब बिना किसी समझौता पत्र और शर्तों के सचिन पायलट और अशोक गहलोत कांग्रेस संगठन महासचिव केसी वेणुगपाल के साथ दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष खरगे के निवास के बाहर मीडिया के सामने आए। केसी वेणुगोपाल ने कहा कि यह निर्णय लिया है कि दोनों नेता साथ रहेंगे और बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे। हम फिर जीत हासिल करेंगे, लेकिन इस दौरान गहलोत और सचिन पायलट दोनों नेताओं ने एक शब्द नहीं कहा, दोनों ने कभी मुस्कुराकर तो कभी सीरियस चेहरा बनाकर अपनी चुप्पी के जरिए ही काफी कुछ बिना कहे ही कह दिया।


अब सवाल ये खड़ा होता है कि क्या राजस्थान की जनता और गहलोत-पायलट के समर्थक कांग्रेस पार्टी की छिपाने की राजनीति को नहीं समझेंगे और झांसे में आ जाएंगे। ये बात दोनों नेता भी अच्छी तरह से समझते हैं। क्योंकि कांग्रेस हाईकमान ने कोई सॉल्यूशन और फॉर्म्यूला का खुलासा नहीं किया। केवल ठंडे छींटे देकर दोनों को फिलहाल शांत किया गया और साथ रहकर चुनाव लड़ने को कहा गया है। पार्टी हाईकमान ने एक बार फिर गहलोत और पायलट को अलग-अलग बुलाकर अलग-अलग मंत्र दिए हैं। ऐसा ही सियासी बगावत के बाद सचिन पायलट के वापस आने पर किया गया था। सियासी मंचों पर ही कांग्रेस हाईकमान कई बार गहलोत और पायलट दोनों के हाथ साथ में उठवाकर प्रदेश में ऐसे मैसेज देती रही है, लेकिन स्थाई समाधान नहीं निकल सका है। फिर से बहुत सारे सवाल खड़े हो गए हैं। क्योंकि असली लड़ाई तो गहलोत और पायलट के बीच मुख्यमंत्री  की कुर्सी की है। जो लड़ाई विधानसभा चुनाव लड़ने से पहले भी थी और चुनाव जीतने के बाद भी हुई थी। गहलोत के मुख्यमंत्री  बनने के बाद से ही पायलट हमेशा उनसे खफा ही रहे हैं।

सूत्र बताते हैं कि सचिन पायलट ने तीन मांगें रखी थीं। इन मांगों पर भी कोई ठोस आश्वासन पायलट को नहीं मिला है। पायलट का अल्टीमेटम भी 30 या 31 मई तक ही है, जो अब खत्म हो रहा है। पब्लिक में सामने आकर मैसेज देने के बाद फिलहाल कुछ दिन सचिन पायलट आंदोलन नहीं करेंगे, यह उनकी सियासी मजबूरी भी बन गया है। पायलट तभी खुलकर विरोध वापस शुरू कर सकेंगे, जब उन्हें अलग से मिले पार्टी हाईकमान के आश्वासन का टाइम पीरियड खत्म नहीं हो जाए। सचिन पायलट पार्टी हाईकमान के सामने खुलकर यह तक नहीं कह सके कि उन्हें मुख्यमंत्री  का पद चाहिए। मौजूदा मुख्यमंत्री  पद पर बदलाव चाहिए या भविष्य में सरकार रिपीट होने पर मुख्यमंत्री  पद देने का विश्वास दिलाया जाए। क्योंकि कांग्रेस हाईकमान के सामने इस तरह की मांग पायलट खुद नहीं कर सकते थे। ये मांग समर्थक मंत्री-विधायक ही उठा सकते हैं। इसलिए अब सचिन पायलट उनके साथ चर्चा करने के बाद ही आगे कोई स्टैप लेंगे।


केसी वेणुगोपाल ने कहा था कि दोनों नेताओं गहलोत और पायलट ने फैसला हाईकमान पर छोड़ दिया है। वो क्या फैसला छोड़ा गया है और कब तक उस पर एक्शन होगा इसकी कोई जानकारी नहीं दी गई। पिछली वसुंधरा राजे सरकार के कथित घोटालों और भ्रष्टाचार की जांच के लिए सरकार क्या कोई कदम उठाएगी, पेपर लीक मामले में क्या सभी अभ्यर्थियों को पूरा मुआवजा दिया जाएगा, आरपीएससी को क्या भंग किया जाएगा। इन मुद्दों पर न तो वेणुगोपाल बोले, न मुख्यमंत्री  गहलोत और सचिन पायलट ने कोई स्टैण्ड क्लीयर किया है। इससे बेरोजगार युवाओं, किसानों, आम जनता में भी नाराजगी है। क्या जनता की भावनाओं और मैन पावर को फिजूल में ही अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस्तेमाल नेताओं और कांग्रेस ने किया है ?

एक बड़ा सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या भाजपा को विपक्ष की भूमिका से साफ करने के लिए पार्टी के अंदर ही विपक्ष खड़ा किया गया। जिससे जनता का पूरा ध्यान कांग्रेस के ही दोनों नेताओं पर साढ़े 4 साल टिका रहा। ये तमाम सवाल अभी भी जवाब मांग रहे हैं। अटकलें यह भी लगाई जा रही हैं कि सचिन पायलट खुदको मिले आश्वासन पूरे नहीं होने पर पहले ही तरह फिर से कुछ दिनों बाद आंदोलन शुरू कर सकते हैं। गहलोत सरकार को फिर से टारगेट कर सकते हैं। जैसा वो पहले भी करते आए हैं।

 

दरअसल अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों ही राजस्थान कांग्रेस के कद्दावर नेता हैं। दोनों अपने-अपने विधायकों और प्रदेश की जनता पर अच्छी पकड़ है। ऐसे में कांग्रेस हाईकमान दोनों नेताओं में से किसी को नाराज नहीं करना चाहता। सचिन पायलट और उनके गुट के विधायक 2020 में सियासी बगावत कर चुके हैं। इसके बाद पायलट को मुख्यमंत्री  बनाए जाने के विरोध में गहलोत गुट के विधायक और मंत्री सामूहिक इस्तीफा दे चुके हैं। कांग्रेस हाईकमान विधानसभा चुनाव से पहले इस तरह का कोई भी फैसला नहीं लेना चाहता जिससे दोनों में से कोई भी नेता और उनके गुट के विधायक इससे नाराज हों। इन सारी चीजों से बचने के लिए हाईकमान ने अब तक कोई फैसला नहीं लिया है। लेकिन, देखना ये होगा कि सचिन पायलट कब तक शांत रह पाते हैं, क्योकि अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच सियासी मतभेद बहुत आगे बढ़ चुके हैं। दोनों के बीच तल्खियां नेक्स्ट लेवल पर पहुंच चुकी हैं, ऐसे में राजनीतिक जानकार इसे टेम्परेरी सियासी सीज-फायर के तौर पर देख रहे हैं।

हाईकमान के दबाव और विधानसभा चुनाव सिर पर होने की वजह से गहलोत और पायलट की अपनी-अपनी सियासी मजबूरियां थीं, जिनकी वजह से सुलह का रास्ता तैयार हुआ। दिमाग से हुए इस समझौते में दिल मिलने की उम्मीद कम ही  दिखती  है।राजनीतिक जानकारों का मानना है कि हाईकमान ने दखल देकर कुछ समय के लिए समझौता भले करवा दिया, लेकिन पायलट की सियासी मांगों को भी चुनाव के वक्त पूरा करना आसान नहीं है। गहलोत भी विधायकों के समर्थन के भरोसे कई मुद्दों पर अड़े हुए हैं।पायलट ने जब 11 अप्रैल को अनशन किया, उस वक्त प्रभारी ने इसे पार्टी विरोधी गतिविधि बताया था। अनशन के बाद पायलट को नोटिस देने की तैयारी थी, लेकिन हाईकमान ने कर्नाटक चुनावों की वजह से इसे रुकवा दिया। 11 मई से जब पायलट ने पेपर लीक और भाजपा  के करप्शन पर यात्रा निकाली और गहलोत को घेरा तो प्रभारी के सुर बदले हुए थे।

पायलट विरोधी खेमा यात्रा और अल्टीमेटम के बाद उन्हें नोटिस देकर कार्रवाई का दबाव बना रहा था, लेकिन वह कामयाब नहीं हुआ। अनशन, यात्रा और फिर आंदोलन के अल्टीमेटम के बाद भी उन्हें बुलाकर बातचीत करना इस बात का संकेत है कि हाईकमान पायलट को भी साधकर रखना चाहता है।सचिन पायलट को अनशन के बाद मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री  कमलनाथ ने मनाया था, लेकिन फिर उन्होंने यात्रा निकाली और अल्टीमेटम दिया। हाईकमान की रणनीति राजस्थान में गहलोत और पायलट, दोनों को तवज्जो देकर रखने की है।

सचिन पायलट की नई और पुरानी मांगें अब भी जस की तस हैं। पायलट 25 सितंबर को विधायक दल की बैठक के बहिष्कार के मामले में तीन नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग लंबे समय से कर रहे हैं।यात्रा के बाद 15 मई की सभा में पायलट ने 15 दिन का अल्टीमेटम देते हुए भाजपा  राज के करप्शन की जांच के लिए हाईपावर कमेटी बनाने, आरपीएससी को भंग कर पुनर्गठन करने और पेपर लीक से प्रभावित बेरोजगारों को मुआवजे की मांग की थी। सचिन पायलट को नई और पुरानी मांगों को पूरा करने का हाईकमान से केवल आश्वासन मिला है।इससे पहले भी पायलट को कई बार आश्वासन मिल चुके हैं, लेकिन वे पूरे नहीं हुए। अगस्त 2020 में बगावत के बाद हुई सुलह के समय केसी वेणुगोपाल ने सुलह के फॉर्मूले का लिखित आदेश जारी किया था। उस वक्त की भी कुछ मांगें ही पूरी हुईं।25 सितंबर की घटना के जिम्मेदारों पर एक्शन नहीं होने पर नाराज पायलट को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से पहले भी केसी वेणुगोपाल ने मनाया। उस वक्त पायलट और गहलोत को असेट बताकर झगड़ा टलवा दिया।

गौरतलब है कि गहलोत-पायलट के बीच सुलह एक सियासी सीज-फायर की तरह ही है, यह परमानेंट नहीं है, फ्रंट कभी भी फिर खुल सकता है। पिछले चार साल में बयानों की मारक क्षमता के हिसाब से विश्लेषण किया जाए तो अशोक गहलोत ज्यादा आक्रामक रहे हैं। सचिन पायलट गिने-चुने मौकों पर ही बोले हैं, हालांकि मई में यात्रा से पहले और यात्रा के दौरान पायलट ने तल्ख लहजे में गहलोत पर हमला बोला, उससे सियासी कटुताएं और बढ़ गई थीं।

गहलोत और पायलट के बीच कलह पर भारतीय जनता पार्टी ने भी टिप्पणी की है। राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ कहना है - "मैं तो वोही खिलौना लूंगा, मचल गया दीना का लाल" किस्सा कुर्सी के खेल का खिलौना किसको मिलेगा, यह दूर की कौड़ी है । नौंवी बार फिर उसी भाव भंगिमा में दोनों नेता। वो ही आलाकमान, वो ही किरदार और हर बार की तरह इस बार भी नतीजा शून्य ही आएगा क्योंकि कांग्रेस के इन दोनों नेताओं में जारी मनभेद का कोई इलाज आलाकमान के पास भी नहीं है। हर बार की भांति इस बार भी दोनों नेताओं के खिलखिलाते चेहरों के पीछे का असली रंग चुनाव के नजदीक आते साफ दिख जाएगा।

 

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