टेलीविज़न: जो जोड़ता, दिखाता और दिशा देता रहा
टेलीविज़न: कल्पना से हक़ीक़त तक की सबसे बड़ी क्रांति
वह स्क्रीन जिसने मानवता को एक ही फ्रेम में बाँध दिया
कुछ आविष्कार बदले नहीं जाते, वे हमें बदल देते हैं। टेलीविज़न ऐसा ही एक आविष्कार है। उसने कभी दरवाज़े पर खड़े होकर नहीं पूछा कि आप अमीर हैं या गरीब, कस्बे में रहते हैं या महानगर में; बस एक तार खींचा और पूरी दुनिया को घर के आँगन में खोल दिया। हर सुबह आँख खुलते ही आपकी नज़र सबसे पहले किसे खोजती है? उसी छोटे-से काले रिमोट को, जो एक बटन में समूची दुनिया को आपके कमरे में बुला लेता है। आज हम उस जादुई खिड़की को सलाम कर रहे हैं जिसने इंसान की कल्पना को हक़ीक़त में ढाल दिया—टेलीविज़न को। यह महज़ मशीन नहीं, एक क्रांति है। एक तिलिस्म है। एक ऐसा दर्पण, जिसमें हम अपने आप को देखते हैं—हँसते हुए, डरते हुए, रोते हुए और हर बार थोड़ा बदलते हुए।
रंग आया और जैसे किसी ने समय की नसों में नया खून दौड़ा दिया। 1982 का एशियाड सिर्फ़ खेल नहीं था; वही वह पल था जब भारत ने पहली बार टेलीविज़न की आँखों से खुद को रंगों में देखा। दुकानों पर सजे नए टीवी ऐसे लगते थे मानो शहर अपनी ही परछाईं को चकित होकर निहार रहा हो। सीता-हरण का दृश्य देखकर माँओं ने आँचल से आँसू पोंछे, और बच्चों ने पहली बार नीला आकाश सचमुच के नीले में चमकता देखा। टेलीविज़न सिर्फ़ दिखाता नहीं था—वो हमें जीना सिखाता था। ‘हम लोग’ ने हमें बताया कि साधारण इंसान भी असाधारण संघर्ष कर सकता है। ‘बुनियाद’ ने बँटवारे के घावों को फिर से कुरेदा, ताकि हम भूल न जाएँ कि नफ़रत की कीमत कितनी भारी होती है।
और फिर आया 90 का दशक। स्टार, ज़ी, सोनी। एक चैनल से सैकड़ों चैनल, सैकड़ों आवाज़ें। दूरदर्शन का एकाधिकार टूटा और सपनों की खुली मंडी लग गई। ‘शांति’ ने बताया कि औरत भी बोल सकती है। ‘तारा’, ‘हिप हिप हुर्रे’ ने दिखाया कि बच्चे भी इंसान होते हैं। केबल वाला भैया जब छत पर एंटीना घुमाता था, तो हम सैटेलाइट के ज़रिए पूरी दुनिया को अपने ड्रॉइंग रूम में बुला लेते थे। सीएनएन पर गल्फ वॉर लाइव देखा, एमटीवी पर माइकल जैक्सन को मूनवॉक करते देखा। टेलीविज़न अब सिर्फ़ भारतीय नहीं रहा, वो ग्लोबल हो गया।
फिर आया रियलिटी टीवी का दौर—जहाँ स्क्रीन सिर्फ़ कहानी नहीं, किस्मत लिखने लगी। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ ने साबित किया कि आम आदमी भी करोड़पति बन सकता है। एक सवाल, एक जवाब, और पूरी ज़िंदगी बदल जाती है। ‘इंडियन आइडल’ ने गलियों के गवैयों को स्टार बनाया। ‘बिग बॉस’ ने हमें दिखाया कि इंसान कितना नीचे गिर सकता है जब कैमरा 24 घंटे उस पर लगा हो। टेलीविज़न अब महज़ मनोरंजन नहीं रहा, वो समाज का असली आईना बन गया; कभी हँसाता, कभी रुलाता, कभी उबाल देता, और कभी अपनी ही परछाईं से शर्मिंदा कर जाता।
आज जब हम नेटफ्लिक्स, प्राइम, हॉटस्टार पर बिंज करते हैं, तब भी टेलीविज़न ज़िंदा है। वो अब सिर्फ़ डिब्बा नहीं—वो हमारी जेब में है, हमारी उँगलियों पर है। पर उसकी असली ताकत अब भी वही है—लोगों को एक साथ बाँधने की। 2020 का लॉकडाउन याद है? जब ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ फिर से चले थे, तो पूरा देश एक ही समय, एक ही सांस में कहानी देख रहा था। करोड़ों स्क्रीन पर एक ही दृश्य। एक ही संवाद। एक ही भाव। टेलीविज़न ने फिर साबित किया—वो सिर्फ़ तकनीक नहीं, वो भावना है। वो संस्कृति है। वो स्मृति है।
Read More दमघोंटू हवा पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती- अब नियमित सुनवाई से जुड़ेगी दिल्ली की सांसों की लड़ाईविश्व टेलीविज़न दिवस हमें ठहरकर यह सोचने पर मजबूर करता है कि हम इस स्क्रीन को आखिर कैसे देख रहे हैं—सिर्फ़ मनोरंजन उगलती मशीन के रूप में, या दुनिया को नया अर्थ देने वाली एक अतिरिक्त आँख के रूप में? टीवी केवल देखने की क्रिया नहीं, जागने का अनुभव भी बन सकता है। यह बताता है कि कहानियों की शक्ति असीम है, कि कभी-कभी एक अकेला दृश्य हज़ार शब्दों से भी गहरी चोट या गहरा सुकून दे सकता है। यही वह ताकत है जिसने हमें स्थानीय चौखट से उठाकर वैश्विक नागरिक बनाया—दृष्टि को सीमाओं की दीवारों के पार ले जाकर। और यही याद दिलाता है कि इंसान की कहानी चाहे कहीं भी जन्म ले, उसकी गूँज दुनिया के हर कोने में सुनाई दे सकती है।
इस दिन यह स्वीकार करना जरूरी है कि टेलीविज़न ने न सिर्फ हमारी आदतें, बल्कि हमारी संवेदनाएँ भी बदल दी हैं। उसने हमें वह दुनिया दिखा दी, जिसके दरवाज़े शायद हमारे लिए कभी खुल ही नहीं पाते। यह वह प्रकाश है जो समय के अंधेरे कोनों को चीरकर हमारे पास आता है—कभी चेतावनी बनकर, कभी उम्मीद बनकर। और शायद यही उसकी सबसे बड़ी खासियत है: टेलीविज़न ऐसा माध्यम है जो सिर्फ बताता नहीं, बल्कि जोड़ता है; सिर्फ दिखाता नहीं, बल्कि दिशा देता है; और सिर्फ मनोरंजन नहीं करता, बल्कि मानवता के साझा भविष्य पर अपनी तेज़, गहरी स्याही से खिंचती हुई एक अमिट रेखा है।

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