अभी भी मिट्टी की खुशबू बची है।

अभी भी मिट्टी की खुशबू बची है।

संजीव-नीl

अभी भी मिट्टी की खुशबू बची है।

लोहे और सीमेंट के अनंत फैलते जंगल में
एक छोटा सा कोना अब भी साँस लेता 
जहाँ पौधों की कुछ टहनियाँ
धूल में हरियाली का सपना बुनती।

पत्ते जो धूप नहीं देखते,
फिर भी धूप को याद करते,
वे फूल
जो किसी बच्चे की हँसी की तरह
बिना मौसम के भी खिल उठते।
दिल के एक कोने में भी वैसा ही कोना
जहाँ अब भी मिट्टी की खुशबू बची,
जहाँ बचपन की बारिशें आती चुपचाप,
और बीते दिनों की छाँव
धीरे-धीरे ठहर जाती  आँखों में।

यह हरियाली कोई पौधा नहीं,
यह स्मृति समय की
जब हवा में कंक्रीट की गंध नहीं थी,
जब पेड़ केवल पेड़ नहीं,
दोस्त हुआ करते थे।

अब भी जब कोई पत्ता गिरता,
दिल में हल्की-सी सरसराहट होती ,
मानो कोई पुराना नाम पुकार रहा हो
“मत भूलो हमें
तुम्हारी साँसों के साथी।”
अब भी एक हरा शब्द बचा
जो किसी आंगन पर उग सकता
मनुष्य का अंतिम अर्थ
किसी पौधे की नमी में छिपा
सीमेंट के बीच भी
यदि कोई नन्हा अंकुर मुस्कराता
तो समझिए
अब हम पूरी तरह पत्थर नहीं हुए।

संजीव ठाकुर

About The Author

स्वतंत्र प्रभात मीडिया परिवार को आपके सहयोग की आवश्यकता है ।

Post Comment

Comment List

आपका शहर

अंतर्राष्ट्रीय

Online Channel