ऑनलाइन गेमिंग पर संतुलित दृष्टिकोण जरूरी

ऑनलाइन गेमिंग पर संतुलित दृष्टिकोण जरूरी

आज के डिजिटल युग में ऑनलाइन गेमिंग एक बड़ी सामाजिक और आर्थिक चुनौती बनकर सामने आई है। एक ओर यह आधुनिक तकनीक का आकर्षक उपहार है, तो दूसरी ओर इसकी लत समाज और युवा पीढ़ी के लिए खतरनाक साबित हो रही है। इस विषय पर विचार करते समय एकतरफा दृष्टिकोण अपनाना उचित नहीं होगा, बल्कि हमें इसके फायदे और नुकसान दोनों पर संतुलित चर्चा करनी चाहिए। सबसे पहले इसके नकारात्मक पहलुओं पर नज़र डालें। ऑनलाइन गेम एक मायाजाल की तरह है, जिसमें खिलाड़ी इतना रम जाता है कि उसे अपने परिवेश की सुध तक नहीं रहती।

घंटों मोबाइल या लैपटॉप की स्क्रीन पर चिपके रहने से न केवल शरीर सुस्त पड़ जाता है, बल्कि मानसिक तनाव भी बढ़ता है। शोध बताते हैं कि इसकी लत अवसाद, चिंता और नींद की समस्याओं को जन्म देती है। कई युवाओं ने ऑनलाइन गेम में पैसे डुबोकर आर्थिक संकट का भी सामना किया है। आंकड़े बताते हैं कि देश में 45 करोड़ से अधिक लोग पैसे वाले ऑनलाइन गेम्स की गिरफ्त में हैं और सालाना लगभग 20,000 करोड़ रुपये इस लत में गंवा रहे हैं। जाहिर है, यह न केवल व्यक्ति बल्कि समाज और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए नुकसानदेह है। इसके अलावा, इन खेलों के प्रचार-प्रसार का तरीका भी चिंताजनक है। बड़े फिल्मी सितारे और क्रिकेटर इनका विज्ञापन करते हैं, जिससे छोटे-छोटे बच्चे तक आकर्षित हो जाते हैं। वे आसानी से यह मान बैठते हैं कि खेलना ही रातों-रात अमीर बनने का रास्ता है।

नतीजा यह होता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान देने के बजाय युवा अपनी ऊर्जा और धन इन आभासी खेलों में गँवा बैठते हैं। इस दृष्टि से सरकार का कदम - पैसे वाले ऑनलाइन गेम्स को प्रतिबंधित करना - समाज के लिए एक ज़रूरी और सकारात्मक पहल है। लेकिन यदि केवल नुकसान की ही बात की जाए, तो तस्वीर अधूरी रह जाएगी। सच यह भी है कि ऑनलाइन गेमिंग ने कई युवाओं को रोजगार और पहचान भी दी है। जिनके पास सीमित साधन थे, उन्होंने छोटे निवेश से बड़े पुरस्कार जीतकर अपने सपने पूरे किए हैं। कई युवाओं ने गेमिंग कौशल के बल पर करियर बनाया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन किया है। तकनीक और डिजिटलीकरण के इस दौर में ऑनलाइन गेम्स को पूरी तरह नकारना आसान नहीं है।

दरअसल, समस्या इन खेलों के अस्तित्व में नहीं, बल्कि इनके "अनियंत्रित इस्तेमाल" में है। जिस तरह मिठाई का ज्यादा सेवन मधुमेह का कारण बन सकता है, उसी तरह ऑनलाइन गेमिंग की अति भी हानिकारक है। इसलिए पूर्ण प्रतिबंध समाधान नहीं हो सकता। प्रतिबंध से अक्सर "चोर दरवाजे" खुल जाते हैं, जिससे गैरकानूनी तरीके से खेल खेले जाने लगते हैं और सरकार को राजस्व का नुकसान भी उठाना पड़ता है।
बेहतर यह होता कि सरकार ऑनलाइन गेम्स के लिए सख्त नियम-कानून बनाती। जैसे- न्यूनतम आयु सीमा, खर्च की सीमा, समय की सीमा और पारदर्शी लेन-देन की व्यवस्था। साथ ही, ऑनलाइन गेमिंग कंपनियों को सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। इसके समानांतर, युवाओं में जागरूकता फैलाना भी उतना ही ज़रूरी है। अगर उन्हें समझाया जाए कि गेम खेलना मनोरंजन तक सीमित रहे, तो शायद "लत" जैसी समस्या पैदा ही न हो।

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सकारात्मक पहलू यह भी है कि सरकार ई-स्पोर्ट्स और सोशल गेमिंग को बढ़ावा देना चाहती है। ये खेल न केवल कौशल को निखारते हैं, बल्कि टीमवर्क, धैर्य और प्रतिस्पर्धा जैसी मानवीय गुणों को भी मजबूत करते हैं। अगर युवाओं को सही दिशा और प्लेटफॉर्म मिले, तो वे ऑनलाइन गेमिंग का उपयोग भी अपने करियर और व्यक्तित्व विकास में कर सकते हैं।
अंततः कहा जा सकता है कि ऑनलाइन गेमिंग न तो पूरी तरह बुरी है और न ही पूरी तरह अच्छी।

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यह हमारे दृष्टिकोण और उपयोग पर निर्भर करता है। अगर इसे नियंत्रित दायरे में रखा जाए, तो यह मनोरंजन और करियर दोनों का साधन बन सकती है। लेकिन यदि इसे लत बनने दिया जाए, तो यह मानसिक और आर्थिक विनाश का कारण भी बन सकती है। इसलिए ज़रूरत है संतुलन की - सरकार नियम बनाए, समाज जागरूकता फैलाए और युवा आत्मअनुशासन का पालन करें। तभी यह डिजिटल युग का उपहार एक वरदान साबित हो सकेगा, वरना यह अभिशाप बनकर भविष्य को निगल सकता है।

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 महेन्द्र तिवारी

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