दिल्ली के नतीजे में क्षेत्रीय दलों के लिए संदेश

दिल्ली के नतीजे में क्षेत्रीय दलों के लिए संदेश

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन से जन्मी आम आदमी पार्टी का दिल्ली विधानसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन ने उस सपने को भी चकनाचूर कर दिया,जिसमें देश की जनता ने कभी साफ-सुथरी राजनीति की उम्मीद देखी थी।अन्ना आंदोलन के वक्त देश के लोगो को लगा कि एक नया प्रयोग है और वैकल्पिक राजनीति की धारा बहेगी।इसी लिए लोग अपने काम धंधे छोड़ कर इससे जुड़े।बच्चों ने अपने गुल्लक तोड़ कर इसे बढ़ाने के लिए चंदा दिया।लेकिन आप के गठन के बाद से 2025 तक वह अपने वास्तविक उद्देश्य को भूलने के साथ ही प्रचलित राजनीति का हिस्सा बन गई।
 
शराब घोटाला और शीश महल में रहने की बात छोड़ भी दिया जाए तो भी अरविंद केजरीवाल उस किसी मानदंड पर खरे नहीं उतरे,जो उन्होंने रामलीला मैदान में महात्मा गांधी की फोटो के नीचे तय किए थे।केजरीवाल का आम आदमी झुग्गी झोपड़ी वालों, रेहड़ी पटरी वालों,आटो ड्राइवर और दलितों के लिए वजूद में आया था।उनके आम आदमी ने वादा किया था कि धर्म की राजनीति से उसका कोई वास्ता नहीं रहेगा।
 
सरकारी सुविधाएं नहीं लेंगे,जो बाद में उन्होंने दूसरों से ज्यादा ली।उनका आम आदमी जल्दी ही मजहबी हो गया।धार्मिक स्थल उसके ऐजेंडा में शामिल हो गए।वह शिक्षा,चिकित्सा,विकास एवं बदलाव के मुद्दों को भूल कर वादों की खानापूर्ति पर उतर आया।आम आदमी पार्टी के और उसके नेताओं के दफ्तरों से बापू की तस्वीर ही उतर गई।अगर देखा जाए तो दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे सिर्फ भाजपा की सफलता की नहीं बल्कि यह उस पार्टी के पतन की भी कहानी कह रहे हैं जिसके आईने में लाखों लोगों ने बदलाव का सपना देखा था।
 
दरअसल बड़ा कड़वा सच है कि रेत की नींव पर राजनीतिक महल की उम्र कितनी होती है?आम जनता एक अच्छी सरकार और विकास चाहती है,लेकिन राजनीति की धुंध में विकास ऐसा शब्द है,जो हमेशा खो जाता है।स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, पीने का साफ पानी जैसे मुद्दे राजनीतिक अखाड़े में दम तोड़ देते हैं।आपको याद होगा कि 2005 के आसपास सूचना के अधिकार पर अरविंद केजरीवाल सक्रिय थे।एक गंभीर लड़ाई लड़ रहे थे वह।तब सबने सोचना शुरू कर दिया कि काश,ऐसे लोग सक्रिय राजनीति में आ जाएं तो समाज, राज्य और देश की काया पलट सकती है।
 
सूचना के अधिकार पर सक्रिय लोग कुछ वर्ष के बाद अन्ना हजारे के आंदोलन के साथ लोकपाल के लिए सक्रिय दिखे। नौकरी करने वाले ढेर सारे लोगों ने नौकरी छोड़ दी।कॉलेज के विद्यार्थी तक अपनी पॉकेट खर्च बचाकर उन्हें ऑनलाइन चंदा भेज रहे थे।तब सब कुछ साफ-साफ था।लेकिन क्या करें सत्ता का गणित कुछ ऐसा है कि उसमें सारी पारदर्शिता शून्य में बदल जाती है।आप पार्टी के प्रचंड बहुमत में दिल्ली कितनी सुखी और साफ-सुथरी हुई, इस पर बहस सालों से हो रही है।
 
आगे भी होती रहेगी। बेहतर की उम्मीद में जनता ने एक नई पार्टी को मौका दिया था। ऐसी पार्टी, जिसका कोई राजनीतिक इतिहास न था।लेकिन आम जनता ने समझ लिया कि ईमानदार होने का दावा करना और ईमानदार होना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार का गहरा असर अरविंद केजरीवाल की राजनीति पर पड़ेगा।चार हजार से अधिक वोटों से हारने वाले ये वही केजरीवाल हैं जिन्होंने मंच से कहा था,मेरे जिंदा रहते भारतीय जनता पार्टी दिल्ली में कभी चुनाव नहीं जीत सकती।ये अहंकार.वो भी राजनीति में।हालांकि जनता में या कहिए समर्थकों को शुरू-शुरू में ये रास आया।केजरीवाल खुद को आंदोलन से उपजे नेता और कट्टर ईमानदार कहा करते थे।लेकिन अन्ना को दगा, राजनीति में न आने की कसम और मजबूत करीबियों का ‘विश्वास’ तो उन्होंने पहले ही खो दिया।
 
इससे पहले सत्ता के लिए कांग्रेस से हाथ मिला ही चुके थे।वो भी तब जब राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार ने कांग्रेस पर लगे दागों की संख्या बढ़ा दी थी।फिर दूसरे टर्म शराब घोटाला,लो फ्लोर बस,मोहल्ला क्लिनिक,जल बोर्ड के घपले सामने आए।मतलब वैकल्पिक राजनीति के अगुआ और उनकी पूरी टीम कठघरे में खड़ी हो गई।फिर आम आदमी सोचने लगा कि परम्परागत राजनीति और केजरीवाल की वैकल्पिक राजनीति में क्या फर्क है।बड़े दावे करने वाले केजरीवाल जांच एजेंसी को अपनी ईमानदारी का सबूत नहीं पेश कर सके।जिससे उनको जेल की हवा खानी पड़ी।
 
यानी जिस भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर केजरीवाल का आम आदमी अस्तित्व में आया था,वह खुद उसी भ्रष्टाचार के दलदल में गहरे तक धंस गया।।दूसरी तरफ मोदी मार्का राजनीति आप के हर दावे को झूठ बताकर तार तार कर रही थी।पीएम मोदी ने लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों में कहीं भी मोदी गारंटी का जिक्र नहीं किया।लेकिन उन्होंने दिल्ली चुनाव के प्रचार में बार बार मोदी गारंटी का जिक्र किया।एक चुनावी सभा में तो उन्होंने एक दर्जन बार से विधायक मोदी गारंटी का जिक्र किया।शायद यही वजह रही कि चुनाव मतदान तक मोदी बनाम केजरीवाल हो गया।
 
दिल्ली की सड़कों की हालत,हवा में घुलता जहर आम आदमी पर सीधा असर डाल रहा था।वहीं बिना रोजगार दिए मुफ्त बिजली-पानी केजरीवाल के बेस वोटर यानी मिडल क्लास और स्लम के युवाओं को भी नागवार गुजरा।भाजपा ने दांव खेला और केजरीवाल की मुफ्त योजनाओं को जारी रखते हुए उसका टाप अप प्लान पेश कर दिया।हालांकि हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस की गारंटी फेल हो चुकी थी।क्यों कि जो पार्टी सत्ता में हो उसी की गारंटी पर भरोसा ज्यादा रहा है।ये झारखंड में भी हुआ जहां हेमंत सोरेन की गारंटी पर ही जनता ने भरोसा जताया।
 
लेकिन दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के अहंकार, उन पर भ्रष्टाचार के लगे आरोपों के देख कर जनता ने तय कर लिया वो यहां अब ऐसा नहीं होने देगी।अरविंद केजरीवाल की पार्टी भ्रष्टाचार आंदोलन से निकलकर आई थी,लेकिन 10 साल बाद ही पार्टी के बड़े नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे।अरविंद केजरीवाल,मनीष सिसोदिया और संजय सिंह को तो शराब घोटाले में जेल तक जाना पड़ गया।आप पर जो गंभीर आरोप लगे,उसके नैरेटिव को पार्टी खत्म नहीं कर पाई।इसके अलावा कैग की रिपोर्ट में भी आप पर हॉस्पिटल निर्माण आदि में भ्रष्टाचार के आरोप लगे।
 
आप ने कैग की रिपोर्ट पर बहस कराने की बजाय इसे इग्नोर करने की कोशिश की। पूरे चुनाव में भ्रष्टाचार के मुद्दे की गूंज रही।वहीं केजरीवाल सिर्फ लाभार्थी वोटरों के भरोसे थे।केजरीवाल पिछले दो चुनाव से फ्री बिजली और पानी के जरिए अपनी राजनीति को आगे बढ़ा रहे थे।इसका ज्यादा फायदा उठाने वाला वर्ग मिडिल और लोअर क्लास के थे।दिल्ली के दंगल से पहले बीजेपी ने इन वोटरों को साध लिया।पार्टी ने 12 लाख तक टैक्स फ्री कर अरविंद केजरीवाल का खेल कर दिया।वहीं आम आदमी पार्टी को पिछले 2 चुनावों में मुस्लिम और दलित बहुल इलाकों में बड़ी जीत मिली थी,लेकिन इस बार दोनों ही इलाकों में आप से ये वोटर्स छिटकते नजर आए।
 
दरअसल,दिल्ली में जब भी मुसलमानों पर संकट आया,आप मुखर होने की बजाय खामोश हो गई।इसके अलावा केजरीवाल ने बीच में कुछ ऐसे बयान भी दिए जो मुसलमानों को नागवार लगे।इसी लिए भाजपा के आने की सम्भावना के बाद भी चुनाव में मुसलमानों ने एकतरफा आप को सपोर्ट नहीं किया,जिसके कारण आप नजदीकी मुकाबले में पिछड़ गई।कांग्रेस से गठबंधन न करके भी आप ने बड़ी भूल की।दिल्ली में कांग्रेस भले ही कोई सीट जीतने में कामयाब न हुई हो और कई सीटों पर उसके उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा सके।लेकिन 14 सीटें ऐसी थी जहां कांग्रेस को मिले वोट आप की हार के अंतर से कहीं ज्यादा था।
 
इसमें से कई सीटें मुस्लिम बाहुल्य थी,जहां मुसलमानों ने आप के बदले कांग्रेस को वोट कर दिया।अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया की हार की वजह भी इन सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवार ही थे।यहां तक की दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी भी हारते हारते बची।दरअसल हरियाणा में आम आदमी पार्टी चाहती थी कि कांग्रेस से गठबंधन हो लेकिन राहुल गांधी तैयार नहीं हुए थे।दिल्ली में कांग्रेस चाहती थी कि आम आदमी पार्टी से गठबंधन हो लेकिन अरविंद केजरीवाल तैयार नहीं हुए थे।
 
आंकड़े बताते हैं कि अगर गठबंधन होता तो दिल्ली की तस्वीर कुछ और हो सकती थी।जहां बीजेपी को 45.56 फ़ीसदी वोट मिले वहीं आम आदमी पार्टी को 43.57 फ़ीसदी वोट मिले।यहां तीसरे खे़मे के रूप में कांग्रेस थी जिसका वोट प्रतिशत 6.34 फ़ीसदी रहा।ये 2020 के चुनावों में उसके प्रदर्शन से बेहतर था, जब उसे 4.63 फ़ीसदी वोट मिले थे।साफ जाहिर है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे का संदेश दिल्ली तक ही सीमित नहीं रहेगा।इसका असर समूचे देश की राजनीति पर पड़ने वाला है।
 
इससे इंडिया गठबंधन भी गहरे तक प्रभावित होगा।दिल्ली के नतीजों ने ये भी साबित कर दिया है कि देश की जनता को भाजपा के हिंदुत्व के अलावा और किसी का हिंदुत्व पसंद नहीं है।जब उसे हिंदुत्व के मुद्दे पर ही अपनी सरकार चुन्नी है तो फिर भाजपा में क्या बुराई है जो खुल कर अपने को सनातन धर्म की रक्षक बताती है।देश में हिन्दुत्व की राजनीती में भाजपा अब इकलौती खिलाड़ी है,यहाँ तक कि उसने शिवसेना को भी बाहर कर दिया।कांग्रेस और अखिलेश यादव साफ्ट हिंदुत्व का प्रयोग कई बार कर चुके हैं लेकिन सफल नहीं हुए।केजरीवाल ने भी ऐसा ही प्रयोग कर रहे थे।
 
दिल्ली में केजरीवाल की हार ये भी बता रही है कि देश में देश में क्षेत्रीय पार्टियों की पकड़ कमज़ोर हुई है।ओडिशा में नवीन पटनायक को बीजेपी ने पटखनी दी,बिहार में जेडीयू को जूनियर पार्टनर बना चुकी है, महाराष्ट्र में शिवसेना को कमज़ोर कर चुकी है,हरियाणा से आईएनएलडी निष्प्रभावी हो गया है,तेलंगाना में बीआरएस कमज़ोर हो चुकी है।उत्तर प्रदेश और बिहार के कई प्रभावशाली छोटे दल पहले ही भाजपा के पाले में हैं।
 
मज़ेदार बात ये है कि ये छोटे दल बड़े क्षेत्र में वोट बैंक रखते हैं लेकिन वह चुनावी जीत में इसे तभी बदल पाते हैं जब उनको भाजपा का साथ मिलता है।इस लिए वह भाजपा से सीटों की परफेक्ट सौदेबाजी नहीं कर पाते हैं।अब कांग्रेस के पास मौका है कि वह दिल्ली और पंजाब में अपनी खोई हुई जमीन को फिर से वापस लेने की कोशिश करें।अरविंद केजरीवाल को मिली हार के बाद अब राहुल गांधी खुद को विपक्ष के सबसे बड़े चेहरे के रूप में आगे कर सकते हैं।
 
केजरीवाल की हार ने राहुल गांधी के लिए खुद को इंडिया ब्लॉक के स्वाभाविक नेता के रूप में स्थापित करने का रास्ता खोल दिया है।वहीं केजरीवाल के भविष्य को लेकर भी राजनीतिक हलकों में चर्चा का दौर अभी से शुरू हो गया है।तरह तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।लेकिन ऐसा लगता नहीं कि बड़ी हार के बाद केजरीवाल पंजाब या फिर राज्यसभा का रूख करेंगे।वह दिल्ली में ही रह कर पार्टी के लिए मंथन करेंगे।लेकिन अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि केजरीवाल अपनी लगभग खोई हुई,धूमिल हो चुकी छवि को कैसे सुधारेंगे। दरअसल जब आम आदमी पार्टी अगर खड़ी हुई थी,तो उसके पीछे अरविंद केजरीवाल की साख थी,जो उस समय किसी दूसरे राजनीतिज्ञों के पास नहीं थी।
 
एक मजबूत लीडरश‍िप थी।कट्टर ईमानदारी और इंसानियत का तमगा भी उनके पास था।अरविंद केजरीवाल ने इसी के दम पर द‍िल्‍ली से लेकर पंजाब तक राज क‍िया। फिर गुजरात में भी ताकत बढ़ाई।लेकिन अब उनकी इसी ताकत पर सवाल है।मॉडल स्‍टेट का सपना चकनाचूर हो गया है।वह मोदी के गुजरात माडल का जवाब नहीं दे सके।वे खुद अपनी सीट हार गए हैं।इसी लिए अब उनके सामने बड़ी चुनौती पंजाब,गोवा, गुजरात से लेकर अन्य राज्यों तक पार्टी को एकजुट बनाए रखने की बड़ी चुनौती होगी।

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