चढ़ने लगा दिल्ली का सियासी पारा
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आज हर तरफ चर्चा का विषय बना हुआ है 2025 के आरंभ में होने वाला दिल्ली विधानसभा चुनाव, सतारूढ दल द्वारा नई-नई घोषणाए की जा रही है, आरोप-प्रत्यारोप का बाजार पूरे उबाल पर है, राजनीतिक पार्टियां उम्मीदवारों की घोषणा कर रही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ रही तीन प्रमुख पार्टियों में से आम आदमी पार्टी ने अपने सभी उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं, कांग्रेस ने लगभग आधी सीटों पर नामों की घोषणा कर दी है।
वहीं भाजपा ने अभी तक एक टिकट भी किसी को नही दी है यानि कहीं टिकट मिलने की खुशी है, कहीं टिकट ना मिलने का गम है और कहीं अभी टिकट की प्रतीक्षा हो रही है। सभी प्रत्याशी और संभावित प्रत्याशी नगर, गांव के दौरे कर रहे हैं। मतलब यह कि दिल्ली पर धीरे-धीरे चुनावी रंग चढ़ता जा रहा है। भारत की आजादी के बाद देश की राजधानी दिल्ली में पहले विधानसभा चुनाव 27 मार्च 1952 में हुए थे। उन चुनावों में कांग्रेस ने 48 में से 39 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल किया था।
भारतीय जनसंघ ने 5 , सोशलिस्ट पार्टी ने 2, अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने 1 और 1 सीट पर स्वतंत्र उम्मीदवार ने जीत हासिल की थी। चौ. ब्रह्म प्रकाश यादव दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने। उस समय दिल्ली के 6 विधानसभा क्षेत्र ऐसे थे जहां एक ही क्षेत्र के लिए दो-दो विधायक चुने गए थे। इनमें से एक क्षेत्र तो ऐसा था जहां कांग्रेस और जनसंघ दोनों के विधायक जीते। जिन सीटों पर दो-दो विधायक चुने गए वे रीडिंग रोड, सीताराम बाजार तुर्कमान गेट, रेगरपुरा देव नगर, पहाड़ी धीरज बस्ती जुलाहा, नरेला और महरौली थी। रीडिंग रोड विधानसभा क्षेत्र से एक कांग्रेस और एक जनसंघ का विधायक जीता।
दिल्ली विधानसभा पहली बार 7 मार्च 1952 को गठित हुई और दिल्ली मेट्रो काउंसिल वजूद में आई। 1952 में हुए दिल्ली के पहले विधानसभा में चुनाव आयोग के आंकड़ो के अनुसार 5 लाख 21 हजार 766 रजिस्टर्ड वोटर थे। जिसमें से 58.52 प्रतिशत वोटरों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। कुल पड़े वोटों में से कांग्रेस को 52 प्रतिशत वोट मिले थे यानि आधे से ज्यादा। भारतीय जनसंघ को करीब 22 प्रतिशत वोट मिले थे। जनसंघ ने 31 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। कांग्रेसी चौधरी ब्रह्म प्रकाश 1955 तक सीएम रहे। उनके बाद कांग्रेस के ही सरदार गुरुमुख निहाल सिंह दिल्ली के दूसरे मुख्यमंत्री बने। चौधरी ब्रह्म प्रकाश दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने और वहीं सुषमा स्वराज के नाम दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड दर्ज है। संविधान का 69वां संशोधन एक्ट, 1991 दिल्ली को विशेष राज्य का दर्जा देता है। इस एक्ट के अनुसार दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घोषित किया गया है और उपराज्यपाल को दिल्ली के प्रशासक के रूप में नामित किया गया है।
दिल्ली देश का एकमात्र केंद्र शासित प्रदेश है जिसके मुख्य कार्यकारी मुख्यमंत्री हैं। 1952 से लेकर अब तक 7 मुख्यमंत्री रह चुके हैं। आतिशी 8वीं सीएम हैं। दिल्ली की सता पर सबसे अधिक 15 साल तक किसी एक सीएम ने राज किया वो शीला दीक्षित हैं। जबकि केजरीवाल 10 साल 9 महीने तक मुख्यमंत्री रह दूसरे नम्बर पर हैं। दिल्ली के इतिहास में 01 नवंबर 1956 का दिन खास महत्त्व रखता है। विधानसभा भंग करके दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था। केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था बदल गई। उपराज्यपाल का शासन आ गया। केंद्र सरकार ने 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया था।
इस कमीशन की बागडोर फज़ल अली को सौंपी गई जिसे फजल अली कमीशन भी कहा जाता है, जिसकी सिफारिशों के आधार पर ही दिल्ली से राज्य का दर्जा छीन लिया गया। आयोग ने दिल्ली विधानसभा को 1956 में भंग किए जाने के बाद इस आयोग ने पाया कि राजधानी में दोहरे शासन से पूरी व्यवस्था चरमरा गई है। ऐसे में यहां एक ही शासन हो सकता है हालांकि उन्होंने ये जरूर कहा कि स्थानीय लोगों की महत्वाकांक्षा के लिए नगर निगम के शासन की जरूरत है, जो स्थानीय स्तर पर लोगों की समस्याओं का समाधान कर सके। ऐसे में फजल अली कमीशन की सलाह पर दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन एक्ट के द्वारा दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन की स्थापना हुई।
साल 1957 में दिल्ली नगर निगम एक्ट बनाने का काम शुरू किया गया, जिससे दिल्ली को निगम मिला। 1966 में केंद्र सरकार ने दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट 1966 पास किया। इससे दिल्ली में मेट्रोपॉलिटन काउंसिल का निर्माण हुआ, जिसमें 56 सदस्य चुने हुए और पांच मनोनीत सदस्य थे। इसके साथ ही एक एक्जीक्यूटिव काउंसिल होती थी, जिसमें चार काउंसलर राष्ट्रपति द्वारा चुने जाते थे। दिल्ली में मेट्रोपॉलिटन काउंसिल बन तो गया, लेकिन इसके पास कोई शक्ति नहीं थी,यह सिर्फ सिफारिशें कर सकता था और बजट प्रस्ताव रख सकता था। दिल्ली के प्रमुख उपराज्यपाल होते थे और नगर पालिका के पास विधायी शक्तियां नहीं थी। इसके चलते मेट्रोपॉलिटन काउंसिल बॉडी सिर्फ उपराज्यपाल को सलाह दे सकती थी। दिल्ली में उपराज्यपाल ही मुखिया हुआ करते थे।
दिल्ली के शासन और प्रशासन की जिम्मेदारी का दारोमदार पूरी तरह उपराज्यपाल के कंधों पर था।अस्सी के दशक में दिल्ली राज्य की मांग तेज होने लगी। दिल्ली में प्रशासनिक सुधार के लिए 1987 में सरकारिया कमेटी का गठन किया गया, जिसे बाद में बालाकृष्णन कमेटी के नाम से जाना गया। 14 दिसंबर, 1989 को सरकारिया कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस कमेटी ने सिफारिश की थी कि दिल्ली को अपनी सरकार मिलनी ही चाहिए, भले ही कुछ क्षेत्र पर केंद्र का नियंत्रण हो। इसमें दिल्ली में विधानसभा बनाने का प्रस्ताव दिया गया था। इसके बाद नए कानून आने तक यानि 1993 तक दिल्ली में विधानसभा चुनाव नही हुए। इस केंद्र शासित प्रदेश में 1956 से लेकर 1993 तक दिल्ली पर केंद्र सरकार का नियंत्रण रहा।
(नीरज शर्मा'भरथल')
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