सरकारी सेवक अपनी सम्पत्ति सार्वजनिक करने से क्यों कतरा रहे हैं

सरकारी सेवक अपनी सम्पत्ति सार्वजनिक करने से क्यों कतरा रहे हैं

 

डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)

    उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने अप्रैल-2022 में निर्देश जारी किया था कि सभी आइएएस, आइपीएस और प्रांतीय संवर्ग के अधिकारी अपनी चल-अचल सम्पत्ति की घोषणा करें| लेकिन अधिकारियों ने सम्भवतः मुख्यमन्त्री के निर्देश को हवा में उड़ा दिया| अतः मुख्य सचिव द्वारा सभी विभागों के लिए इस सन्दर्भ में शासनादेश निर्गत किया गया है| जिसके अनुसार राज्य के सभी अधिकारियों और कर्मचारियों को 31 दिसम्बर तक मानव सम्पदा पोर्टल पर अपनी चल-अचल सम्पत्ति का ब्यौरा अनिवार्य रूप से प्रस्तुत करना होगा| जो अधिकारी ऐसा नहीं करेंगे उनकी पदोन्नति के मामले पर विचार नहीं किया जायेगा| शासनादेश में पदोन्नति की शर्त जोड़ना यह सिद्ध करता है कि सरकारी तन्त्र को अपनी कमाई सार्वजनिक करने में कतई रूचि नहीं है| 

इसका एकमेव कारण यही हो सकता है कि अपनी सम्पत्ति को सार्वजनिक करने में टाल-मटोल करने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों ने आय से कहीं अधिक सम्पत्ति अर्जित की है| अन्यथा बिना किसी निर्देश या शासनादेश के ही उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक नियमावली 1956 के तहत ही सभी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी प्रतिवर्ष अपनी सम्पत्ति का विवरण दे रहे होते| कोई कितना भी बड़ा दावा क्यों न करे लेकिन यह सत्य है कि सरकारी तन्त्र में नीचे से ऊपर तक व्याप्त भ्रष्टाचार कम होने की बजाय निरन्तर बढ़ रहा है| शायद मुख्यमन्त्री को इस बात का अहसास भी है और इसीलिए उन्हें इस तरह का निर्देश जारी करना पड़ा| जिसका अनुपालन नहीं होता देख मुख्य सचिव को शासनादेश निर्गत करने की जरुरत पड़ी, वह भी पदोन्नति के मामले पर विचार न करने की शर्त के साथ|    

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक नियमावली 1956 के नियम (24) के उपनियम (3) में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि ‘प्रथम नियुक्त के समय और तदुपरान्त हर पांच वर्ष की अवधि बीतने पर, प्रत्येक सरकारी कर्मचारी, उचित माध्यम से, नियुक्ति करने वाले प्राधिकारी को, ऐसी सभी अचल सम्पत्ति की घोषणा करेगा जिसका वह स्वयं स्वामी हो, जिसे उसने खुद अर्जित किया हो, या जिसे उसने दान के रूप में पाया हो या जिसे वह पट्टा या रेहन पर रखे हो, और ऐसे हिस्से की या अन्य लगी हुई पूंजियों की घोषणा करेगा, जिन्हें वह समय समय पर रखे या अर्जित करे या उसकी पत्नी या उसके साथ रहने वाले या किसी प्रकार भी उस पर आश्रित उसके परिवार के किसी सदस्य द्वारा रखी गयी हो या अर्जित की गयी हो| इन घोषणाओं में सम्पत्ति के हिस्सों और अन्य लगी हुई पूंजियों के पूरे ब्योरे दिये जाने चाहिए| उप नियम (4) में कहा गया है कि ‘समुचित प्राधिकारी’, सामान्य अथवा विशेष आज्ञा द्वारा, किसी भी समय किसी सरकारी कर्मचारी को यह आदेश दे सकता है कि वह आज्ञा में निर्दिष्ट अवधि के भीतर, ऐसी चल व अचल सम्पत्ति का, जो उसके पास अथवा उसके परिवार के किसी सदस्य के पास रही हो, या अर्जित की गयी हो, और जो आज्ञा में निर्दिष्ट हों, एक सम्पूर्ण विवरण पत्र प्रस्तुत करें| यदि समुचित प्राधिकारी ऐसी आज्ञा दे तो ऐसे विवरण-पत्र में उन साधनों के ब्योरे भी सम्मिलित हों, जिनके द्वारा ऐसी सम्पत्ति अर्जित की गयी थी| 

नियम (24) का उपनियम (1) तो यह भी कहता है कि कोई भी सरकारी कर्मचारी समुचित अधिकारी को जानकारी दिये बिना अचल सम्पत्ति न तो खरीद सकता है और न बेंच सकता है| कुछ मामलों में क्रय विक्रय की पूर्व स्वीकृत लेना भी आवश्यक है|’ उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक नियमावली 1956 में ऐसे अनेक नियम और उपनियम सरकारी तन्त्र के लिए बनाये गये हैं| जिनका अनुपालन यदि पूरी निष्ठा और ईमानदारी से हो तो भ्रष्टाचार जैसा शब्द प्रयोग से ही बाहर हो जाये| लेकिन उक्त नियमावली का अनुपालन होता हुआ कहीं भी दिखाई नहीं देता| इसका अर्थ यह भी नहीं है कि सभी अधिकारी और कर्मचारी भ्रष्ट हैं| लेकिन नैतिक शुचिता और पारदर्शिता भी अति आवश्यक है और यही सफल लोकतन्त्र की निशानी भी है| आय से अधिक सम्पति रखने वाले अधिकारियों एवं कर्मचारियों से सम्बन्धित समाचार आये दिन सुनने को मिलते हैं, जिनमें सम्पूर्ण सरकारी तन्त्र एक ही झटके में भ्रष्टाचार के कठघरे में खड़ा नजर आता है| वे अधिकारी भी सन्देह के घेरे में आ जाते हैं जो पूरा जीवन ईमानदारी से अपना काम करते हैं| लेकिन कदाचित ईमानदार अधिकारीगण अपनी सम्पत्ति को सार्वजनिक करना अपनी शान के खिलाफ समझते होंगे| जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है| बल्कि ऐसे अधिकारियों को एक कदम आगे बढ़कर मुख्यमन्त्री के निर्देश का पालन करना चाहिए| ताकि भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों की सरलता से पहचान की जा सके|

 यह सर्वविदित है कि भ्रष्टाचार इस देश की जड़ों में बहुत गहराई तक पहुँच चुका है| जिसका निदान असम्भव तो नहीं, मुश्किल अवश्य है| इसके लिए ईमानदार लोगों को आगे आना होगा| क्योंकि केवल ईमानदार बने रहना भर पर्याप्त नही हैं| बेईमानों की पहचान सार्वजनिक कराना भी आवश्यक है और यह तभी सम्भव है जबकि मुख्यमन्त्री के निर्देश का अक्षरशः पालन किया जाये| इससे ईमानदार अधिकारियों की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ेगी तथा इनके प्रति आम जन मानस का विश्वास बढ़ेगा| लोकतन्त्र लोक विश्वास पर आधारित है| लेकिन दुर्भाग्य से देश में लोकतन्त्र की स्थापना के बाद से लोक विश्वास के साथ निरन्तर घात पर घात हो रहे हैं और देश का आम जन अपने ही तन्त्र में लुटता-पिटता नजर आ रहा है| विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में सम्मिलित होने का स्वप्न संजोये हम साल दर साल पार करते चले जा रहे हैं| लेकिन वह स्वप्न अब दिवास्वप्न सिद्ध हो रहा है| आज जब आय के स्रोत बढ़ाने और येन केन प्रकारेण धन अर्जित करने की प्रतिस्पर्धा चल रही हो तब ईमानदार शब्द बेईमानी सिद्ध होना स्वाभाविक है| देश का आम जन आज यह मान चुका है कि उसे भ्रष्ट व्यवस्था के साथ जीना सीखना होगा|

उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक नियमावली सन 1956 में बनी थी| इस नियमावली का यदि पचास प्रतिशत भी अनुपालन प्रदेश के सरकारी तन्त्र द्वारा किया गया होता तो उत्तर प्रदेश आज न जाने कहाँ पहुँच गया होता| परन्तु दुर्भाग्य से नियमावली का अनुपालन तो दूर उलटे खुलेआम इसकी धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं| इसी नियमावली के नियम 11-क में लाल स्याही से विशेष उल्लेख किया गया है कि ‘कोई भी सरकारी कर्मचारी न तो दहेज़ लेगा न उसके देने या लेने के लिए दुष्प्रेरित करेगा और न ही वर-वधू या वर-वधू के माता-पिता या उसके संरक्षक, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी दहेज की मांग करेंगे|’ ऐसा सरकारी अधिकारी या कर्मचारी प्रदेश तो क्या पूरे देश में शायद ही ढूढे मिले, जो इस नियम का पालन करते हुए दहेज़ न लेने का विचार रखता हो| बल्कि आज तो सरकारी नौकरी दहेज़ की मजबूत गारंटी के रूप में देखी जाती है| जो जितना बड़ा सरकारी सेवक उसका उतना बड़ा दहेज़| आज जब नैतिकता और आदर्श सिर्फ बातों तक सीमित रह गये हों तब नैतिक आधार पर स्वयं से किसी नियमावली या मुख्यमन्त्री के निर्देशों का अनुपालन करने की अपेक्षा करना व्यर्थ ही है| अतः लोकतान्त्रिक मूल्यों की सुरक्षा तथा देश हित में ऐसे लोगों पर सख्त कार्रवाई की सुनुश्चितता आवश्यक है|    

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