क्यों नहीं लेते नेता राजनीति से सन्यास ?

क्यों नहीं लेते नेता राजनीति से सन्यास ?

आईपीएल- के बाद महेंद्र सिंह धोनी के क्रिकेट से पूरी तरह सन्यास लेने की खबर सुनने के बाद आज फिर मन में सवाल उठा कि अक्सर राजनीति को क्रिकेट मानने वाले नेता खिलाड़ियों की तरह राजनीति से सन्यास क्यों नहीं लेते ? राजनीति में ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जिन्होंने घोषित रूप से राजनीति से सन्यास लिया हो.

देश की आजादी के बाद के 75  साल की राजनीति के  इतिहास पर यदि नजर डालें तो आप पाएंगे कि हर राजनीतिक दल में नेता आजन्म सक्रिय रहना चाहते हैं .राजनीति में आजतक किसी ने सन्यास की उम्र घोषित नहीं की .कांग्रेस की कामराज योजना और भाजपा की मार्गदर्शक मंडल योजना इसका अपवाद हो सकती है ,किन्तु इन पर भी सच्चे मन से अमल नहीं किया गया .राष्ट्रपतियों को छोड़कर कोई भी ऐसा राजनेता नहीं है जो जीते जी राजनीति से सन्यास लेना चाहता हो .देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू हों या देश के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी किसी ने भी स्वेच्छा से राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा नहीं की.

पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल पद पर रहते ही दिवंगत हुए ..नेहरू जी 04  बार प्रधानमंत्री बने. लाल बहादुर शास्त्री पद पर रहते ही दिवंगत हुए. इंदिरा गांधी ने भी आजन्म सन्यास की घोषणा नहीं की .वे भी पद पर रहते ही शहीद हुईं. मोरारजी भाई देसाई और चौधरी चरण सिंह ने भी औपचारिक रूप से कभी सन्यास की घोषणा नहीं की. ये बात अलग है कि दोनों को किस्मत ने ज्यादा अवसर नहीं दिया .राजीव गांधी,वीपी सिंह ,चंद्र शेखर ,पीव्ही नरसिम्हाराव ,अटल बिहारी बाजपेयी भी कभी राजनीतिक सन्यासी नहीं बने .

राजनीति से सन्यास लेने से या तो नेता डरते हैं या फिर सत्ता सुख उन्हें सन्यास की और प्रवृत्त नहीं होने देता..एच डी देवगौड़ा,इंद्र कुमार गुजराल और डॉ मन मोहन सिंह ने भी कभी सन्यासी होने की घोषणा नहीं की  किसी ने 14  साल राज किया,किसी ने 12  साल .कोई 223  दिन ,लेकिन सन्यासी कोई  नहीं बना और तो और बार -बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनने वाले गुलजारी लाल नंदा भी राजनीति से औपचारिक सन्यास लेने से बचते रहे.

राजनीति हो या क्रिकेट ,दोनों में सन्यास लेना आसान नहीं होता लेकिन खिलाड़ी को अपनी शारीरिक क्षमताओं का अनुमान होता है इसलिए वो जग हंसाई की वजह से ही सही किन्तु सन्यास लेता है. पूरी दुनिया में खिलाड़ियों के सन्यास लेने की सुदीर्घ परम्परा है किन्तु राजनीति से सन्यास लेने वाले बहुत कम लोग हैं .भारत में तो ये परम्परा विकसित हो ही नहीं सकी .कोई भी राजनीतिक दल हो अपने नेता को अंतिम समय तक ढोने के लिए तैयार रहता है. कांग्रेस और भाजपा ही नहीं वामपंथी दलों में राजनीति से सन्यास लेने वाले कम ही नेता हैं. ज्योति बासु ने सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रहकर जनसेवा की .उन्होंने भी अपने मुंह से सन्यासी होने की बात नहीं की. मुझे लगता है कि नेता में सन्यासी होने का गुण होता ही नहीं है .हाँ कुछ नेता बार-बार सन्यासियों की तरह दाढ़ी जरूर बढ़ा लेते हैं.

हम हर साल किसी न किसी खिलाड़ी को सन्यास लेते देखते हैं किन्तु कोई नेता ऐसा करते हुए नहीं दिखाई देता .ये अलग बात है कि समय ही ऐसे नेताओं को सूखे पत्तों की तरह डाल से अलग कर देता है .आज के दौर में ही देखिये हर दल में सत्तर साल से जयादा उम्र के नेता सक्रिय हैं. भाजपा में जरूर कुछ बूढ़े नेताओं को मार्गदर्शक मंडल बनाकर जबरन सन्यासी बना दिया लेकिन उनका मन आज भी सत्ता सुख पाने को लालायित रहता है. कोई भी राजनीतिक दल हो अपने बूढ़े नेताओं को सन्यास लेने के लिए नहीं कहता,उलटे उनका बुढ़ापा सुख से काटने के लिए उन्हें राज्यपाल   बना देता है .बूढ़े नेता भी ऐसा करते हुए लजाते या शर्माते नहीं हैं .बहुत कम नेता ऐसे हैं जिन्होंने अपने जीते जी राजनीति से सन्यास की घोषणा की हो .इसके विपरीत राजनीति में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहां पिता-पुत्र ,पति-पत्नी,भाई-भाई,चाचा -भतीजे एक साथ राजनीति कर रहे हैं .कोई भी दल इस बारे में अपना संविधान बदलने को राजी नहीं है .अब तो राजनितिक दलों में सुप्रीमो बनने की परमपरा शुरू हो गयी है.

मौजूदा परिदृश्य में कांग्रेस के अध्यक्ष जनार्दन खरगे 80  साल के योद्धा हैं.भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्ढा 62  साल के हैं ,जेडीयू के नीतीश कुमार 72  साल के हैं ,ममता बनर्जी 67  की हैं लेकिन सन्यास शब्द उनके शब्दकोश में नहीं है. एक समय राजनीति से सन्यास लेने वाले किसान नेता चौधरी देवीलाल दोबारा राजनीति में लौट आये  थे .कांग्रेस के हरीश रावत से बोला नहीं जाता लेकिन सन्यासी वे भी नहीं बनना चाहते. अजित जोगी ने व्हील चेयर पर रहते हुए भी राजनीति से सन्यास नहीं लिया .आज भी कांग्रेस और भाजपा में तमाम ऐसे नेता हैं जो सशर्त सन्यासी बनने के लिए तैयार है. उनकी शर्त है की उनके बेटे या बेटी को राजनीति  में जगह दे दी जाये .पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने तो 85  वर्ष की उम्र में आज के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी से टक्कर लेने का दुस्साहस दिखाया .

सवाल ये है कि जब खिलाड़ी स्वेच्छा से सन्यास लेता है,सरकारी कर्मचारी को एक निर्धारित उम्र के बाद सेवानिवृत   कर दिया जाता है तो राजनीति में ऐसा क्यों नहीं किया जाता .राजनीति के अलावा चिकित्सा ,वकालत,लेखन ,पत्रकारिता  भी ऐसे ही क्षेत्र हैं जहाँ लोग अंतिम सांस तक काम करना चाहते हैं .सन्यास से उन्हें चिढ है ,हालाँकि उनकी उम्र महामंडलेश्वर और शंकराचार्य बनने की हो चुकी होती है .दुर्भाग्य ये है कि एक तो नेता सन्यासी नहीं बनते और ऊपर से जनता भी उन्हें खारिज नहीं करती .एक बार नहीं बल्कि बार-बार चुनती है. इसी देश में ऐसे नेता हैं जो कम से कम दस बार संसद और विधायक रह चुके हैं .

आजादी के 75  साल बाद हम देश के संविधान को बार-बार संशोधित करते हुए नहीं हिचकते किन्तु राजनीतिक दलों के समविधान में सेवानिवृर्ति की उम्र तय करने का प्रावधान करने को कोई तैयार नहीं है. हमारे चुनाव कानूनों में चुनाव लड़ने की न्यूनतम आयु का प्रावधान तो है किन्तु अधिकतम उम्र का नहीं .हमारे यहां एक तय उम्र के बाद आपको ड्रायविंग लायसेंस नहीं मिलता,बीमा नहीं मिलता,बैंक से ऋण नहीं मिलता किन्तु राजनीति करने की पूरी छोट मिलती है .शायद इसी वजह से देश का लोकतंत्र भी बीमार नजर आने लगता है .किसी राजनीतिक दल ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में राजनीति से रिटायरमेंट कि उम्र तय करने का का वादा नहीं किया .इस बारे में जब तक जनता जागरूक नहीं होगी स्थितियां सुधरेंगी नहीं.क्योंकि अब राजनीति में खुद सन्यासी घुस आये हैं .वे सांसद भी हैं ,विधायक भी हैं और तो और मुख्यमंत्री भी हैं. हर राज्य में बूढ़े और अतृप्त नेताओं की भरमार  है .एक खोजिये बीस मिल जायेंगे.

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