गूंगी फिल्मों से ' द कश्मीर फाइल ' तक

गूंगी फिल्मों से ' द कश्मीर फाइल ' तक

गूंगी फिल्मों से ' द कश्मीर फाइल ' तक


 राकेश अचल

सालाना दो से तीन सौ करोड़ रूपये कमाने वाली भारतीय फिल्मों का काम ही जीवन के नौ रसों के जरिये मानवीय स्वभावों का दोहन कर अपनी जेबें भरना है. फ़िल्में जिस मकसद से बनाई जाती हैं उसमें सबके अलग-अलग लक्ष्य होते हुए भी एक समान लक्ष्य होता है धन कमाना ,इसलिए हर फिल्म निर्माता ये काम करता है .' द कश्मीर फ़ाइल ' के निर्माता-निर्देशक ने भी यही काम किया है .वे   अपने लक्ष्य में न सिर्फ कामयाब हुए हैं बल्कि खूब कामयाब हुए हैं .इसके लिए उन्हें बधाई दी जाना चाहिए .

' द कश्मीर फाइल '  फिल्म के निर्माता   निर्देशक को इसलिए भी बधाई दी जाना चाहिए क्योंकि  उन्होंने एक तीर से दो शिकार भी कर लिए .माल भी पीटा और भारतीय जनता की आँखों में धूल भी झौंक दी ताकि वो कल के कश्मीर को देखे और आज के कश्मीर को भूल  जाये .12  करोड़ की फिल्म यदि दो सौ करोड़ से कम न कमाए तो आप मेरा नाम बदल दीजिये,ऐसा इसलिए होगा क्योंकि फिल्म निर्माता को परोक्ष रूप से एक राजनीतिक दल और उसकी सरकारों का खुला समर्थन मिल रहा है .ये फिल्म आम आदमी कम भक्त मंडल ज्यादा देख रहा और और थियेटर से आंसू बहाते हुए निकल रहा है,ताकि उसे देखकर दूसरे भी फफक कर रो उठें .ये फिल्म बनी ही देश को रुलाने कि लिए है.

देश में फ़िल्में बनते हुए एक सदी से ज्यादा का समय बीत चुका है ,और हर दशक में एक से बढ़कर एक फ़िल्में बनीं हैं. जिस मकसद से ' द कश्मीर फ़ाइल' बनी है उस मकसद से दूसरी फ़िल्में  भी बनीं ,लेकिन फिल्म के जरिये देश में हकीकत के नाम पर नफरत फ़ैलाने का आरोप पहली बार किसी फिल्म पर लगाया गया है .मैंने फिल्म देख ली है और मै फिल्म के सभी पक्षों में निर्माता -निर्देशक और कलाकारों की दक्षता का कायल हूँ ,क्योंकि इस फिल्म के जरिये वे जो मकसद हासिल करना चाहते थे उसमें काफी हद तक सफल हुए हैं,लेकिन वे भूल गए हैं कि  यदि खेत में नफरत बोई जाती है तो फसल भी नफरत की ही पैदा होती है .

कश्मीर का अतीत ही नहीं वर्तमान भी रक्तरंजित ही है .कश्मीर का विभाजन हुए 5  अगस्त 2022  को तीन साल पूरे हो जायेंगे .कश्मीर समस्या का स्थायी हल निकलने के लिए 5  अगस्त 2019  को माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली संविधान  की धारा 370  हटाई थी .उन्हें कश्मीर को तोड़ना भी पड़ा ,लेकिन ढाई साल बाद भी कश्मीर में लोकतंत्र की बहाली करने में वे कामयाब नहीं हुए .वहां न हिंसा रुकी और न वहां कथित शांति स्थापना के बाद एक भी कश्मीरी पंडित वापस लौटा,यहां तक कि  'द कश्मीर फ़ाइल ' में प्रमुख भूमका निभाने वाले अनुपम खैर भी कश्मीर रहने नहीं गए .

आपको शायद यकीन न हो   किन्तु हकीकत ये है कि कश्मीर के रक्तरंजित अतीत की तरह कश्मीर का वर्तमान  भी रक्त रंजीत ही है .सरकार की इस नाकामी पर पर्दा डालने और देश में मौजूद दीगर मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए 'द कश्मीर फ़ाइल ' के अलावा कोई दूसरा विकल्प सरकार कि पास न था .जैसे पिछले सात साल में देश का मीडिया ' गोदी मीडिया ' बना दिया गया है वैसे ही अब देश में फिल्मों को भी गोदी फिल्म उद्योग में तब्दील किया जा रहा है .'द कश्मीर फ़ाइल' इसकी शुरूआत है .गोदी मीडिया इस फिल्म कि प्रमोशन में जी-जान से जुटा है.पंत प्रधान 'द कश्मीर फ़ाइल ' की टीम से ऐसे मिलकर बधाई दे रहें हैं जैसे वे एवरेस्ट फतह करके आये हों और उन्होंने बहुत  बड़ा राष्ट्रहित साध दिया हो !

जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि  फिल्मों का मकसद आदमी की संवेदना को उभारकर पैसा कमाना होता है और कुछ नहीं. हालाँकि देश में इस स्वार्थ कि बावजूद अनेक शैक्षणिक और सामाजिक मुद्दों को रेखांकित करती अनेक फ़िल्में भी बनाई जाती है .1890  से ये काम सतत चल रहा है और आगे भी चलता रहेगा .क्योंकि फिल्म इंसान की जरूरत है और इंसान की जरूरत पर जब कब्जा कर लिया जाये तब राजनीति शुरू हो जाती है .और जब राजनीति शुरू हो जाती है तब खतरे बढ़ जाते हैं .
'द कश्मीर फाइल ' बनाने वाले विवेक अग्नहोत्री का जन्म चूंकि मेरे अपने शहर ग्वालियर में हुआ है इसलिए मुझे इस फिल्म को लेकर लिखने का मन हुआ.वे सेंसर बोर्ड कि सदस्य भी  हैं .उनके अतीत में जाने की जरूरत नहीं उनमें अखंड प्रतिभा है .वे चॉकलेट भी बना सकते हैं और ताशकंद फ़ाइल भी,इसलिए  उनसे 'द कश्मीर फ़ाइल' भी बनवाई गयी.वे यदि सेंसर बोर्ड में न होते तो शायद ही उनकी ये फिल्म प्रमाणित हो पाती .उसके रक्तरंजित और वीभत्स  दृश्यों पर सेंसर बोर्ड की कैंची शायद इसीलिए नहीं चली क्योंकि सरकार ऐसा नहीं चाहती थी .वरना ऐसे दृश्य सेंसर की कैंची से बचकर निकल नहीं सकते .

मेरा अनुभव है कि  जो फिल्म जिस मकसद से बनाई जाती है उसे यदि उसका मकसद हासिल न हो तो ऐसी फिल्म को ' फ्लॉप' फिल्म की श्रेणी में डाल दिया जाता है .जैसे किसी फिल्म का मकसद दर्शक को रुलाना होता है तो किसी फिल्म का मकसद दर्शक को हँसाना होता है. कोई फिल्म दर्शक को सोचने का मुद्दा दे जाती है तो कोई फिल्म दर्शक को शिक्षा देकर जाती है लेकिन नफरत कोई फिल्म  नहीं  फैलाती वो भी हकीकत के नाम पर .हकीकत के नाम पर नफरत फैलाना,यानि गड़े मुर्दे उखाड़कर उनका पोस्टमार्टम करना सियासत का काम है फिल्म निर्माता का नहीं .बेहतर होता कि विवेक आज कि कश्मीर पर फिल्म बनाते.ढाई साल के खंडित ,और लोकतंत्र बहाली कि लिए तड़फ रहे कश्मीर की हकीकत बताते .बताते कि सरकार कहाँ नाकाम हुई है ,लेकिन ऐसा करने का उनके पास कोई निर्देश नहीं था .

देश में बीते सौ साल में जितनी फ़िल्में बनीं हैं उनमें से बहुत कम ऐसी हैं जो आज भी याद की जाती हैं.'द कश्मीर फ़ाइल' ऐसी फिल्मों  की फेहरिश्त में शायद कभी भी शामिल नहीं हो पायेगी ,क्योंकि फिल्म का मकसद साफ़-साफ़ सियासी है .ये फिल्म विवेक को करोड़पति बनाएगी और कश्मीर को और पंगु .भारतीय दर्शक को सिर्फ इतना समझना होगा की 'द कश्मीर फ़ाइल' कि हर दृश्य पर निर्माता,निर्देशक की छाप होती है वो जो चाहे दिखा सकता है .कम करके दिखा सकता है,अतिरंजित करके दिखा सकता और और रक्तरंजित करके भी दिखा सकता है .हकीकत हर दृश्य से उतनी ही दूर होती है जितनी दूर कि  उसे होना चाहिए .

सियासी मकसद से बनाई जाने वाली फ़िल्में अक्सर कूड़ेदान में फेंक दी जाती हैं लेकिन 'द कश्मीर फ़ाइल' की किस्मत है कि  उसे सरकार का आशीर्वाद प्राप्त है इसलिए उसे राष्ट्रसेवा का सम्मान मिल रहा है,अन्यथा आँखों में धूल झोंकना एक राष्ट्रीय अपराध से कम नहीं है .फिल्म में अभिनय करने वाले भी भाजपा कि कारिंदे हैं ,कोई अपने आपको  कोबरा कहता है तो कोई अनुपम .
 

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