ज्योतिबा फुले: बराबरी के उस अलख के प्रथम यात्री
इतिहास का नहीं, चेतना का अध्याय— ज्योतिबा फुले
जाति से ऊपर मनुष्य: फुले की पुनर्निर्माण की धर्मयात्रा
भारत के सामाजिक इतिहास में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो तारीखों में नहीं, मनुष्यों की चेतना में दर्ज होते हैं—ज्योतिबा फुले उन्हीं में से एक थे। 28 नवम्बर 1890, उनका अंतिम दिन था, लेकिन किसी अंत की तरह नहीं, एक नई शुरुआत की तरह। इस दिन एक शरीर थमा, पर वह विचार नहीं जो सदियों से जकड़े समाज में बराबरी की पहली लौ बनकर जला था। वे व्यक्ति नहीं थे, एक प्रश्न थे; एक चिंगारी थे; एक ऐसा विजन थे जो अपने समय से सौ साल आगे खड़ा था। आज जब उनके जीवन को पीछे मुड़कर देखते हैं, तो महसूस होता है कि वह शरीर से गए, पर उनके विचार आज भी उसी तीव्रता से धड़कते हैं जैसे उन दिनों पुणे की तंग गलियों में धड़कते थे, जहाँ हर कदम पर जाति और मनुष्यता का संघर्ष टकराता था।
किताबों में अक्सर लिखा मिलता है कि ज्योतिबा फुले “समाज सुधारक” थे, पर यह शब्द उनके लिए छोटा पड़ जाता है। वे समाज को सुधारने नहीं, पुनर्निर्माण करने आए थे। वे उस नींव को बदलने आए थे जिस पर सदियों से अन्याय की दीवारें खड़ी थीं। उनकी दृष्टि इतनी गहरी थी कि उन्होंने न सिर्फ सामाजिक बंधनों को पहचाना, बल्कि यह भी समझा कि कारण केवल व्यवस्था नहीं—सोच है। और सोच को बदलने का एकमात्र रास्ता था शिक्षा। उनके लिए शिक्षा केवल किताबों का ज्ञान नहीं, बल्कि आत्मसम्मान का पहला अधिकार था। इसीलिए उन्होंने लड़की की शिक्षा को अपना सबसे पवित्र संघर्ष माना। सावित्रीबाई फुले के साथ जब उन्होंने पहली कन्या-शाला खोली, तो वह कदम उतना ही क्रांतिकारी था जितना आज किसी पूरी व्यवस्था को उलट देना। उन्हें अपशब्द कहे गए, उन पर कीचड़ फेंका गया, उन्हें समाज से निकाल देने की धमकियाँ मिलीं—पर फुले पीछे नहीं हटे। क्योंकि उनके भीतर उस व्यवस्था से अधिक शक्तिशाली चीज थी: मनुष्य की गरिमा पर अडिग विश्वास।
उनका संघर्ष केवल जाति या शिक्षा तक सीमित नहीं था। वे स्त्री को केवल शिक्षित करना नहीं चाहते थे; वे स्त्री को उसके संपूर्ण मनुष्यत्व के साथ स्थापित करना चाहते थे। वे चाहते थे कि स्त्री अपने भीतर की पहचान को पहचान सके—अपना अधिकार, अपनी गरिमा, अपनी आवाज़। उस समय, जब विधवाओं को जीवित दफनाने की अमानवीय प्रथा मौजूद थी; जब स्त्री की शिक्षा को पाप कहा जाता था; जब पुरुषसत्ता का फैसला अंतिम सच माना जाता था—फुले ने इन सब दीवारों को एक-एक कर ढहाया। विधवा पुनर्विवाह के समर्थन से लेकर बालिकाओं की सुरक्षा के लिए आश्रय-गृहों की स्थापना तक, उनकी हर पहल स्त्री-मुक्ति की ओर एक नई, सुरक्षित ज़मीन तैयार कर रही थी।
लेकिन फुले की सबसे प्रखर विरासत सत्यशोधक समाज है—एक संस्था कम, और विचारों के विद्रोह का गुरुकुल अधिक। यह वह मंच था जहाँ इंसान को पहली बार यह सीख मिली कि उसकी पहचान जाति से नहीं, मानवता से शुरू होती है। यहाँ जन्म से ऊपर कर्म था; पूजा से ऊपर न्याय; और देवी-देवताओं की ऊँची वेदियों से ऊपर मनुष्य की गरिमा। सत्यशोधक समाज ने उन वर्गों को चेहरा, आवाज़ और आत्मपहचान दी, जिन्हें सदियों तक अंधेरे में कैद रखा गया था। फुले ने उन्हें केवल सहारा नहीं दिया—उन्होंने उन्हें यह सामर्थ्य भी दिया कि वे स्वयं अपने पैरों पर उठ सकें।
Read More दमघोंटू हवा पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती- अब नियमित सुनवाई से जुड़ेगी दिल्ली की सांसों की लड़ाईसमता–जागरण के शिल्पी ज्योतिबा फुले का जीवन इस सच का प्रमाण है कि परिवर्तन की सबसे बड़ी शक्ति विचार होता है। उनके पास न सत्ता थी, न पद; न सेना थी, न संपत्ति—फिर भी वे व्यवस्था की जड़ें हिला सके, क्योंकि उनका आधार सत्य था। और सत्य जब संकल्प से जुड़ता है, तो इतिहास की दिशा बदल देता है। फुले किसी व्यक्ति से नहीं, मानसिकता से लड़ने निकले थे। उन्होंने बताया कि समाज की सबसे ऊँची दीवारें जन्म नहीं खड़ी करता, सोच खड़ी करती है। और उन्हें गिराने का उपाय है—प्रश्न करना, सोच जगाना और साहस के साथ खड़ा होना।
उनकी पुण्यतिथि किसी औपचारिक श्रद्धांजलि का दिन भर नहीं— यह एक दायित्व है, एक स्मरण है कि हम उस रास्ते पर चलें जिसे उन्होंने दिखाया था। क्योंकि ऊँच-नीच आज भी हमारे सामाजिक ढाँचे में टिकी है; शिक्षा अब भी सभी तक समान रूप से नहीं पहुँचती; स्त्री के अधिकारों की लड़ाई अभी अधूरी है; और सोच के कई दरवाज़ों पर अब भी सदियों पुरानी बेड़ियाँ जड़ी हैं। फुले हमें सिखाते हैं कि बदलाव शिखरों की कृपा से नहीं उतरता—वह धरती की जड़ों से उगता है। जो व्यक्ति उस धरती में बराबरी का बीज बोता है, वही असली क्रांतिकारी होता है।
ज्योतिबा फुले का जाना इतिहास की एक बंद होती पंक्ति नहीं, वह विचारों की एक नई यात्रा का प्रारंभ बिंदु है। वह यात्रा जो सावित्रीबाई से होकर डॉ. आम्बेडकर तक जाती है, और आज भी उस हर जगह पहुँचती है जहाँ कोई बच्चा शिक्षा की रोशनी चाहता है, कोई स्त्री अपने सम्मान के लिए खड़ी होती है, कोई मजदूर अपने अधिकार की मांग करता है, कोई युवा अन्याय के आगे सिर झुकाने से इंकार करता है। फुले का जीवन हमें बताता है कि रोशनी कभी समाप्त नहीं होती, वह केवल हाथ बदलती है।
आज, 28 नवम्बर को उन्हें याद करते हुए, हम केवल इतिहास को नहीं पढ़ते—हम अपने वर्तमान की जिम्मेदारी पहचानते हैं। फुले का जाना एक समाप्ति नहीं, एक आह्वान था। और यदि हम उस आह्वान का सम्मान करना चाहते हैं, तो हमें हर उस मनुष्य के साथ खड़ा होना होगा जिसे समाज ने किनारे धकेला है। यही उनकी सच्ची श्रद्धांजलि है—न भाषण, न फूल, न समारोह; बल्कि वह साहस, वह संवेदना और वह समता, जिसे उन्होंने जीवनभर जिया।

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