नेत्रहीन नहीं—नेत्रदीपक: भारत की बेटियों ने छुआ विश्व का शिखर

अंधेरे ने हार मानी: भारत की नेत्रहीन शेरनियों का विश्व वर्चस्व

नेत्रहीन नहीं—नेत्रदीपक: भारत की बेटियों ने छुआ विश्व का शिखर

दृष्टि नहीं, दृष्टिकोण की जीत: भारत ने जीता पहला दृष्टिबाधित महिला टी20 विश्व कप

अँधकार की गिरहों को उधेड़कर उजाले को अपनी मुट्ठी में भर लेने का साहस—जहाँ आँखों में रोशनी भले न होपर भीतर का आकाश सपनों से दिपदिपाता हो—उसी पवित्र जगह पर भारत की बेटियाँ वह इतिहास रच रही हैं जो केवल धरती की धूल को सम्मान नहीं देताबल्कि समाज की उन कठोर दीवारों को भी ध्वस्त करता है जो दृष्टि की कमी को सीमा समझ बैठी थीं। ये बेटियाँ साबित करती हैं—जब मन देखना सीख लेतो दुनिया की हर बाधा धुंधली पड़ जाती है।

जब कोलंबो के पी. सरवणमुत्तू स्टेडियम में सफेद गेंद खड़खड़ाती हुई विकेट की ओर लुढ़की और फुला सरेन ने उसे एक करारे शॉट में बाउंड्री के पार भेजातो उस एक पल में सदियों की चुप्पी टूट गई। भारत ने नेपाल को सात विकेट से रौंदकर पहला दृष्टिबाधित महिला टी20 विश्व कप (11 नवंबर से 23 नवंबर 2025 तक कोलंबोश्रीलंका में आयोजितअपने नाम कर लिया। बारह ओवर, तीन विकेट, 117 रन। लक्ष्य पूरा। यह सिर्फ़ जीत नहीं थीयह उन अनगिनत भारतीय महिलाओं की सामूहिक पुकार थीजिन्हें कभी मैदान से वंचित किया गयाघर की दीवारों में बाँध दिया गयाजिनकी आँखें तो खुली थीं पर सपनों को अंधा कर दिया गया था। आज उन सपनों ने काली पट्टी बाँधकर दुनिया को समझा दिया—अंधेरा आँखों में नहींइरादों में बसता है—और हमारे इरादे धधक रहे हैं।

इस उद्घाटन दृष्टिबाधित महिला टी20 विश्व कप में नियमों की कठोरता ने खेल को एक अनुशासन नहींएक जीवंत कला बना दिया। सोचिए उस गेंदबाज़ कोजो पहले धीमे से पूछता है, “तैयार हो?” और फिर “प्ले!” की पुकार के साथ अंडरआर्म गेंद डालता हैजिसे कम-से-कम एक उछाल अनिवार्य है। हर टीम में 11 योद्धा—पर उनमें कम से कम चार पूर्ण नेत्रहीनबी-श्रेणी के (खिलाड़ी पट्टी बाँधते हैं), जिनके हर रन को दोगुना गिना जाता है। बी-बल्लेबाज़ रनर संग खेलते हैंस्टंपिंग से मुक्त। फील्डर अपनी जगह ताली से बताते हैंऔर आंशिक दृष्टि वाले बी-2 (2 मीटर तक) और बी-3 (6 मीटर तक) अपनी सीमित रोशनी में दुनिया को फिर से आकार देते हैं। यह क्रिकेट नहींएक संवेदनशील संवाद है—आवाजों कास्पर्श काऔर उस अदृश्य विश्वास का। और यही विश्वास कहता है—अंधेरा आँखों में हो सकता हैपर जीत हमेशा उस उजाले की होती है जो भीतर जलता है।

यह विश्व कप पहला थाइसलिए इसके हर रन में इतिहास लिखा जा रहा था। छह देश—ऑस्ट्रेलियापाकिस्तानश्रीलंकासंयुक्त राज्य अमेरिकानेपाल और भारत—एक ही मैदान परसबकी आँखें पट्टी से ढकीफिर भी दृष्टि सबसे साफ़ भारत की थी। पूरे टूर्नामेंट में उसने एक भी मैच नहीं गंवाया।  सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया बिखर गयाऔर फाइनल में नेपाल को इस कदर दबोचा गया कि पूरी पारी में उसके बल्ले से सिर्फ़ एक चौका निकला—सिर्फ़ एक। 

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बाकी सब डॉट या विकेट। यह सिर्फ़ दबदबा नहीं थायह अस्तित्व की धमक थी। फुला सरेन की प्लेयर ऑफ द मैच नाबाद 44 रन की पारी कोई सांख्यिकीय उपलब्धि नहींबल्कि झारखंड की उन आदिवासी बस्तियों से उठी लौ थी जहाँ बिजली की रौशनी आज भी संकोच में हैमगर हौसले सदियों से जलते आए हैं। उसने हर रन बी-श्रेणी में खेलते हुए बनाया—यानी पूरी तरह नेत्रहीन होकर। और नियम कहता है, B1 का हर रन दोगुना गिना जाता है। यानी मैदान पर उसके 44 रनस्कोरबोर्ड की दृष्टि में 88 बनकर दहाड़े—समाज की उन सारी आवाज़ों के मुँह परजिन्होंने कभी कहा था, “तू अंधी हैतू क्या कर लेगी?”

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पाकिस्तान की मेहरीन अली ने इस टूर्नामेंट में 600 से ज़्यादा रन बरसाए—78 गेंदों पर 230, टी-20 इतिहास की पहली डबल सेंचुरी। फिर भी सेमीफाइनल में नेपाल ने उसकी गति रोक दी। मेहरीन टूटी नहींउसने बस इतना कहा—“मेरा खेल खत्म नहीं हुआ।” और उसी सच को भारत की टीम ने उजागर कर दिया। खेल कभी समाप्त नहीं होतावह बस अपना रूप बदलता है। आज उसका रूप विश्व कप की चमकती ट्रॉफी हैकल वही रूप लाखों नेत्रहीन लड़कियों में जगेगाजो अब गली-मोहल्लों में प्लास्टिक की गेंद की खड़खड़ाहट सुनकर अपनी पहली बल्लेबाज़ी रचेंगी—और उस खड़खड़ाहट में अपने भविष्य की आवाज़ पहचानेंगी।

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हम उस देश में रहते हैं जहाँ दिव्यांगता को योग्यता नहींदया की चादर ओढ़ा दी जाती है। ऐसे में यह जीत सिर्फ़ एक ट्रॉफी नहींबल्कि सामाजिक क्रांति का पहला अंकुर है। 2011 की जनगणना अनुसार, भारत के 2.68 करोड़ दिव्यांग नागरिकों में लगभग 50 लाख नेत्रहीन हैंजिनमें आधे से अधिक महिलाएँ। लेकिन खेल के मैदान पर उनकी उपस्थिति लगभग शून्य—क्रिकेट तो उनकी दुनिया में मानो किसी कल्पना-लोक की चीज़ रही। यही कारण है कि डब्ल्यूबीसीसी के तहत खेला गया यह विश्व कप सिर्फ़ टूर्नामेंट नहींसशक्तिकरण का जीवंत प्रतीक बन गया। अरबों का बजट रखने वाले क्रिकेट बोर्ड के सामने ब्लाइंड क्रिकेट को आज भी फंड की गुहार लगानी पड़ती है। फिर भी ये बेटियाँ विश्व चैंपियन बनकर लौटीं। यह जीत नहीं—व्यवस्था के गाल पर गूँजता हुआ थप्पड़ है। यह सवाल है—जब ये लड़कियाँ आँखें बंद करके विश्व कप जीत सकती हैंतो आँखें खोलकर हमारा सिस्टम इन्हें सम्मान देने से अब तक क्यों अंधा बना हुआ है?

अब समय आ गया है साफ़-साफ़ फैसला करने का—या तो हम इन बेटियों को वही सम्मान दें जिसके वे जन्म से हक़दार हैं: राष्ट्रीय परेड में स्थानस्टेडियमों की दीवारों पर उनके नामऔर IPL जैसी भव्य एक ब्लाइंड महिला लीगया फिर हम अपनी पुरानी आदत के मुताबिक़ इन्हें फिर से अनदेखा कर दें। पर याद रखें—इतिहास भुलक्कड़ नहीं होता। 2025 का यह नवंबर साफ़ कर चुका है कि भारत की असली ताकत उसकी बेटियों की धड़कनों में बसती है—भले ही उनकी आँखें देखती हों या नहीं। फुला सरेनगंगाधारी महतोरवीनादीपाली—ये नाम अब सिर्फ़ स्कोरकार्ड पर नहींबल्कि इस देश की चेतनाउसके हर कोनेहर स्मृति और हर गर्व में दर्ज होने चाहिए।

इस जीत की गूंजकोलंबो से दिल्ली तकसोशल मीडिया पर तूफान बन गईजहां आम लोग अपनी कहानियां साझा कर रहे हैं। एक मां ने लिखा, "मेरी बेटी भी अब आंखों की कमी से नहीं डरेगी।" यह भावनात्मक उफानतो जैसे नदी का बहाव जो बांध तोड़ देता है। नेपाल की हार में भी विजय है—उनकी सरिता घिमीरे ने साबित किया कि हिमालय की बेटियां भी मैदान पर गरज सकती हैं। भारत की अजेयताटूर्नामेंट भर बरकरारतो जैसे एक मंत्र: "अंधकार में भी प्रकाश हैबस सुनना सीखो।" भविष्यअगला विश्व कप, 2027 में प्रस्तावितभारत यदि अकेला मेजबान बना और फुलासरितामेहरीन साथ खेलीं—तो वह क्रिकेट का महोत्सव नहींमानवता का उत्सव होगा। वहाँ गेंद की खड़खड़ाहट संगीत बन जाएगीऔर पट्टीबद्ध आँखें सपनों की खुली खिड़कियाँ।

भारत की बेटियों ने साबित कर दिया—इतिहास रचने के लिए आंखें नहींहौसला चाहिए। और यह हौसलाअब अमर हो चुका है। जो देश अपनी बेटियों को आँखों पर पट्टी बाँधकर भी विश्व विजेता बना दे—उसे कोई ताकतकोई अंधेराकोई संदेह हरा नहीं सकता। यह विश्व कप नहीं था—यह घोषणा थी। भारत की नेत्रहीन बेटियों की घोषणा कि अंधेरा चाहे जितना भी गहरा क्यों न होहम उसी के भीतर अपना सूरज गढ़ देते हैं।

 

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