खुशी की कीमत क्या दूसरों की परेशानी हो सकती है?
बारातें चलती हैं, संवेदनशीलता ढह जाती है
उल्लास या उत्पीड़न: खोती संस्कृति की बारातें
कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारी सड़कों पर हक़ से गूँजने वाली दो ही आवाज़ें बची हैं—एक बेचैनी से दौड़ती एम्बुलेंस की, जिसकी हर चीख़ किसी अनजान ज़िंदगी को थामे रखने की अंतिम कोशिश होती है; और दूसरी, बारात के जोश को चरम पर ले जाने के लिए गरजता डीजे, जो मानो शहर की रात को अपने शोर में निगल लेना चाहता हो। दुख इस बात का है कि आज रास्ता संवेदना या समझ को नहीं मिलता; रास्ता उस शोर को मिलता है जो सबसे ऊँचा, सबसे आक्रामक, और सबसे ज़िद्दी है।
आज की बारातें अब वह सादा-सा जुलूस नहीं रहीं, जिसमें हल्की रोशनियाँ और शहनाई की मधुर लय साथ-साथ बहती थीं; वे धीरे-धीरे एक चलायमान प्रदर्शनी, एक ऊधम मचाती बाज़ार-सी परेड बनती जा रही हैं—ऐसा कारवाँ, जो सड़क पर उतरते ही यह ऐलान कर देता है कि शहर की हर गली अब उसकी जागीर है। हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि गाड़ियों की कतारें सेंटीमीटर दर सेंटीमीटर खिसकती हैं; एम्बुलेंस अपनी ही सायरन में कैद होकर अनंत प्रतीक्षा में सिसकती रहती है; किसी बुज़ुर्ग की साँसें तेज़ हो जाती हैं, किसी मरीज का दर्द बढ़ जाता है, किसी बच्चे की गहरी नींद टूट जाती है—और इसी सबके बीच डीजे का शोर आसमान तक फटता हुआ पहुँचता है, मानो कह रहा हो, “सड़क हमारी है, दुनिया इंतज़ार करे!”
पर क्या सचमुच दुनिया ठहर सकती है? कोई अपनी वृद्ध माँ के लिए दवा लेने की दौड़ में है, किसी को ऐसा इंटरव्यू देना है जो उसके भविष्य की दिशा तय करेगा, किसी की तबीयत अचानक बिगड़ गई है और उसे तत्काल अस्पताल पहुँचना है, कोई अपने रोज़मर्रा की नौकरी तक पहुँचने की जद्दोजहद कर रहा है, कोई छोटा बच्चा फिर से नींद की गोद में लौटने की कोशिश कर रहा है। और इन बेहद साधारण, पर जीवन जितने महत्वपूर्ण क्षणों के बीच, कई बारातें ऐसे आगे बढ़ती हैं जैसे रास्ते का हर मोड़, हर मिनट और हर सुविधा पर उनका ही साम्राज्य हो।
खुशी से किसी को ऐतराज़ नहीं—और न ही होना चाहिए। यही तो वे उजाले हैं, जो जीवन की कठिन दरारों में उम्मीद की लौ भरते हैं। लेकिन कैसी खुशी है वह, जो दूसरे की रात छीन ले, दूसरे की साँसों पर भार डाल दे, दूसरे के दिन को अव्यवस्था में फेंक दे? क्या सिर्फ इसलिए कि किसी एक परिवार में उत्सव है, पूरा पड़ोस उसकी कीमत चुकाए? क्या सचमुच हम इस दौर में पहुँच चुके हैं जहाँ बुज़ुर्गों की तकलीफ़, मरीजों की बेचैनी, बच्चों की नींद और आम इंसान की रोज़मर्रा—किसी जश्न की “अनिवार्य कुर्बानी” जैसी मान ली गई है?
हमारे पूर्वजों ने विवाह को जिस मर्यादा, सुंदरता और गहरी अर्थवत्ता से सजाया था, वही उसकी आत्मा थी। वहाँ रोशनी थी—लेकिन वह किसी की दृष्टि नहीं चुराती थी; संगीत था—लेकिन वह दीवारों को नहीं, दिलों को छूता था; नृत्य था—लेकिन वह सड़क को अपनी जागीर समझकर उस पर अधिकार नहीं जमाता था। वहाँ उत्सव था—पर उसमें दिखावे की चीख़ या अहंकार की छाया नहीं थी।
आज तस्वीर उलट सी हो गई है—रोशनी आँखें थका देती है, संगीत दिल नहीं बल्कि दरवाज़े–खिड़कियाँ थरथरा देता है, नृत्य कभी-कभी सड़क को एक निजी मंच मानकर उस पर सत्ता का ऐलान करता है। और उन रास्तों से रोज़ गुजरने वाले लोग… वे अपने भीतर एक चुप, भारी, अनकही नाराज़गी सँभालते हुए आगे बढ़ जाते हैं—एक ऐसी नाराज़गी, जो किसी रिपोर्ट में नहीं लिखी जाती, पर शहर की हवा में लंबे समय तक बनी रहती है।
ज़रा ठहरकर सोचिए—क्या किसी बारात की चमक इसलिए फीकी पड़ जाएगी कि वह सड़क और उसके लोगों का सम्मान करे? क्या डीजे की धुन थोड़ी संयमित होकर नहीं बज सकती? क्या यदि रास्ता खुला छोड़ दिया जाए ताकि एम्बुलेंस, यात्रियों और जरूरी काम पर निकल चुके लोग बिना रुकावट आगे बढ़ सकें—तो क्या विवाह का उल्लास वास्तव में कम हो जाएगा? क्या हमारी खुशियाँ अब इतनी महंगी हो गई हैं कि उन्हें मनाने के लिए दूसरों की शांति और सुविधा का बलिदान अनिवार्य माना जाने लगा है?
संवेदनशीलता ही किसी भी उत्सव की असली जड़ है। वही एक तत्व है जो बारात को मात्र भीड़ से अलग पहचान देता है—उसे शोर का नहीं, संस्कृति का वाहक बनाती है। जब बारातें संयम और मर्यादा के साथ गुज़रती हैं, तो राहगीर भी उन्हें देखकर मुस्कुराते हैं; मन में सम्मान गहराता है। लेकिन जब वही उत्सव अव्यवस्था में बदल जाए, तो खुशी कुढ़न बन जाती है और संस्कृति का सारा सौंदर्य अपने अर्थ से खाली होने लगता है। शादी का संगीत दिल तभी छूता है, जब वह आसपास के जीवन पर चोट बनकर वापस नहीं लौटता।
शादी जीवन का सबसे उजला, सबसे यादगार दिन होता है—एक ऐसा क्षण जिसे लोग उम्र भर दिल की ऊपरी तह पर संभालकर रखते हैं। लेकिन इस सुंदरता की पूर्णता तभी होती है जब उसमें दूसरों की शांति, उनके अधिकारों और उनके स्थान का सम्मान भी जुड़ा हो। सड़कें किसी एक परिवार की निजी परिधि नहीं हैं; वे शहर की धड़कनें हैं—हर उस इंसान की, जो उनमें जीवन की जरूरतें ढोता है। इन धड़कनों पर मालिकाना हक़ किसी शोर या जुलूस का नहीं, इंसानियत का होना चाहिए।
आइए, अपनी शादियों को फिर से संस्कृति का वास्तविक उत्सव बनाएँ— जहाँ रौनक हो, पर उसके भीतर ज़िम्मेदारी की कोमल चमक भी हो; जहाँ संगीत हो, पर ऐसा जो कानों में नहीं, मर्यादा में गूँजे; जहाँ बारातें गुजरें, पर इस तरह कि उनके साथ-साथ आसपास के लोगों की शांति भी बेधड़क चलती रहे। क्योंकि असली खूबसूरती वही है—जो सिर्फ हमारे चेहरों पर नहीं, बल्कि अनजान राहगीरों के दिलों पर भी मुस्कान छोड़ जाए।

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