भारत-ऑस्ट्रेलिया-कनाडा त्रिकोण, अमेरिकी चिंता की बड़ी लकीरें

भारत-ऑस्ट्रेलिया-कनाडा त्रिकोण, अमेरिकी चिंता की बड़ी लकीरें

भारत ने बड़ी सफलतापूर्वक और बुद्धिमानी के साथ अमेरिका तथा डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ आक्रमण का विरोध सीधे-सीधे ना करके विश्व के अन्य प्रभावशाली नेताओं  के साथ स्वतंत्र संबंध बनाने का अभियान आरंभ कर एक नया क्षितिज बनाने का प्रयास किया है और इसी श्रृंखला में रूस, चीन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और ब्राजील तथा अन्य देशों के साथ राजनीतिक, कूटनीतिक, व्यापारिक तथा सामरिक संबंधों को बनाकर अमेरिका के समानांतर एक नया शक्ति संतुलन का प्लेटफार्म तैयार करने का प्रयास किया है। विश्व राजनीति एक बार फिर तीव्र पुनर्संतुलन की ओर बढ़ रही है, और इस पुनर्रचना के केंद्र में भारत-ऑस्ट्रेलिया-कनाडा का नया त्रिकोण तथा चीन-रूस की विस्तारित सामरिक निकटता दोनों मिलकर ऐसी संरचना तैयार कर रहे हैं जिसने अमेरिका की रणनीतिक चिंताओं को निर्णायक रूप से बढ़ा दिया है।
 
ग्यारहवें जी-20 शिखर सम्मेलन (जोहान्सबर्ग, 2025) के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज़ और कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी के साथ मिलकर ऑस्ट्रेलिया-कनाडा-इंडिया टेक्नोलॉजी इनोवेशन पार्टनरशिप की घोषणा की। यह साझेदारी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, स्वच्छ ऊर्जा, महत्वपूर्ण खनिज , और आपूर्ति श्रृंखलाओं के विविधीकरण जैसे क्षेत्रों पर केंद्रित है। इन तीनों देशों के बीच यह नई त्रिपक्षीय तकनीकी संरचना न केवल आर्थिक अवसरों का विस्तार करती है, बल्कि यह अमेरिका के नेतृत्व वाले वैश्विक तकनीकी गठबंधनों की एक वैकल्पिक लोकतांत्रिक धुरी प्रस्तुत करती है।
 
इस गठबंधन का राजनीतिक महत्व और बढ़ जाता है क्योंकि ऑस्ट्रेलिया और कनाडा दोनों फाइव आइज़ खुफिया नेटवर्क के अभिन्न अंग हैं, जिससे भारत के साथ उनकी रणनीतिक तालमेल केवल तकनीक या व्यापार तक सीमित नहीं रह जाता, बल्कि सुरक्षा-नीति, खुफिया आदान-प्रदान और भू-राजनीतिक समन्वय तक विस्तृत हो जाता है। इसके समानांतर चीन-रूस ने भी 2025 में अपनी “समग्र रणनीतिक साझेदारी” को और सुदृढ़ करने की घोषणा की, जो अमेरिका की “डबल कंटेनमेंट” नीति—यानी चीन और रूस दोनों को एक साथ रोकने की रणनीति—के प्रति तीखा प्रतिउत्तर है। दोनों देशों ने एक संयुक्त बयान जारी कर यह स्पष्ट कर दिया कि अमेरिका और उसके सहयोगी जिस प्रकार उनके चारों ओर ‘शत्रु-शक्ति घेरे’  बना रहे हैं, वह न केवल अस्वीकार्य है बल्कि उनकी संप्रभुता के लिए सीधी चुनौती भी है।
 
चीन-रूस का गठबंधन केवल कूटनीतिक वक्तव्यों तक सीमित नहीं रहा है; ऊर्जा, डिजिटल अवसंरचना, अंतरिक्ष-सहयोग, आर्कटिक लॉजिस्टिक्स, रक्षा प्लेटफॉर्म, साइबर-सुरक्षा और AI-शासन जैसे क्षेत्रों में इनके बीच व्यावहारिक सहयोग तेजी से बढ़ रहा है। रूस की ऊर्जा निर्भरता और चीन की आर्थिक व तकनीकी क्षमता एक दूसरे के पूरक के रूप में उभर रही है एक ऐसी धुरी के रूप में जो अमेरिकी प्रभाव को चुनौती देने के लिए सामरिक रूप से पूरी तरह संरेखित है।
 
यदि इन दोनों गतिशील प्रक्रियाओं एक ओर भारत-ऑस्ट्रेलिया-कनाडा त्रिकोण और दूसरी ओर चीन-रूस की निकटता को एक साथ देखा जाए, तो स्पष्ट होता है कि दुनिया एक नए महाध्रुवीय क्रम में प्रवेश कर रही है, जहां अमेरिका की परंपरागत सर्वोच्चता को दो दिशाओं से चुनौती मिल रही है। पहली चुनौती लोकतांत्रिक, लेकिन अमेरिका-वर्चस्व से स्वतंत्र उभरते गठजोड़ से आ रही है, जिसकी अगुआई भारत कर रहा है। दूसरी चुनौती एक प्रतिद्वंद्वी, दृढ़ और साझा वैचारिक धुरी—चीन और रूस—से आ रही है, जिसका उद्देश्य अमेरिकी प्रभुत्व का विकल्प तैयार करना है। भारत-ऑस्ट्रेलिया-कनाडा का त्रिगुट तकनीक, खनिज, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, समुद्री सुरक्षा, इंडो-पैसिफिक स्थिरता और सामरिक पारदर्शिता के क्षेत्र में ऐसा नेटवर्क तैयार कर रहा है जिसे अमेरिका आसानी से नियंत्रित नहीं कर सकता। यह गठबंधन पश्चिम-प्रधान टेक-हब और सप्लाई चेन पर निर्भरता को कम करता है और वैश्विक दक्षिण  की आकांक्षाओं का एक नया प्रतिनिधित्व प्रस्तुत करता है।
 
दूसरी ओर, चीन-रूस का गठबंधन स्पष्ट रूप से अमेरिकी नेतृत्व को संतुलित करने के लिए सक्रिय है। रूस के ऊर्जा संसाधन और सैन्य क्षमताएँ चीन की आर्थिक और तकनीकी शक्ति के साथ मिलकर एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी संरचना बना रही हैं। आर्कटिक में रूस की पहुंच और चीन की ‘पोलर सिल्क रोड’ नीति ने मिलकर अमेरिका को उत्तरी गोलार्ध में नई रक्षा चुनौतियों का सामना करने पर मजबूर किया है। साइबर और AI क्षेत्रों में दोनों देशों का समन्वय अमेरिकी डिजिटल प्रभुत्व को सीधी चुनौती देता है। 
 
इन दोनों उभरते ब्लॉकों को मिलाकर देखने पर अमेरिका की रणनीतिक चिंताएँ कई गुना बढ़ जाती हैं। एक ओर भारत-ऑस्ट्रेलिया-कनाडा त्रिकोण अमेरिका-प्रधान गठबंधनों के विकल्प के रूप में उभर रहा है, जबकि दूसरी ओर चीन-रूस अमेरिका के विरुद्ध एक वैचारिक और सामरिक मोर्चे के रूप में सक्रिय हैं। इससे अमेरिका के लिए दोहरी चुनौती पैदा हो गई है: एक प्रतिस्पर्धी लोकतांत्रिक नेटवर्क और दूसरा प्रतिस्पर्धी अधिनायकवादी धुरी—दोनों उसके प्रभाव क्षेत्र को सीमित कर रहे हैं।
 
 इसके अतिरिक्त अमेरिका के लिए यह चिंता इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत उसके लिए पश्चिमी तकनीकी, रक्षा व ऊर्जा रणनीति का प्रमुख स्तंभ बन चुका था। लेकिन अब भारत, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के साथ मिलकर जो स्वतंत्र तकनीकी-नवाचार संरचना विकसित कर रहा है, वह अमेरिका के वैश्विक नेतृत्व को अप्रत्यक्ष रूप से चुनौती देती है। क्रिटिकल मिनरल्स—जैसे लिथियम, कोबाल्ट, निकल—की वैश्विक राजनीति में यह त्रिकोण चीन के प्रभुत्व को सीमित कर सकता है और अमेरिकी खनिज-निर्भरता को कम प्रासंगिक बना सकता है। अमेरिका के लिए सबसे बड़ी रणनीतिक बेचैनी यही है कि यह दोनों धुरियाँ,भारत,ऑस्ट्रेलिया-कनाडा और चीन-रूस एक ही समय में और समान गति से उभर रही हैं। एक ओर भारत लोकतांत्रिक बहुध्रुवीय विश्व की पैरवी कर रहा है, दूसरी ओर रूस-चीन वैकल्पिक वैश्विक व्यवस्था की। दोनों प्रक्रियाएँ अमेरिकी वर्चस्व को किनारे करती हैं एक ‘सहयोगी स्वतंत्रता’ के नाम पर और दूसरी ‘विरोधी एकता’ के नाम पर।
 
इस प्रकार भारत-ऑस्ट्रेलिया-कनाडा त्रिकोण और चीन-रूस धुरी मिलकर अमेरिका के सामने वह परिदृश्य तैयार कर रहे हैं जिसमें न केवल उसकी रणनीतिक सर्वोच्चता कमजोर पड़ रही है, बल्कि वैश्विक निर्णय-प्रणाली में उसकी केंद्रीय भूमिका भी चुनौती के घेरे में है। दोनों गठबंधनों की समानांतर सक्रियता यह संकेत देती है कि विश्व व्यवस्था अब निर्णायक रूप से बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ रही है, जिसमें अमेरिका अब पहले जैसा एकमात्र या निर्विवाद नेतृत्वकर्ता नहीं रहेगा। यही वह बड़ा कारण है जिसकी वजह से भारत-ऑस्ट्रेलिया-कनाडा का यह त्रिकोण अमेरिका के लिए चिंता की सबसे बड़ी नई लकीर बनकर उभर रहा है एक ऐसी लकीर जो आने वाले दशक में वैश्विक शक्ति-संरचना का नक्शा बदल सकती है। 

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