लचित बोरफुकन: एक व्यक्ति, एक विचार, एक राष्ट्र
लचित बोरफुकन: इतिहास की चेतना का प्रक्षिप्त प्रकाश
इतिहास की धारा मोड़ने वाला एक मनुष्य: लचित बोरफुकन
जिस क्षण कोई राष्ट्र अपनी ही आत्मा की तहों में उतरकर शक्ति का स्रोत खोज लेता है, उसी क्षण उसके इतिहास से ऐसा तेज़ उठता है जो पीढ़ियों की दृष्टि बदल देता है। 24 नवम्बर वही क्षण है—जब लचित बोरफुकन का नाम सिर्फ़ याद के किसी कोने में नहीं रहता, बल्कि चेतना की तरह जागता है। यह दिन किसी औपचारिकता का नहीं, किसी रस्म का नहीं—यह उस अदम्य निश्चय की पुनर्पहचान है जिसने असम की मिट्टी को शत्रु की टापों से बचाया और भारत को बताया कि वीरता का जन्म वहीं होता है जहाँ कर्तव्य, जीवन से भी ऊँची कसौटी बन जाता है।
लचित की वह कठोरता, जिसमें उन्होंने अपने ही मामा को कर्तव्यहीनता के लिए दंडित किया, किसी क्रूरता का प्रमाण नहीं थी—वह अनुशासन की वह निष्ठुर स्पष्टता थी, जिसमें राष्ट्रहित से बड़ा कुछ नहीं बचता। व्यक्तिगत संबंध उनके निर्णयों के आड़े नहीं आए; और यही वह क्षण है जब लचित बोरफुकन असम के सेनापति से आगे बढ़कर सम्पूर्ण भारतीय चेतना का चेहरा बन जाते हैं। वे बताते हैं कि राष्ट्रभक्ति कोई क्षणिक भाव नहीं—वह एक अडिग नैतिक रीढ़ है। जो मनुष्य अपने संबंधों से ऊपर उठकर कर्तव्य को स्थान देता है, वही भूमि का सच्चा रक्षक बनता है।
24 नवम्बर को असम वर्ष दर वर्ष इस महानायक को स्मरण करता है और यह स्मरण केवल अतीत की ओर देखने का संस्कार नहीं, बल्कि वह क्षण है जब भारत अपने इतिहास के एक शांत कोने में छिपे प्रकाश को उजागर कर कहता है: यह शौर्य किसी भूगोल की सीमा में कैद नहीं, यह पूरे राष्ट्र का हिस्सा है। यह सम्मान केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि उस नैतिक स्वीकृति का प्रतीक है जिसे कोई देश अपने सच्चे रक्षकों को देता है। लचित अब इतिहास की एक पंक्ति नहीं; वे आज के भारत की आँखों में भी एक जीवित दिशा-सूचक बन चुके हैं।
सराईघाट का युद्ध भारतीय युद्धकला की उन विलक्षण घटनाओं में दर्ज है, जहाँ किसी सेनापति ने परिस्थितियों को ढाल नहीं, बल्कि शस्त्र बना दिया। ब्रह्मपुत्र की उफनती अनिश्चितता—जहाँ बड़ी सेनाएँ अपनी शक्ति खो देतीं—उसी नदी को लचित ने अपने रणनीतिक संकल्प का आधार बनाया। उन्होंने दिखा दिया कि युद्ध तलवारों का शोर नहीं, बल्कि बुद्धि, अनुशासन और मानसिक साहस का समन्वय है। संख्या और साधनों में कहीं विशाल मुग़ल सेना, लचित की अडिगता के सामने पहली बार भय से परिचित हुई। असम की नौका-सेना को उन्होंने जिस कौशल से प्रशिक्षित किया, उसने जलमार्ग को प्रतिरोध की सबसे तीखी रेखा में बदल दिया। यह जीत भूमि या जल की नहीं, मन की श्रेष्ठता की जीत थी।
Read More दमघोंटू हवा पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती- अब नियमित सुनवाई से जुड़ेगी दिल्ली की सांसों की लड़ाईइसीलिए लचित दिवस मात्र सांस्कृतिक स्मृति नहीं; यह उस मानवीय क्षमता का उत्सव है कि एक दृढ़ इच्छाशक्ति अकेली इतिहास की दिशा मोड़ सकती है। जब असम के विद्यालयों में बच्चे उनकी कथा सुनते हैं, जब राजधानी में उनकी रणनीतियों पर विमर्श होता है, जब देश का नेतृत्व उनके साहस के आगे माथा झुकाता है—तब यह केवल स्मरण नहीं रहता। यह राष्ट्र की मनोवैज्ञानिक दृढ़ता का पुनर्जागरण बन जाता है। यह हमें फिर याद दिलाता है कि नेतृत्व पद का भार नहीं—कर्तव्य का निर्वहन है।
आज का भारत तकनीकी, सामाजिक, भौगोलिक और वैचारिक—हर तरह की जटिल चुनौतियों से गुजर रहा है। ऐसे समय में लचित बोरफुकन की कथा किसी दूरस्थ इतिहास की प्रतिध्वनि नहीं, बल्कि आज की ज़रूरत की आवाज़ बनकर उभरती है। उनकी कहानी बताती है कि परिस्थितियाँ कितनी भी कठोर क्यों न हों, यदि नेतृत्व स्पष्ट हो, कर्तव्य निर्विवाद हो और साहस जीवित हो, तो कोई भी शक्ति किसी राष्ट्र की प्रतिष्ठा को नहीं झुका सकती। लचित हमें यह भी सीख देते हैं कि महानता ऊँचे शिखरों में नहीं, बल्कि उस मन की दृढ़ता में है जो कहता है—“वापसी कोई विकल्प नहीं।”
यहीं 24 नवम्बर का महत्व केवल स्मरण का नहीं, आत्मनिरीक्षण का बन जाता है। यह दिन पूछता है—क्या हम आज भी बाधाओं के सामने उतने ही दृढ़ हैं? क्या हम अपने निजी लाभ से ऊपर उठकर सामूहिक हित को प्राथमिकता दे सकते हैं? क्या हम अपने दायित्वों को उतनी गंभीरता से निभाते हैं जितनी एक सेनापति युद्धभूमि में निभाता है?
लचित दिवस इन प्रश्नों का उत्तर भी अपने भीतर लिए है—कि भारत की सभ्यता की जड़ें किसी महल, किसी वंश या किसी सत्ता में नहीं, बल्कि उन साधारण लोगों में हैं जो असाधारण क्षणों में राष्ट्र की रक्षा के लिए खड़े होते हैं। 24 नवम्बर हर वर्ष इस साहस का पुनर्जन्म है—हर भारतीय के भीतर, हर नए समय के संदर्भ में।
लचित ने सराईघाट में हमें केवल विजय नहीं दी; उन्होंने एक विचार दिया—कि असली शक्ति संख्या की विशालता में नहीं, संकल्प की ऊँचाई में होती है। यही संकल्प 24 नवम्बर को फिर धड़क उठता है, और हर भारतीय के भीतर वही पुराना, अडिग, अजेय स्पंदन गूँजता है—भारत की धड़कन आज भी वही है: दृढ़, अटल और प्रकाशमान।

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