पश्चिमी बंगाल, केरल और तमिलनाडु  ने एसआईंआर के  खिलाफ  की निर्वाचन आयोग से भागीदारी सुनिश्चित करने की मांग

पश्चिमी बंगाल, केरल और तमिलनाडु  ने एसआईंआर के  खिलाफ  की निर्वाचन आयोग से भागीदारी सुनिश्चित करने की मांग

हाल ही में चुनाव आयोग द्वारा कई राज्यों में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की घोषणा ने राजनीतिक तापमान बढ़ा दिया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस प्रक्रिया का तीव्र विरोध कर रही हैं। उनका आरोप है कि यह कोई सामान्य वोटर-सूची सुधार नहीं, बल्कि पिछले दरवाजे से NRC नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स लागू करने की रणनीति है। उन्होंने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर SIR रद्द करने, समय सीमा बढ़ाने, और कर्मियों को पर्याप्त प्रशिक्षण और सहायता देने की मांग की है।  अन्य राज्य भी इस विषय पर  प्रतिक्रिया दे रहे हैं और क्या उनकी मांगों में न्यायसंगत व लोकतांत्रिक आधार है।
 
यह SIR नहीं, बैकडोर NRC है
ममता बनर्जी ने बार-बार कहा है कि SIR प्रक्रिया सिर्फ मतदाता सूची सुधार नहीं है, बल्कि एकबैकडोर NRC पिछला दरवाजा एनआरसी है।  उनका तर्क है कि इसमें नागरिकता तय करने की छिपी हुई कोशिश है, और यह आत्मसात करना लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा हो सकता है। वे दावा करती हैं कि विकल्पों का दुरुपयोग हो रहा है।अधिकारियों को फील्ड सर्वे करने का दबाव, घर-घर जाकर दस्तावेज़ मांगना, और मतदाताओं को मानवीय सीमाओं से परे काम करने के लिए मजबूर करना आदि शामिल है।बूथ-स्तर अधिकारियों पर दबाव और अमानवीय परिस्थितियाँ ममता ने चुनाव आयोग पर आरोप लगाया है कि बूथ-लेवल ऑफिसर्स (BLO) को अमानवीय कर्तव्यभार दिया गया है।  उन्होंने कहा है कि BLO लगातार घर-घर जाकर काम कर रहे हैं और उनकी मानसिक स्थिति प्रभावित हो रही है। 
 
यह आरोप इतना गंभीर है कि एक BLO की आत्महत्या की घटना ने राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया है।  बनर्जी ने कहा है कि उनके लेटर में उन्होंने बलपूर्वक कार्रवाई बंद करने, उचित प्रशिक्षण और सहायता प्रदान करने में हस्तक्षेप की मांग की है। समय सीमा और कार्यप्रणाली पर पुनर्विचार की मांगकी है।ममता ने यह भी सुझाव दिया है कि SIR की समय-सीमा बहुत संकुचित है, और यह प्रक्रिया अनियोजित और अव्यवस्थित ढंग से थोपी जा रही है।  उनका कहना है कि यदि उचित समय और संसाधन न मिले, तो यह नागरिकों के लिए जोखिम भरा हो सकता है, और यह मतदाता सूची से हेरफेर की संभावना बढ़ाता है।
 
 लोकतांत्रिक और संवैधानिक चिंताएँ बढ़ती जा रही है।ममता का विरोध अनुचित और अन्यायपूर्ण है।जबकि अमान्य नागरिकों को हटाया जा रहा है।जोकि वे घुसपैठिए हो सकते है। मुख्यमंत्री के अनुसार, यह कदम लोकतांत्रिक अधिकारों को कमज़ोर कर सकता है।  उन्होंने संविधान और सार्वभौमिक मताधिकार पर जोर देते हुए चेतावनी दी है कि यदि मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर नाम हटा दिए गए, तो यह मतदाता वंचन का मामला बन सकता है।  वे यह भी कह रही हैं कि इस तरह की गहन समीक्षा संवैधानिक संस्थानों के निष्पक्षता और स्वायत्तता पर सवाल खड़े करती है। 
 
अन्य राज्यों की प्रतिक्रिय भी है,लिहाज़ा ममता अकेली नहीं हैं।ममता बनर्जी का विरोध सिर्फ बंगाल तक सीमित नहीं है। कई अन्य राज्यों की सरकारें भी SIR प्रक्रिया पर सवाल उठा रही है। तामिलनाडु में DMK सहित उसके सहयोगी दलों ने SIR के ख़िलाफ़ व्यापक प्रदर्शन किया है।  DMK सांसदों और अन्य विपक्षी नेताओं ने इसे लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन बताया और चेतावनी दी कि यह BJP­ नेतृत्व वाली सरकार की रणनीति है मतदान को नियंत्रित करने की। 
 
केरल के मुख्यमंत्री पिनराय विजयन ने SIR की टाइमिंग और दृष्टिकोण पर सवाल उठाए हैं।  उनका आरोप है कि चुनाव आयोग पुराने वोटर डेटा (2002–04) के आधार पर इस समीक्षा को कर रहा है, जो वर्तमान वोटर सूची के अनुरूप नहीं है और यह नियमों के उल्लंघन जैसा है। ममता की रणनीति और राजनीति कार्यप्रणाली को प्रभावित कर रही है।ममता बनर्जी का यह विरोध सिर्फ एक प्रशासनिक शिकायत है। 
 
राजनीतिक संदेश हैंकि ममता यह संदेश दे रही हैं कि वह और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस (TMC) लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सुरक्षा के पक्षधर हैं। उन्होंने जनता को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की है कि यह मुद्दा सिर्फ उनका नहीं, बल्कि पूरे विपक्ष का है और वोटर सूची में हेरफेर का राज़नीतिक हित है, न कि सिर्फ तकनीकी सुधार। 
 
 उन्होंने कोलकाता में विरोध मार्च की घोषणा की है।  उन्होंने संविधान को हाथ में ले कर सड़कों में उतरने की अपील की और इसे लोकतंत्र की रक्षा का संघर्ष बताया। संघर्ष के कानूनी और संवैधानिक तत्व पर विचार करना होगा। ममता ने मुख्य चुनाव आयुक्त को पत्र लिखकर न केवल मांगें रखीं, बल्कि संवैधानिक आधार पर भी सवाल उठाए हैं।  उनका यह कहना है कि अगर चुनाव आयोग और केंद्र इस पर पुनर्विचार नहीं करेंगे, तो TMC और वे लोग लोकतांत्रिक कदमों जैसे धरनासे पीछे नहीं हटेंगे। लेकिन ममता की स्वार्थपरायण नीति से मतदाता भी अनभिज्ञ नही है।
 
 हालांकि ममता का विरोध बहुत मजबूत नही है।इसके पीछे राजनैतिक षड्यंत्र की बू आ रही है। लेकिन कुछ रिपोर्ट्स यह भी कहती हैं कि उन्होंने यू-टर्न लिया है । यानी, स्थिति को हल्के ढंग से संबोधित करते हुए आलोचना और समर्थन के बीच संतुलन खोजने की कोशिश की है। ममता द्वारा उठाए गए मूल भय और उनकी वैधता ममता बनर्जी जो चिंताएँ व्यक्त कर रही हैं, उनमें कई संवेदनशील और लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण बिंदु हैं। परन्तु एसआई आर की प्रक्रिया कई राज्यो में शुरू हो चुकी है।और 40 प्रतिशत से ज्यादा कार्य पूर्ण हो चुका है।विपक्ष को हीआपत्ति है।
 
मतदाता वंचन यदि SIR के दौरान बड़ी संख्या में नाम हटाए जाएँगे, तो यह काफी लोगों के वोट देने के अधिकार को प्रभावित कर सकता है। यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांत कि हर नागरिक को मतदान का बराबर अवसर मिलना चाहिए के खिलाफ हो सकता है। बीएलओ  पर पड़ रहा कार्यभार और दबाव एक गंभीर समस्या है। उनकी गिरती मानसिक स्थिति, संभावित आत्महत्याएँ है। ये सब यह दर्शाते हैं कि प्रक्रिया मानवीय दृष्टि से टिकाऊ नहीं है।संविधान और संस्थागत निष्पक्षता के आधार पर यदि चुनाव आयोग या केंद्र सत्ता इसे सिर्फ एक राजनीतिक औजार की तरह इस्तेमाल कर रही हों, तो यह संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता और लोकतांत्रिक तंत्र पर खतरा पैदा कर सकता है।
 
राजनीतिक साजिश का आरोप लगाया है। बैकडोर NRC का तर्क इस भय को दर्शाता है कि यह कदम केवल वोटर सूची सुधार नहीं, बल्कि नागरिकता और पहचान के अधिक गहरे मुद्दों से जुड़ा हो सकता है। ये तर्क न केवल राजनीतिक हैं, बल्कि लोकतांत्रिक, संवैधानिक और मानवीय दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। इसलिए, ममता बनर्जी का विरोध सिर्फ स्वयं की राजनीतिक स्थिति बचाने वाला कदम माना जा रहा है।  उसे व्यापक लोकतांत्रिक बहस के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए। यह तर्क ममता के स्वार्थी रवैया का ही परिणाम है।क्योंकि अगले वर्ष पश्चिमी बंगाल  में विधानसभा चुनाव होने है।
 
इसलिए ममाता एसआइआर का विरोध जता रही है।लेकिन यह संविधान और देशहित के खिलाफ है।मतदाता और मतदान प्रभावित करने वाली क्रिया है।इसका विरोध होना अन्यायपूर्ण है।ममता बनर्जी सुझाव दे रही हैं कि अगर SIR प्रक्रिया को रद्द न करना हो, तो कम-से-कम निम्न सुधार होने चाहिए।समय-सीमा में वृद्धि अधिक समय देने से अधिकारियों और मतदाताओं दोनों को बेहतर तैयारी का अवसर मिलेगा। यह त्रुटियों, दबाव और गलतफहमियों की संभावना को कम कर सकता है।
 
उचित प्रशिक्षण और सहायता
BLO और अन्य चुनाव कर्मियों को बेहतर प्रशिक्षण देना चाहिए। उन्हें दस्तावेज़ सत्यापन, नागरिक संवेदनशीलता और तनाव प्रबंधन में सहायता मिलनी चाहिए ताकि वे अपनी जिम्मेदारियों को सुरक्षित और मानवतापूर्ण तरीकों से निभा सकें।
 
 व्यवस्थित और पारदर्शी प्रक्रिया
चुनाव आयोग को अपने मूल्यों और प्रक्रियाओं में पारदर्शिता दिखानी चाहिए। यह बताना चाहिए कि क्यों यह SIR ज़रूरी है, इसे कैसे लागू किया जाएगा, और कौन-कौन से कदम उठाए जाएंगे ताकि मतदाता सूची से वंचित पक्षों को निष्पक्ष न्याय मिले।संविधान और लोकतांत्रिक गारंटी सुनिश्चित करना समीक्षा के दौरान मतदाता वंचन की आशंका को देखते हुए, किसी स्वतंत्र लोकपाल या निगरानी तंत्र की स्थापना पर विचार किया जाना चाहिए, जो देखे कि प्रक्रिया लोकतांत्रिक अधिकारों के अनुरूप हो।संवाद और सांवैधानिक पुनरावलोकनजरूरी है।राज्य सरकारों, नागरिक समाज और चुनाव आयोग के बीच खुली बातचीत हो। यदि कोई वास्तविक संवैधानिक समस्या है, तो सर्वोच्च न्यायालय या निर्वाचन आयोग को मिलकर उसे हल करने के लिए कदम उठाना चाहिए।
 
ममता बनर्जी का संघर्ष सिर्फ बंगाल का मसला नहीं है । यह पूरे देश में लोकतंत्र की भावी दिशा के बारे में एक बड़ा संकेत है।  मतदाता सूची किसी भी चुनावी प्रणाली की नींव होती है। यदि उसकी समीक्षा में त्रुटियाँ हों, तो चुनाव की निष्पक्षता पर बड़ा संदेह उठ सकता है। कई राज्यों का यह कहना कि चुनाव आयोग और संभावित रूप से केंद्र इस प्रक्रिया को वोटर-सूची हेरफेर के लिए इस्तेमाल कर रही है,लोकतांत्रिक संतुलन और संघीयता के सवाल खड़े करता है। लेकिन इनका विरोध पार्टी के आधार को सामने रखकर किया जा रहा है।यदि यह सच है कि SIR के जरिये नागरिकता संशोधन या एनआरसी जैसा कुछ आगे बढ़ाया जा रहा है, तो यह नागरिकों की पहचान, अधिकार और लोकतांत्रिक हिस्सेदारी को प्रभावित कर सकता है।निगरानी और जवाबदेही भी जरूरी है।विपक्षी राज्यों की चेतावनियाँ यह दर्शाती हैं कि लोकतंत्र में निर्णायक संस्थाओं जैसे चुनाव आयोग को न केवल निष्पक्ष होना चाहिए, बल्कि उन्हें अपने निर्णयों और प्रक्रियाओं के लिए जवाबदेह भी रहना चाहिए।
 
ममता बनर्जी द्वारा चुनाव आयोग को लिखे गए पत्र और उनके सार्वजनिक विरोध में अनेक वैध और महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। केवल राजनीतिक नारा लगाने की बजाय, उन्होंने संवैधानिक, लोकतांत्रिक और मानवीय आधारों पर अपनी चिंताओं को प्रस्तुत किया है। अन्य राज्यों जैसे तमिलनाडु, केरल का समर्थन इस बात का संकेत है कि यह सिर्फ एक सत्तापक्ष का विरोध नहीं, बल्कि एक व्यापक लोकतांत्रिक संघर्ष की शुरुआत हो सकती है।
 
यदि SIR प्रक्रिया पूरी तरह से रद्द न भी हो, तो पारदर्शिता, मानवाधिकार-संवेदनशीलता, और लंबी समय-सीमा जैसी चिंताओं को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। चुनाव आयोग और केंद्र सरकार को राज्य सरकारों, नागरिक समाज, विपक्षी दलों के साथ खुला संवाद शुरू करना चाहिए, ताकि लोकतांत्रिक संस्थानों और नागरिक अधिकारों में भरोसा बना रहे।साथ ही, एक स्वतंत्र निगरानी तंत्र जैसे लोकपाल या नागरिक आयोग बनाना उपयोगी हो सकता है, जो SIR की समीक्षा को यह सुनिश्चित करने के लिए देखे कि यह कार्रवाई किसी वोटर समूह को वंचित न करे।अगर लोकतंत्र की नींव मजबूत होनी है, तो मतदाता सूची जैसी आधारभूत संरचनाओं पर विश्वास-सृजन करना बहुत ज़रूरी है। 

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